सामाजिक

बैकुण्ठधाम में अभूतपूर्व निर्णय, अब बच्चें मोबाइल के साथ जन्म लेंगे

त्रिदेव अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं त्रिदेवियों और सभी प्रमुख देवी-देवताओं तथा विशेष रूप से आमंत्रित मनु महाराज, महात्मा विदुरजी, आचार्य चाणक्य और नचिकेता आदि की उपस्थिति में आयोजित पहले शिखर सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए देवर्षि नारद ने कहा कि सृष्टि की उत्पत्ति के करोड़ों वर्ष उपरान्त पहली बार लिए गए कुछ कटु, कठोर और अभूतपूर्व निर्णयों से आप सभी को अवगत करवाना चाहता हूँ I हालांकि ये निर्णय विभिन्न देवी-देवताओं, देवालयों-जैन चैत्यालयों के पुजारियों, शिशुओं, श्वान जैसे कुछ पशुओं आदि द्वारा त्रिदेवों-त्रिदेवियों को पृथक-पृथक रूप से प्रेषित प्रतिवेदनों, आपत्तियों और सुझावों पर ही आधारित हैं I  

नारदजी बोलें– चूँकि भारत के छोटे-बड़े नगरों में रहने वाली माताएं अपने बच्चों द्वारा बारम्बार मल-मूत्र करने पर होने वाली असुविधाओं और गन्दगी से बचते हुए शिशुओं की कोमल त्वचा पर रोगकारी रसायनों से परिपूर्ण डायपर कसकर लगा देती हैं, यह कार्य घर से बाहर जाने पर और घर पर रहते हुए भी करती हैं और देवालयों-चैत्यालयों में भी डायपर लगाकर ले जाती हैं I इसतरह देवालयों को अपवित्र किया जाता है I इसके अतिरिक्त श्वानों का कथन था कि शिक्षित और समृद्ध माताएं वापरें हुए डायपर तथा सेनेटरी पेड्स सड़कों पर फेंक देती हैं और श्वान यदि उनकी चीरफाड़ करते हैं तो स्थानीय नागरिक निर्दोष श्वानों की जमकर पिटाई करते हैं I इसलिए यह निर्णय लिया गया है कि भविष्य में शिशुओं को तब तक मल-मूत्र का विसर्जन नहीं होगा, जब तक कि वे स्वयं अपने मल-मूत्र की सुध लेना ना सीख जाएं I

नचिकेता [आपत्ति उठाते हुए]- देवर्षि ! ऐसा किया जाएगा तो अवांछित विषाक्त पदार्थ शिशुओं के शरीर में पड़े रहेंगे और रोग का कारण बन सकते हैं I

देवर्षि- वत्स ! तुम तो मात्र शरीर में एकत्रित विषाक्त पदार्थों की बात कर रहे हैं, जबकि माता-पिता एक वर्ष की आयु होते-होते ही उसके मस्तिष्क में जन्म से पूर्व से स्थापित मातृभाषा के प्रति अति संवेदनशील “भाषा अधिग्रहण यंत्र” पर अवांछित आक्रमण करते हुए, शिशु के मस्तिष्क में आंग्ल भाषा बरबस घुसेड़ने लगते हैं I उसके तन, मन और मस्तिष्क की कार्यप्रणाली पर निरन्तर कुठाराघात करते रहते हैं I स्मरण रहे ! आंग्ल भाषा सर्वथा अवैज्ञानिक भाषा है और मस्तिष्क तथा व्यक्तित्व का एकांगी विकास करती है I परिणामस्वरूप शिशुओं में अनुराग, अपनापन, स्नेह आदि की गम्भीर अल्पता होने से वे आर्थिक रूप से सक्षम होने पर अपने माता-पिता को पैसा देने में तो तनिक भी संकोच नहीं करते हैं परन्तु अधिकाँश प्रकरणों में माता-पिता के प्रति स्वाभाविक रूप से होने वाले अपनत्व तथा सेवाभाव का अभाव रहता है I जबकि पूरा विश्व देवभाषा संस्कृत को स्वास्थ्यप्रद और वैज्ञानिक निरूपित कर, उसे अपना रहा है I अंधानुकरण में अंधे हो चुके माता-पिता यह नहीं देखते हैं कि जिन-जिन देशों में आंग्ल भाषा मातृभाषा के रूप में हैं, वहां माता-पिता और संतानों में पारस्परिक स्नेह का बंधन नहीं है, इसलिए अनेकानेक संतानें अपराधी बन जाती हैं, स्कूलों में गर्भपात की उच्च स्तरीय सुविधाएं सहजता से उपलब्ध होने के उपरान्त भी प्रति वर्ष लाखों की संख्या में कुंवारी किशोरियां मां बन जाती हैं और माता-पिता पृथक घरों अथवा वृद्धाश्रमों में पाए जाते हैं I

