सामाजिक

संतान की परीक्षा में माँ की भूमिका

यह सार्वभौमिक सत्य है कि माँ की भूमिका हर संतान के जीवन में महत्वपूर्ण होती है। जन्म से लेकर बाल्यावस्था से होते हुए युवावस्था तक माँ अपने संपूर्ण विवेक, ज्ञान, अनुभव और सामर्थ्य के अनुसार उसके सुखद भविष्य की उम्मीदों को परवान चढ़ाने की जुगत में दिन रात एक करती रहती है। ऐसे में संतान की परीक्षा को लेकर माँ का चिंतित होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि माँ को लगता है कि उसके बच्चे के साथ ही उसकी स्वयं की भी परीक्षा है।बच्चे की तैयारी कैसी है, ठीक से पढ़ रहा है या नहीं।खाने- पीने, सोने जाने से लेकर स्वास्थ्य पर भी पैनी नजर इस तरह जमाये रहती है, जैसी वर्तमान का सबसे पहली प्राथमिकता यही है। विद्यालयी परीक्षा के बाद आज जब बच्चे उच्च शिक्षा के लिए कोचिंग करने / उच्च शिक्षा के लिए माता पिता, घर, परिवार से दूर अध्ययन के लिए जाते हैं। तब सबसे ज्यादा माँ ही चिंतित होती है,कैसे तैयारी कर रहे होंगे, क्या का पी रहे होंगे, समय से खाने पीने को मिलता भी है या नहीं, किसी बात को लेकर या घर परिवार से दूर रहने पर परेशान तो नहीं हो रहे। बच्चे की सफलता के लिये हमेशा ईश्वर से प्रार्थना करती है। तरह तरह के निर्देश फोन पर देती ही रहती है,अपना ध्यान रखना, चिंता मत करना, सब अच्छा होगा। और हां समय से निकलना, जल्दबाजी में प्रवेश पत्र, पेन पेंसिल भूल मत जाना, भगवान को शीष झुकाकर कमरे से निकलना, जल्दबाजी मत करना, ध्यान से लिखना, कुछ खा पीकर जाना आदि आदि।फिर परीक्षा परिणाम का इंतजार बच्चों से अधिक माँ करती है। और जब बच्चा सफल हो जाता है, तब माँ को लगता है कि जैसे उसने भी अपनी परीक्षा पास कर ली हो।और यदि असफलता मिलती है तब बच्चे का हौसला भी बढ़ाती है हार न मानने की सीख भी देकर उसे असफलता को पीछे छोड़ आगे बढ़ने का आधार बनाती है, यह अलग बात है कि अंदर से खुद भी निराश होता है, पर अपने को मजबूत दिखाती है।ऐसे ही हर माँ अपने बच्चों की परीक्षा में अपनी अधिकतम भूमिका निभाती ही है।

*सुधीर श्रीवास्तव

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