लघुकथा

ऊंची पतंग

एयरपोर्ट पर दिविशा को विदा करने के बाद उसके माता-पिता पुनः लॉबी में बैठकर फ्लाइट जाने की प्रतीक्षा करने लगे. वे अचल थे, लेकिन विचारों को चलायमान होने से कैसे रोका जा सकता है!
पिताजी तो अपने मोबाइल में मगन हो गए, लेकिन मां का मन दिविशा के, बल्कि अपने बचपन तक पहुंच गया.
“मैं बच्ची थी, तो लड़कों को पतंग उड़ाते देख मेरा मन भी पतंग उड़ाने को करता. माता-पिता के पास धन की कमी नहीं थी, हजारों पतंगें दिलवा सकते थे, मगर “छोरियां पतंग उड़ावें सै के?” लग गया प्रश्नचिह्न!”
“मेरी छोरी का भी पतंग उड़ाने का मन करता था, पर हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि उसे पतंग और चकरी लेकर देते. मन बहुत दुःखी रहता था.”
“मन्नू, तू चिंता मती न करे, थारी छोरी खुद ऊंची पतंग बणेगी.” लाला दीनदयाल दिलासा देते.
“छोरियां ते होवैं ही पतंग! थोड़ी बड़ी होईं. कि जा बैठीं सासरे!” मैं सोचा करती!
“मन्नू तेरी छोरी की चमकदार आंख्यां बोले छै कि घणो आगै जाएगी, देवी छै देवी. इसका नाम दिविशा रख दियो.” जन्मते ही बिना खर्च दिविशा के दादाजी ने उसका नामकरण भी कर दिया था.
“पण आगे बढ़ेगी कैयां! आंख्यां चमकदार होणे से की होवै! पीसा भी तो लागै सै!” रोज कमाने, रोज खाने वाले हम, चिंता तो होनी ही थी!
“मन्नू, आपां जेवर गिरवी राखके छोरी नूं पढ़ावेंगे.” उसके पिताजी बोले थे.
“फेर की होया, छोरी कैसे-कैसे वजीफे से पढ़ती गई! गिरवी जेवर भी छुड़वा दिए, आज बहुत बड़े ओहदे पर अमेरिका जा रही सै.” मन्नू की सोच उड़ान भरती जा रही थी.
“लै भाई मन्नू, थारी छोरी के जहाज ने उड़ान भर ली, अब घरां चाल!” पति की आवाज से उसकी तंद्रा टूट गई.
“लाला दीनदयाल की बात ठीक निकली! छोरी ऊंची पतंग बन गई थी.” सोचते-सोचते मन्नू चल पड़ी.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244