देवर्षि के इस कथन पर सभासदों ने त्रिदेवों के जयकारों से इस निर्णय का उत्साह के साथ स्वागत किया I

देवर्षि बोलें –चूँकि एकल परिवारों के कामकाजी माता-पिताओं की व्यस्तता अब शिशुओं के पालन-पोषण, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास में बाधक सिद्ध होने लगी है और उनके पास अपने प्यारे-प्यारे, शिशु रूप में घर आए ईश्वर तथा पितरों की अनुकम्पा स्वरूप प्राप्त शिशुओं के साथ खेलने के लिए समय और मनोभाव ही नहीं बचा है I यहाँ तक कि शिशुओं को खाद्य पदार्थ खिलाने-पिलाने के लिए भी मोबाइल का उपयोग करने लगे हैं I वे यह जानते हुए भी नहीं मानते हैं कि मोबाइल के रेडिएशन्स और उसकी लत शिशुओं के मस्तिष्क, रेटिना [आँखों], शरीर आदि पर घातक दुष्प्रभाव डालते हैं I इसलिए आने वाले समय में बच्चों को मां की कोख में ही मोबाइल प्रदान कर दिया जाएगा, जिसे कभी चार्ज नहीं करना पड़ेगा I वे अपने हाथ में मोबाइल लेकर ही बाह्य संसार में प्रकट होंगे और इन मोबाइलों में कार्टून फिल्मों के अतिरिक्त, बेटा ! ये केला नहीं बनाना है, यह येलो है, पीला नहीं है, ये काका-मामा नहीं, अंकल हैं, ए फॉर एंगर, बी फॉर बैटल, सी फॉर करप्शन, डी फॉर दिसेप्शन, इ फॉर ईगो, एफ फॉर फोर्जरी आदि आदि अंगरेजी के शब्द वाले कार्टून्स भी होंगे ताकि माता-पिता को दो वर्ष के बच्चों के स्वाभाविक नटखटपन का सत्यानाश करने और उससे से छुटकारा पाने के लिए अधिक परिश्रम ना करना पड़ें I मूर्ख मनुष्यों को यह ज्ञात ही नहीं है कि शिशुओं के साथ रहने-खेलने और उनकी धमा चौकड़ियों में माता-पिता को मनोशारीरिक तथा भावनात्मक रूप से स्वस्थ तथा तनावमुक्त करने की अनुपम शक्तियां समाहित होती हैं I

महामति चाणक्य – देवर्षि ! क्या गर्भ में ही मोबाइल दिए जाने से शिशुओं का मनोशारीरिक विकास बाधित नहीं होगा?

