सामाजिक

कोई काम छोटा नहीं होता

आज टीवी पर “मास्टर शेफ़” नाम का शो देखा, तो विचार आया कि सच में हमने बौद्धिक तरक्की कर ली है। खाना पकाना जो काम कल तक लड़कियों का था, आज लड़के भी उस पर हाथ आज़मा रहे है, देशी से लेकर कान्टिनेंटल  डिशें बना रहे है। और दूसरा शो देखा “शार्क टैंक” जिसमें लड़कियाँ अपने बिज़नेस को बखूबी आगे बढ़ाती और पैसे कमाने के नये नये तरीके दिखा रही है। आजकल की पीढ़ी को सिर्फ़ काम चाहिए, वो काम को जेंडर के तराजू में नहीं तोलते। लड़के और लड़कियाँ सब एक दूसरे के काम को अपनाकर आगे बढ़ रहे है, जो एक गर्व करने वाली बात है।
पर फिर भी कुछ एक परिवारों को ये बदलाव पसंद नहीं। लड़कों का रसोईघर में कदम रखना उनको शर्मसार करने वाला काम लगता है। लेकीन काम का बँटवारा किसने किया? कौन क्या करेगा, किसको क्या शोभा देगा, कौनसे काम किसको करने चाहिए, किसको नहीं करने चाहिए ये बात कौनसे मापदंड को ध्यान में रखकर तय की जाती है? मर्दों को कुछ काम शोभा नहीं देते या लड़कियाँ ये काम कर ही नहीं सकती इसी मानसिकता से उभरकर आता है ये भेदभाव। बेटों से इन्जीनियर या डाॅक्टर बनने की और बेटियों से नार्मल गृहिणी बनने की अपेक्षा की जाती है। सोचिए अगर सारे बच्चें सिर्फ़ डाॅक्टर और इन्जीनियर ही बनने की सोचेंगे तो बाकी कामों के लिए हम कारीगरों को कहाँ से आयात करने जाएँगे? बेटियाँ क्यूँ हर क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकती? हमारी समाज व्यवस्था कितनी दोगली है।
घर से ही शुरूआत करें तो, कुछ माँ-बाप की मानसिकता इतनी संकुचित होती है कि बेटे-बेटी में फ़र्क यहीं से ही साफ़ दिखता है। बेटे कभी रसोई में जाकर चाय, मैगी या सलाद जैसा कुछ बनाने की कोशिश करते है, तो माँ कहेगी “अरे बाहर निकल लड़की है क्या? जो रसोई में घुसकर खाना बना रहा है” क्यूँ, लड़के खाना क्यूँ नहीं बना सकते? बड़ी-बड़ी फ़ाइवस्टार होटलों में शेफ़ लड़के ही होते है, जो लाखों में सेलरी लेते है। अगर लड़कों को खाना बनाने में रुचि है तो सिखाओ लड़कों को खाना बनाना, कोई काम छोटा नहीं होता, ना ही शर्मिंदा होने वाला होता है।
और तो और लड़कों को बटन लगाना सिलाई, कढ़ाई और कटिंग करना भी सिखाईये। फ़ैशन डिज़ाइनर लड़के भी होते है, जो अपना बुटिक खोलकर आराम से एक लहेंगे को लाख डेढ़ लाख में बेच सकते है। ब्लाउज़ से लेकर सूट तक जो परफ़ेक्ट फ़िटिंग वाले सीते है वो टेलर मर्द ही होते है। तो क्या दिक्कत है लड़कियों के काम अगर लड़के करें।
ऐसे ही जब कोई लड़की घर में बोलेंगी कि मुझे पायलट बनना है, या किसी कंपनी की सीईओ बनना है तो घरवालों की आँखें बाहर निकल आती है; अरे तू खाना पका और कढ़ाई बुनाई सीख, हवाई जहाज उड़ाने का काम लड़कों का होता है समझी। ये क्या बात हुई? क्यूँ लड़की पायलट नहीं बन सकती? जब हम हवाई जहाज से सफ़र करते है और एनाउंसमेंट होती है कि, आज हमारी पायलट मिस…. है तब गर्व से गर्दन ऊँची हो जाती है। या किसी कंपनी को आसमान की ऊँचाई तक पहुँचाने में किसी महिला की मेहनत रंग लाती दिखती है तब बेटियों के प्रति सम्मान बढ़ जाता है। सदियों से चली आ रही परंपरा अब नष्ट हो रही है, कि कुछ एक काम मर्दों को ही शोभा देता है समय के चलते इस मानसिकता का खंडन जड़ से होना जरूरी है।
काम वो अच्छा जिससे आपका घर चले, परिवार पले। तो काम का बँटवारा करके बच्चों को उनके सपनों से वंचित क्यूँ रखे? करने दीजिए जिस काम करने का  उनका मन हो, रुचि हो, जिस काम को करने से उन्हें खुशी मिले। उनके हौसलों को सहारा दीजिए, उनके हुनर को तराशने का मौका दीजिए, वो प्लेटफार्म दीजिए जिसके ज़रिए अपना मकसद पूरा कर सकें। आलोचना नहीं सराहना कीजिए, बनने दीजिए लड़कों को शेफ़ और लड़कियों को पायलट, जिसकी शुरुआत अपने घर से ही कीजिए।
— भावना ठाकर ‘भावु’ 

*भावना ठाकर

बेंगलोर