कथा साहित्यसंस्मरण

एक दुखी माँ की कहानी

( विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस पर )
सरकारी नौकरी में सेवा मुक्ति के बाद मैंने कुछ समय एक एनजीओ द्वारा चलाये जा रहे वृद्ध आश्रम में बनी डिस्पेंसरी में बतौर मेडिकल अफसर के रूप में काम किया। इन 6 महीनो में 250 के लगभग 60 वर्ष के ऊपर सीनियर सिटीजन्स को स्वस्थ्य सेवा प्रदान की। इस अवधि में कई बुज़ुर्गो के काफी करीब भी आ गया। मुझे उनसे उनके दुःख सुख की बातें धैर्य से सुनता जिससे उनको असीम ख़ुशी का आभास होता और मुझे ढेरो आशीर्वाद देते नहीं थकते। चूँकि मैं भी 65 वर्ष पार कर गया था तो मुझे उनके शारीरिक और मानसिक दुखो को समझने और उनका इलाज़ करने में सहजता महसूस होती।
उन्ही दिनों मेरी मुलाक़ात एक 75 वर्षीय वृद्धा से हुई, जिनका नाम था रुक्मणि ( बदला हुआ नाम )। वह दिल्ली की रहने वाली थी जहाँ वह अपने पति के साथ रहती थी। वह एक सरकारी कॉलेज की सेवा मुक्त प्रिंसिपल थी जब की पति आर्मी से कर्नल के पद से रिटायर थे। उनके दो बच्चे थे, बेटा मैसोर की एक आई टी कंपनी में मैनेजर था तथा बेटी ने नर्सिंग का कोर्स कर कनाडा में सेटल हो गई। दोनों बच्चो ने अपनी पसंद से प्रेम विवाह किया।
दिल्ली में अपने पति के साथ रुक्मणि खुश थी पर जैसे किसी की नज़र लग गई। उनके पति का दिल का दौरा पड़ने से जब निधन हो गया तो बेटा अपने साथ उन्हें मैसोर ले आया। उन्होंने अपना दिल्ली का मकान बेच दिया तथा बेटे के कहने पर उसके फ्लैट का लोन चूका दिया। उनके पास इतनी प्रयाप्त पेंशन मिल जाती थी की उसको अपने बेटे बहु के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता।
रुक्मणि ने अपना मन बहलाने के लिए अपने युवा के शौक कवितायेँ व कहानियां लिखने तथा चित्रकारी को फिर से अपनाया जिससे उसका समय अच्छे से कट जाता। बहु तेज़ स्वाभाव तथा ज़िद्दी थी और उसकी नज़र अपनी सास के प्रोविडेंट फण्ड और बैंक की ऍफ़ डी पर जमा सारी पूंज पर थी। इन सबका नॉमिनी जाहिर है उसका बेटा ही था।
छोटी छोटी बातों को लेकर वह कभी कोई ताना मारती तो कभी कोई बात के लिए डांट देती। जब एक दिन उनका पैर फिसला और पैर की हड्डी टूट गई तो बेटे और बहु ने उन्हें हॉस्पिटल में दाखिल करा दिया। बहु ने चालाकी से उनकी 25 लाख की ऍफ़ दी तुड़वा दी और उसमे से हॉस्पिटल का 3 लाख का बिल दे कर बाकी पैसे डकार गई। जब हॉस्पिटल से छुट्टी हुई तो रुक्मणि ने बहु से पुछा की बाकी पैसे कहा है तो बहु ने गोलमाल जवाब दिया। इससे रुक्मणि को बड़ा दुःख हुआ।
एक दिन उनके दिल्ली एक पडोसी महिला का फोन आया जो उनकी तरह ही विधवा थी। बातों ही बातों में रुक्मणि ने अपनी व्यथा सुनायी। जब उनकी सहेली ने कहा की उन्होंने एक वृद्ध आश्रम में रहना शुरू किया है जहां सब तरह की सुविधाएँ है तो रुक्मणि ने भी फैसला किया की वह अब वही जा कर बस जाएँगी।
आज रुक्मणि ने वही वृद्ध आश्रम को अपना घर बना लिया और अब वह अन्य बुज़ुर्गो के साथ रहते हुए खुश है और उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होता।
अपने बेटे और बहु से वह इतनी नाराज़ है की उन्होंने अपनी वसीयत बदल डाली और अपने मरने के बाद सब कुछ दान में देने का फैसला ले लिया।
-डॉक्टर अश्विनी कुमार मल्होत्रा,
लुधियाना

डॉ. अश्वनी कुमार मल्होत्रा

मेरी आयु 66 वर्ष है । मैंने 1980 में रांची यूनीवर्सिटी से एमबीबीएस किया। एक साल की नौकरी के बाद मैंने कुछ निजी अस्पतालों में इमरजेंसी मेडिकल ऑफिसर के रूप में काम किया। 1983 में मैंने पंजाब सिविल मेडिकल सर्विसेज में बतौर मेडिकल ऑफिसर ज्वाइन किया और 2012 में सीनियर मेडिकल ऑफिसर के पद से रिटायर हुआ। रिटायरमेंट के बाद मैनें लुधियाना के ओसवाल अस्पताल में और बाद में एक वृद्धाश्रम में काम किया। मैं विभिन्न प्रकाशनों के लिए अंग्रेजी और हिंदी में लेख लिख रहा हूं, जैसे द इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदुस्तान टाइम्स, डेली पोस्ट, टाइम्स ऑफ इंडिया, वॉवन'स एरा ,अलाइव और दैनिक जागरण। मेरे अन्य शौक हैं पढ़ना, संगीत, पर्यटन और डाक टिकट तथा सिक्के और नोटों का संग्रह । अब मैं एक सेवानिवृत्त जीवन जी रहा हूं और लुधियाना में अपनी पत्नी के साथ रह रहा हूं। हमारी दो बेटियों की शादी हो चुकी है।