कहानी

समाधान

रहने तथा आवागमन आदि की सहूलियत देखते हुए आवास शहर से सटे एक कालोनी में ही ले लिया था मैंने। और विद्यालय आने -जाने के लिए एक नई साइकिल। सुबह  सात बजे के स्कूल होने के कारण लगभग ‘डेढ़ -पौने दो’ पर घर पहुँच ही जाया करता।  आज भी महज़ पाँच मिनट का रास्ता ही शेष रह गया था।
‘सर जी प्रणाम…’ मेरे कानों में यही शब्द एकाएक गूँज उठे … पलटकर देखा तो बराबर में साइकिल चलाता हुआ एक बालक जिसे देखकर यही समझा जा सकता है कि वह कक्षा ६ में पढ़ने की उम्र का होना चाहिए चल रहा था।
बदले में नमस्कार बोलते हुए उसकी तरफ मुखातिब हुआ…
‘सर,! आप हमारे विद्यालय में आये हो न …’
‘तो तुम, धरमपुर में पढ़ते हो’
‘ हाँ सर …’
‘तो अभी…’
‘काम पर ….’
काम पर …! मुझे विश्वास नहीं हुआ अथवा मेरे कान यह सब सुनने के लिए तैयार नहीं थे… मैंने तसल्ली के लिए दुबारा पूछा। घर का कोई काम होगा…?
‘सर नहीं ; मैं काम करता हूँ ‘
‘अभी तो 14 वर्ष से नीचे होंगे ‘
‘सर मैं आठ  में पढ़ता हूँ।’
‘कौन-सा काम …?’
‘टेक्नीशियन का सर, और वह नौ की कक्षा का रोहित कारपेन्ट्री का…’
‘अभी कुछ घण्टे पहले ही स्कूल से लौटे हो, ठीक से खा भी नहीं पाये होगे कि; काम …’
आगे रेलवे क्रासिंग पार करते ही हमारे रास्ते विलग हो गये। परन्तु मन में बेचैनी बढ़ती रही। धरमपुर वाले नये विद्यालय में आये हुए ‘डेढ़ -दो सप्ताह’ ही हुए थे। अपनी कक्षा के छात्र छात्राओं का ही ठीक से  परिचय नहीं कर पाया था। कुछ तो अब तक आ भी नहीं रहे थे। फिर आठ में तो मेरा कोई विषय था ही नहीं।
यह मालूम तो था कि यहाँ बहुत से बच्चे काम भी करते हैं। और इसमें लिंग का कोई भेदभाव भी नहीं था। कई- कई अभिभावक अपने साथ बच्चों को काम पर ले जाया करते थे। नियमित विद्यार्थियों के स्कूल न आने का बहुत बड़ा कारण एक यह भी था।
औद्योगिक नगर होने के कारण धरमपुर में काम की सुलभता थी। देश के कोने- कोने से लोग -बाग काम की तलाश में साल भर आते। बे-सहारा लोगों के लिए यह शहर रोजगार देता था। काम के बदले उचित पारिश्रमिक न मिलने का अधर्म धरमपुर में भी धड़ल्ले से चलता था।  किन्तु काम चाहने वालों के लिए रोजगार सुलभ हो जाया करता था। उन्हें घर वालों के ‘निकम्मा कामचोर’ आदि जैसे ताने सुनने नहीं पड़ते ।
जूनियर सेक्शन के फील्ड में एक विशालकाय पीपल का वृक्ष है। खाली वादनों में अक्सर अध्यापक कुर्सी डालकर वहीं बैठते हैं। मध्यांतर में मध्याह्न- भोजन- योजना के लाभार्थी बच्चों में कुछ अपनी थाली लेकर भी इसके गोल चबूतरे पर बैठ जाते हैं ।
‘सुबह क्या खाकर आते हो’ एक लघुकाय -कृशकाय बालक से जो अपनी थाली लेकर खा रहा था,  मैडम ने पूछा …
‘चाय और स्नेक्स…’
‘अगले साल  नौ में चला जाएगा फिर …’
वह कुछ झेंप -सा गया और मैडम का प्रश्न अनुत्तरित ही रहा…
‘अच्छा यह बताओ तुम्हारे घर में निर्णय कौन लेता है…’
‘ मैं ही …’
एक मँजे हुए दायित्व- धारी की तरह तेज आवाज़ में उस अदने-से दिखने  वाले बालक ने कहा…
सुनकर विस्मय हुआ और मैंने भी अपनी कुर्सी खींच कर उधर ही कर लिया।
‘काम पर कितने बजे निकलता है…’
‘दो बजे…’
‘लौटता कब  है …?’
‘रात में आठ बजे ‘
मैंने कहा कुछ बच्चे यहाँ काम पर भी जाते हैं। एक कोई मुझसे चार दिन पहले मिला था शहर जाते हुए…
‘सर मैं ही तो था उस दिन’
अच्छा, हाँ आवाज़ और शारीरिक बनावट से मुझे भी ऐसा लग रहा था।
‘सोते कब हो…’ मैंने पूछा
‘थोड़ा  दुकान में भी सो लेता हूँ ; सुबह चार बजे एक और काम करता हूँ घर के बगल मे सामान रखने का काम एक घंटे का …’
‘कितने मिलते हैं…’
‘एक घंटे वाले में तीन-सौ …और टेक्निशियन वाला तीन हजार पांच सौ  देता है महिने का …’
‘मैंने पूछा उम्र कितनी है…’
‘पन्द्रह वर्ष…’ का है सर !’
उसकी कक्षाध्यापिका की ओर से उत्तर मिला।
बाल -श्रम की उम्र को छू-कर निकल गयी हो जैसे एक स्पर्श -रेखा …
‘कितने भाई -बहन हो…’
‘तीन बहनें, दो भाई… बड़ा भाई मेरे से दो -साल बड़ा है लेकिन मेरी कक्षा में ही पढ़ता है और टुकटुक चलाता है। बहनें प्राइमरी में पढ़ती हैं।’
‘परन्तु क्यों..’
‘सर, इसके पिता जी नहीं हैं। एक- डेढ़ साल पहले कोरोना में…’
‘ऊफ्…’
पीपल वृक्ष के नीचे भी उमस एकाएक बढ़ गयी। पत्तियों का सहज कम्पन रूक-सा गया था। मेरी सभी जिज्ञासाओं का समाधान हो गया था…
— मोती प्रसाद साहू 

मोती प्रसाद साहू

जन्म -1963 वाराणसी एक कविता संग्रह-पहचान क्या है प्रकाशित विभिन्न दैनिक पत्र-पत्रिकाओं ;ई0 पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन संपर्क 9411703669 राजकीय इण्टर कालेज हवालबाग अल्मोड़ा उ0ख0 263636 ई0 मेल- motiprasadsahu@gmail.com