धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

बीते दिनों में करवा चौथ

करवा चौथ का पर्व आते ही मुझे अपने बचपन के दिनों की याद आ जाती है, जब घर के आंगन में हफ्तों पहले से ही बड़ी मां दादी के निर्देशानुसार पश्चिमी दीवार पर चिकनी मिट्टी से लीपकर दीवार को चिकना करती थीं। फिर अच्छे से सूख जाने पर उस पर काले रंग से ( जो हम लोग पुराने हो चुके टार्च के सेल को फोड़कर निकालकर उन्हें देते थे,जिसे वे मिट्टी के बरतन में पानी डालकर घोलकर बना लेती थीं) करवा मां की आकृति का आउट लुक बनाती थीं। फिर उसको गेरू और चावल के आटे के अलग अलग घोल से सजाती थीं। लिखने में ये जितना सरल लगता है, इसे बनाने में उतना ही मुश्किल भी था, क्यों कि वो काफी बड़ा होता था और पतली पतली सींक पर पतले कपड़े के टुकड़े को लपेट कर उसी से बनाया जाता था, जो पूरी तरह करवा चौथ वाले दिन पूजा से पहले तक पूरा हो पाता था। बीच बीच में मां चाची आदि भी बड़ी मां का थोड़ा सहयोग करती थीं, ज्यादा इसलिए भी नहीं कि उन सबको अनुभव के साथ धैर्य भी कम था। बड़ी मां बड़े मनोयोग से इस काम को पूरा करती थीं। काफी थकाने वाला ,बारीक काम होता था। हम भाई बहन भी दीवार पर किनारे किनारे फूल पत्ती और खेल खिलौने कलम दवात कापी किताब भी बनाकर खुश होते थे, बड़ी मां हमारी कलाकारी पर खुश होती और अपने काम को करती रहतीं। कभी कभी तो हम अतिउत्साह में उनका काम भी बढ़ा देते थे। जिससे उन्हें दोबारा तीबारा वही काम करना पड़ता था, तो डांट भी हमें खाने को मिलता था। करवा चौथ वाले दिन बड़ी मां घर/पड़ोस की अन्य महिलाओं के साथ जब एक साथ पूजन करती थीं, तो वो दृश्य मोहक लगता था, सब कुछ प्राकृतिक लगता था, आज की तरह आधुनिक रंग नहीं था। लेकिन आत्मीयता का भाव होता था। समय बदल गया, कच्चे मकान गायब हो गए, पढ़ी लिखी महिलाओं को अब ये सब पता भी नहीं है और न ही उनमें जानने करने की उत्सुकता ही है और न ही कोई बताने वाला। सब कुछ फोटो पोस्टर, सोशल मीडिया के भरोसे महज सज धजकर पूजा पाठ के बजाय फोटो, सेल्फी का आयोजन बनता जा रहा है। कहने को हम आप कुछ भी कहें लेकिन अनपढ़, गंवार, कम पढ़े लिखे हमारे पूर्वजों में अपने संस्कारों, मान्यताओं, परंपराओं के प्रति समर्पण था, लगाव था उत्साह था, वो आज आधुनिक समाज में केवल औपचारिकता की पूर्ति भी ढंग से नहीं कर पा रहा है। उसका कारण, आधुनिकता का चढ़ता रंग, संबंधों, रिश्तों के प्रति उपेक्षा भी है। एकल परिवार के बढ़ते दौर ने भी बड़ा असर डाला है। संक्षेप में यही कह सकता हूं कि समय परिवर्तन शील है लेकिन पर्वों त्योहारों का अभावों के बावजूद जो अनुभव आनंद हमारी पीढ़ी ने महसूस किया,आज की पीढ़ी के लिए कल्पना करना भी कठिन ही नहीं असंभव है, किताबें, सोशल मीडिया व अन्य स्रोतों से उसका वास्तविक आनंद ज्ञान नहीं मिल सकता, घरेलू पकवानों पर आधुनिक पकवान हावी हो रहे हैं। उनमें भी अब वो मिठास नहीं रही। क्योंकि अब दादी परदादी की उपस्थिति घरों में अपवाद स्वरूप ही रह गई है। देवरानी जेठानी भी कहां कितना साथ साथ हैं और अगर त्योहारों पर इकट्ठा भी हो गई तो जाने की जल्दी रहती है । और अंत में सबसे कटु सत्य तो यह भी है कि अब तो पति पत्नी के संबंधों में भी वो मिठास अपनापन नहीं रहा जो हमारी पिछली पीढ़ियों में रहा है। हालांकि ईमानदारी से यह स्वीकार करने में हमें हिचक हो सकती है किन्तु सत्य यही है। करवा माई सभी का कल्याण करें। चलिए आप भी बोलिए जय करवा मैय्या की जय।

*सुधीर श्रीवास्तव

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