लघुकथा

गांव की बेटी

जब से टिंकू ने पुरानी फिल्म “मदर इंडिया” का गाना “गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे” सुना, वह तो बैलगाड़ी का दीवाना ही हो गया. रोज बैलगाड़ी में बैठने की रट ने आखिर जीत हासिल कर ही तो ली! वह मम्मी-पापा के साथ नाना जी के गांव को चल पड़ा.
“पापा जी, फिर कार में! मुझे तो बैलगाड़ी से जाना था!”
“धीरज रखो बेटा, वह भी हो जाएगा.”
“क्या पापा हमेशा की तरह धीरज- धीरज! मेरा नाम आपने धीरज ही रखना था! मम्मी प्लीज़, आप ही बोलो न पापा से!”
“क्या बोलूं? चलो उतरो कार से, आ गई तुम्हारी बैलगाड़ी!” पहलवानों जैसे तगड़े बैलों वाली गाड़ी देखकर टिंकू तो खुशी के मारे तालियां बजा-बजाकर खुश हो रहा था. गाड़ी चला रहा था एक सींकिया पहलवान! गाड़ी में पीछे बैठे नानाजी उतरे और सबसे मिले.
टिंकू की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. गाड़ी वाले लड़के ने गाड़ी में सामान रखा ही था, कि टिंकू सामान के ऊपर ही बैठ गया. नाना जी तो कार लेकर पक्के रास्ते से गए थे, बैलगाड़ी तो कच्चे रास्ते से ही पटर-पटर चली जा रही थी. हौले-हौले हिचकौले भी आनंददायक लग रहे थे.
नाना जी तो पहले पहुंचकर उनकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे, अन्य कई लोग भी स्वागत के लिए फूलमालाएं लेकर खड़े थे. बैलगाड़ी के पहुंचते ही सबका इतना आदर-सत्कार हुआ कि फूलमालाओं से लदा टिंकू तो निहाल ही हो गया.
दूसरे दिन दोपहर में दीनू काका अपने बाजरे के खेत में ले गए और वहां उनको मक्खन और छाछ के साथ बाजरे की रोटी तो खिलाई ही, बाजरे के पौष्टिक और लाभदायक, पाचन तंत्र को मजबूत कर शरीर को चुस्त और फुर्तीला बनाने, दिल के लिए अत्यंत उपयोगी बताते हुए कैंसर से बचाव करने आदि के बारे में भी बताया. टिंकू को तो मानो स्कूल के लिए एक प्रोजेक्ट ही मिल गया था.
रात के लिए रामेश्वर काका ने अपने घर आने के लिए न्यौता दिया. अगले दो दिन के न्यौते भी इंतज़ार कर रहे थे. टिंकू बड़ा हैरान था. उसके लिए यह सब कुछ नया-नया और अनोखा था.
“नाना जी, हम तो आपके यहां आए थे, आपके यहां तो खाने का मौका ही नहीं मिल रहा, बाकी सब लोग क्यों बुला रहे हैं? हमारे यहां शहर में तो ऐसा नहीं होता!”
“बेटा, तुम्हारी मम्मी सिर्फ मेरी बेटी नहीं, पूरे गांव की बेटी है. शादी-ब्याह में भी सब लोग ऐसे ही मदद करते हैं, जैसे उनकी अपनी ही बेटी हो! पूछ लो अपने पापा से!”
“वाह नाना जी, आपके यहां तो सिर्फ बैलगाड़ी के मजे ही नहीं, इतने सारे नाना-नानियों का ढेर सारा प्यार भी मिल गया! मेरे स्कूल का चक्कर है, वरना मैं तो यहीं रह जाता. काश! ऐसा रिश्ता शहर में भी मिल पाता!

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244