कविता

रिश्तों का यथार्थ

मन में इतनी उथल पुथल है
उद्गिगनता इतनी कि सब गड्मगड्
हो रहा आपस में,
जो देखा अपनी आंखों से
जो सुना अपने कानों से
फिर भी विश्वास नहीं हो रहा
पर नकारा भी तो नहीं जाता।
ऐसा भी हो सकता है
या महज भ्रम है मेरे मन का
अथवा दिवास्वप्न है जो सिर्फ मैंनें देखा।
पर ऐसा कुछ भी नहीं है
जो सुना अब तक कानों मे
पिघले शीशे सा रेंग रहा है
आंखों से आँसुओं का समन्दर उड़ेल रहा है
क्योंकि वो रिश्ता अपना था, खून का था,
एक मां की कोख में पनपा था।
पर इतना बेगैरत, बेशर्म, बेहया
कि शर्म भी शरमा जाये
पर वो नहीं शरमाया
और रिश्तों का मजाक उड़ाया
लांछन भी भरपूर लगाया,
रिश्तों को तार तार कर डाला
खुद से चीख चीख कर रिश्ता तक तोड़ डाला
मां की कोख को जैसे जला डाला।
हाय रे इंसान!
तू इतना नीचे गिर गया है
कि इंसानियत भी छिपने की जगह ढूंढती फिर रही है
रिश्तों से भरोसा उठने को आतुर है।
अब कितना बखान करें जो हमनें महसूस किया
सोचता हूँ इतना सब होने के बाद
मैं जी कैसे रहा हूँ?
शायद इसलिए कि यही तो जीवन है
जहां कुछ भी तय नहीं है
तब रिश्तों का कहना ही क्या है?
इसीलिए तो जीना पड़ता है
क्योंकि किसी अपनों की मृत्यु के बाद भी हम जीते हैं
तब रिश्तों के मरने का अफसोस कैसा?
कौन रिश्ता कैसा रिश्ता किससे रिश्ता
सब ढकोसला है, दिखावा है, स्वार्थ है
न कोई अपना, न पराया
क्योंकि रिश्तों के मरने का समय जो नहीं होता
इंसान अकेला है, किसी से कोई रिश्ता नहीं है
तभी तो वो आता ही नहीं
जाता भी एकदम अकेला है
वो भी खाली हाथ
यही है रिश्तों का संपूर्ण यथार्थ।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921