ब्रह्माजी बोले – वत्स ! जब स्वयं माता-पिता ही अपनी संतानों को शैशवावस्था में ही रोगों का उपहार देने के लिए लालायित हैं तो देवता होने के कारण हमें उनकी लक्ष्य प्राप्ति में सहायता करना ही चाहिए, इसलिए यह निर्णय लिया गया है I   

सभी सभासदों ने साधुवाद-साधुवाद कहकर त्रिदेवों के इस निर्णय का भव्य स्वागत किया I

देवर्षि रुककर बोलें– रजोधर्म के समय किशोरियों-तरुणियों-युवतियों द्वारा पर्याप्त अतिरिक्त विश्राम की गम्भीर उपेक्षा करने तथा फेरोमोन नामक रासायनिक पदार्थ के प्रभावों की उपेक्षा कर पति तथा परिवारजनों से पृथक नहीं रहने से, उनके स्वास्थ्य पर जो दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं, उनसे वे अनभिज्ञ हैं I इसके विपरीत वे सेनिटरी पेड्स निर्माताओं के बहकावे में आकर रजोधर्म के समय अधिक श्रम करती हैं, इसलिए यह निर्णय लिया गया है कि भविष्य में किसी भी कन्या को रजोधर्म नहीं होगा I

मनु महाराज और महात्मा विदुर ने एक साथ आपत्ति लेते हुए इस निर्णय को वापस लेने का करबद्ध निवेदन किया I

भगवान विष्णु बोलें– दुखद और लज्जाजनक बात है कि अधिकांश माता-पिता शिशुओं के आल्हादकारी शैशव से भी छुटकारा पाने के लिए उन्हें झुलाघरों में डालने लगे हैं I ढाई वर्ष की आयु में, जबकि यह समय शिशुओं के मनोशारीरिक विकास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है, और जैव घड़ी [सर्काडियन रिदम] के अनुसार शिशुओं के सम्यक तथा समग्र विकास के लिए उनका बारम्बार सोना अत्यधिक आवश्यक होता है, ऐसे में उन्हें प्ले स्कूलों और नर्सरी स्कूलों की कारागार में भेजने से पितर और देवी-देवता अप्रसन्न हैं I उन्हीं की असीम अनुकम्पाओं से उन्हें संतानें प्राप्त होती हैं, इसलिए भविष्य में केवल उन्हीं को संतानसुख की प्राप्ति होगी, जो देवी-देवताओं के यहाँ महीनों तक मनौती मांगेगे I

देवर्षि बोलें – इन दिनों देखा जा रहा है कि मन्दिरों में प्रतिमा पूजन के लिए मनसा, वाचा कर्मणा की शुद्धता के स्थान पर शारीरिक  शुद्धता का तो नाटक किया जाता है, स्नान, शुद्ध वस्त्र आदि का पाखण्ड किया जाता है, परन्तु शौचालय तक में ले जाए जाने वाले मोबाइल, चश्मों और घड़ियों को धारण कर पूजा-पाठ का ढोंग करने वाले तथा मन्दिर में पूजा के कथित शुद्ध वस्त्रों में बैठकर मोबाइल में देखकर स्तुतियों-भजनों को पढने वाले लोगों के विषय में सभासदों का क्या अभिमत है? कृपया बताने का अनुग्रह करें I

अनेक सभासदों ने एक स्वर में कहा कि यह एक अत्यन्त ही गम्भीर समस्या है, परन्तु वर्तमान में चूँकि बहुत कम लोग, [लगभग 1 प्रतिशत] धर्मावलम्बी ही मन्दिरों में जाते हैं, अतएव तात्कालिक रूप से मोबाइल की शौचालयीन अशुद्धता तथा मन्दिरों में व्याप्त सकारात्मक ऊर्जा पर मोबाइल के रेडिएशन आदि के दुष्प्रभावों को अनदेखा किया जाए I कालान्तर में जब धर्म की ध्वजा आकाशीय ऊंचाइयां छूने लगेंगी तब कठोर निर्णय किया जाना उचित रहेगा I

नूतन सृष्टि के लिए संहार करने वाले शिवजी ने तथास्तु कहा I

देवर्षि नारद ने सभी का आभार जताते हुए, इस अभूतपूर्व सभा के समापन की घोषणा की I  

डॉ. मनोहर भण्डारी