सामाजिक

मैगी जीवनभर का स्वाद बन गई है

बरसों पुरानी बात हो गई है घरों में अथक परिश्रम से बने हुए नाश्ते बच्चों को बहुत लुभाते थे | स्वच्छता से प्यार से बनी हुई चीजों को बच्चे बड़े मजे-ले-ले कर खाते थे | देखते ही देखते शहरों से लेकर गाँव तक जीवन-यापन,रहन-सहन,खान-पान के तौर तरीकों और सोच व्यवहार में इतना बदलाव आ गया है कि पहले अच्छे से हाथ-मुँह धोकर आराम से यथास्थान बैठकर लोग सब काम करते थे पर अब भागते-भागते आते-जाते हैं, भागते-भागते खाते-पीते हैं और खाना भी घर का बना हुआ कम बाहर का ज़्यादा खाना पसंद करते हैं | यदि घर में कुछ पसंद की सब्ज़ी न बनी हो तो उसका उपाय रेडी है ‘ मैगी’ के रूप में ! हाय रे इसके उलझे हुए लच्छों का मायाजाल ! सचमुच मायाजाल ही है | दो मिनट नहीं तो पाँच मिनट में तो बन ही जाती है | ज्यों ही इसका मसाला उबलते हुए लच्छों में गिरता-मिलता है, इसकी भीनी खुशबू सभी की नाक में खुजली कर देती है | ये तो जबरदस्ती घर के भोजन पर सौतन सी बन कर बैठ गई है | खाना खा पर पेट नहीं भर तो चलो मैगी बना लेते हैं, बाहर से बहुत थक कर आए हैं होटल भी बंद है चलो मैगी बना लेते हैं |
   ऐसे कई सारे किससे मिलेंगे मैगी बनाने-खाने के, किंतु ज़रा सोचिए कि क्या यूँ मैगी को बढ़ावा देना अपनी सेहत पर कुल्हाड़ी मारने जैसा नहीं है ! मैगी क्या आपको नुकसानदायक आकर्षण नहीं लगती ! मेरा मतलब है मैगी एक बाह्य आकर्षण ही तो है जो आपकी मचलती जिबह्या को शांत करती है | पेट तो आपका भरा होता है पर मन नहीं |
  मैगी तो मात्र एक उदाहरण है आपको यह समझाने का कि चमक-धमक, बाहरी आसक्ति की तरफ़ मनुष्य अत्यधिक बढ़ चुका है और उसे घर के खाने के साथ बाहर का भी चाहिए | आकर्षण भरी ज़िंदगी, ज्यादा पाने की होड़, सूरज-सा जागना नहीं, चिड़ियों सा चहकना नहीं, निशाचर सा जागना, देरी तलक सोना,जीवन का कोई क्रम ही नहीं, सोते हुए फोन देखना, जागते हुए फोन देखना, फोन देखते-देखते खाना ! और न जाने क्या-क्या ?
    बड़े-छोटे सब इस चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं | वास्तविक स्वाद कहीं नहीं है  पर | बाहरी चीजों के प्रति आकर्षण, माया, काम, एडिक्शन, अंतहीन आकर्षण |
इतने शांत घर को क्या ज्यादा की चाह में या प्रतिस्पर्धा में हमने ही अशांत कर दिया है | सबके अलग कमरे, प्राइवेसी जैसा शब्द ऊपर हो गया है अब ! सब अटरेकटिव मैगी की तरह उलझा-उलझा सा | जैसे मैगी ने अपने पाँव जमा लिए हैं किचन में और मैदा होने के कारण जम जाती है भीतर हमारे, मैदा कितना नुकसानदायक है ये तो सभी जानते हैं | लत लग गई है सबको इसकी |  उलझी हुई मैगी के लच्छे बड़े पसंद आते हैं उसके सारे नुकसान भूलकर ऐसे ही हम जानते सब हैं कि ज़िंदगी बाह्य चीजों के आकर्षण में हमारे लच्छे बनाती जा रही है फिर भी हम शौक से भाग रहे हैं ऐसे झूठे स्वाद के पीछे |
और भी एक बात बाहरी आकर्षण में महत्त्वपूर्ण है ‘हर उम्र में झूठी इश्कबाज़ी की बढ़ती कोशिशें !’ शारीरिक आकर्षण और नए-नए अनगिनत संबंध ! क्या अनमेरिड और क्या शादीशुदा ! कोई नहीं रहा भरोसे लायक सब मैगी के लच्छों से उलझे हुए हैं अपनी चाह में |
गहराई से फिर सोच लीजिए और मत खाइए उलझे हुए इन मैगी लच्छों को इतना कि इसके जीवन भर के साथ से जीवन ही न चले |
जीवन भर का आकर्षण बन गई है मैगी जैसी बाह्य आसक्ति |
 वक्त रहते बचा लीजिए सेहत भी, शरीर भी,अपने विचार भी और हर तरह से अपनी ज़िंदगी को  इस मैगी जैसे बाहरी हानिकारक आकर्षण से |
— भावना अरोड़ा ‘मिलन’

भावना अरोड़ा ‘मिलन’

अध्यापिका,लेखिका एवं विचारक निवास- कालकाजी, नई दिल्ली प्रकाशन - * १७ साँझा संग्रह (विविध समाज सुधारक विषय ) * १ एकल पुस्तक काव्य संग्रह ( रोशनी ) २ लघुकथा संग्रह (प्रकाशनाधीन ) भारत के दिल्ली, एम॰पी,॰ उ॰प्र०,पश्चिम बंगाल, आदि कई राज्यों से समाचार पत्रों एवं मेगजिन में समसामयिक लेखों का प्रकाशन जारी ।