कविता

भरत मिलन

वन गमन श्रीराम जी की थी अति दुःखदाई
भरत सुन ये संदेशा उन्हें शर्म बहुत आई
लौटे वापस ननिहर से नीज    आवासा
माँ  कैकेयी पर गुस्से से किया निराशा
नहीं चाहिये हमें राज्याभिषेक सुन माई
मेरे अग्रज प्रभु राम हैं जिगर सम भाई
दौड़ चले भरत श्रीराम को वापस लाने
रास्ते में उड़ी गुब्बार लखन जब देखा
गुस्से से मन ही मन बुरा भला था सोंचा
भरत प्रभु राम के चरण पर गिर रोये
वापस घर आने की विनती कर   जोड़े
नहीं चाहिये राज पाट हमें सुन  भाई
पर प्रभु श्री राम ने पिता की आज्ञा बताई
प्रभु श्री राम ने मन ही मन मुस्कुराये
उठा भरत को नीज गले उन्हें लगाये
धुल गई दिल की मैल जो थी पराई
पितृपक्ष सबल हो मातृपक्ष ना हो भाई
चरण पादुका भरत ने तब प्रभु से मांगा
लौटे निराश भरत अति दर्द तब   लागा
चौदह वर्ष किया शाषण गद्दी पर ना बैठा
चरण पादुका प्रभु के नाम बने कार्यकारी राजा
भरत मिलन देता है जग को संदेशा
भाई के समान संवध ना है कोई दूजा
पितृपक्ष मजबूत हो मेरे जग भाई
मातृपक्ष कैसा भी हो ना हो दुःखदाई

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088