कविता

ये कैसी विजयादशमी

आप सभी मुझको रावण कहते हैं

कुछ ग़लत भी नहीं कहते हैं

और मुझे यह कहते हुए फक्र भी है

कि हाँ! मैं रावण हूँ।

पर जब यही बात मैं आपको कहता हूँ

तो आप चिढ़ते क्यों हैं?

अपने दिल पर हाथ रख कर कहिए

कि हम हमसे दो चार कदम आगे नहीं हैं।

मैंने जो किया डंके की चोट पर किया

आमने सामने आकर युद्ध भी किया

अपने स्वार्थ में अपनों को मरवा दिया

और खुद भी मारा गया।

फिर भी श्री राम ने मुझसे घृणा नहीं की

हमारा राज नहीं हड़पा

हमारे साथ नैतिक धर्म निभाया

हमें मारकर भी हमारा उद्धार कर दिया।

अब तुम अपने आप को देखो

तुम सब क्या कर रहे हो

सच सामने आने पर मुंह चुराते हो

घृणा के पात्र बनते हो

नीति नियम सिद्धांतों को ताक पर रखते हो

पकड़े जाने पर मुंह चुराते हो,

शराफत का ढोंग करने में महारत हासिल है तुम्हें

तभी इतने दिनों से मेरी मौत पर

भरोसा नहीं कर पा रहे हो

हर साल मेरा पुतला जला रहे

जिनकी भक्ति का दंभ है तुम्हें 

उन्हीं श्री राम जी को मोहरा बना रहे हो।

तुम्हारी बेशर्मी की बात मैं क्या करुँ

मुझसे बड़ा रावण बनने की जुगत भिड़ाते रहते हो

अपने रावण को राम जी को ओट में छुपाते हो

और रावण को रावण कहकर बहुत मुस्कराते हो

आज भी मेरे खौफ से घबराते हो

तभी तो रावण को नहीं रावण का पुतला जलाते हो

पर अपने रावण को बड़ा सहेजें रहते हो

मनमानी करने का कीड़ा जब कभी काटने लगता है

तब अपने रावण का मुखौटा दिखाते हो

यह कैसी विडम्बना है कि

अपने रावण को जलाने की बात तो दूर

उस पर अंकुश नहीं लगाते हो।

जब हम तुम एक नाव पर सवार हैं जनाब

तब मुझे रावण और खुद को सुधीर क्यों बताते हो?

तुम ही बताओ किस मामले में खुद को

मुझसे ज्यादा खुद को श्रेष्ठ पाते हो

फिर रावण पर ही सारे आरोप लगाते हो

ये कैसी विजयादशमी मनाते हो

और मुझे नहीं सिर्फ मेरा पुतला जलाते हो

आखिर किसको भरमाते हो।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921