अनुभव
चतुर्दिक चकाचौंध के मोहपाश से त्रस्त
जो खिंचे चले आए हैं
आवारा पतंगों की तरह
इस सरकारी बाड़े के भीतर
आत्मघाती आन्दोलन के प्रणेता बनकर
अब महसूसने लगे हैं
खुद को मकड़ी की मानिन्द,
उलझते ही जा रहे हैं
गलियारों की भुलभुलैया में,
अपने भीतर
पदीय अहंकार की
हाइड्रोजन गैस भर
उड़ने लगे हैं गुब्बारों की तरह
मुँह मारने लगे हैं जहाँ-तहाँ।
बाहर से हो रही है बरसात
गुलाबी, काले, नीले और सफेद तीरों की
कोई-कोई बदरंग विषबुझे,
और उधर आदमी घनचक्कर सा
असमय बुढ़ियाता जा रहा है।
दीखते हैं उसे अवचेतन में
भविष्य के स्वप्न
जिन्हें नहीं देखा जाना चाहिए बेमौसम।
यही चलता रहा है जाने कितने दशकों से
और होता रहता है आत्मघात
किश्तों-किश्तों में।
— डॉ. दीपक आचार्य