संस्मरण

दीवाली के वे दिन

यह सत्य है कि बीता हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता।यह बात मुझे ही लगती है कि अतीत वर्तमान से अधिक मधुर और प्रिय होता है अथवा हर व्यक्ति के लिए इसका मानक कुछ और है? आज से साठ – बासठ वर्ष पहले की दीवाली के रस – रंग कुछ और ही थे,जो आज कदापि नहीं हैं।वह समय था जब होली,दीवाली, दशहरा,गाय,मेरा विद्यालय आदि विषयों पर निबंध लिखवाए जाते थे।इन सबमें जो वास्तविकता और आदर्श विद्यमान था,आज मृत प्रायः हो चुका है।जीवन्तता जड़ हो गई है।

बात दीवाली की करें तो पता लगता है कि वह यथार्थ और विशुद्धता से परिपूर्ण प्रकाशोत्सव था।आज की तरह बनावटीपन और प्रदर्शनों की होड़ नहीं थी।दीवाली पर हृदयों के दीप जलते थे। बिजली की झालरों की झड़ी नहीं थी।सब कुछ शुद्ध देशी और ग्रामत्व से परिपूर्ण। कोई होड़ नहीं, कृत्रिमता नहीं,प्रदर्शन भी नहीं।

साँझ होते ही घर ,दरवाजे, कोने, कुए ,नदी, छतें, मुड़गेरी आदि माटी के दियों की दिप -दिप से दीपायमान हो उठते थे।मोमबत्तियाँ भी जलाई जाती थीं ,किन्तु कुम्हार के अवा में पके हुए लाल – लाल माटी के दीयों में जो चमक थी ,वह बेचारी मोमबत्तियों में कहाँ! उनकी बात ही निराली थी।फुलझड़ियाँ ,बम,पटाखे ,अनार, सुर्र -सुर्र करती फुलझड़ी ,रॉकेट,चक्र सब कुछ था ,किन्तु उस समय की कुछ अलग ही धजा थी।अलग ही फ़िजा थी। सुबह जागने पर पता लगता था कि रात को पहने हुए कपड़ों में छलनी बन गई हैं।फिर तो अम्मा की डाँट भी खानी ही खानी जरूर थी। बताने की जरूरत नहीं, छिद्रित छलनी हुई कमीज और पाजामे खुद ब खुद बयाँ करने लगते थे कि देखो हमने भी पटाखे चलाए हैं ! और बेतहाशा चलाए हैं।

दीवाली की रात गाँव की एक परंपरा भी सराहनीय है। मेरी माँ तथा गाँव की अन्य माताएँ- बहनें
एक दूसरे के दरवाजे पर दीपक जलाने जाती थीं।वे सरसों के तेल से भरे हुए दिये बाती तथा एक माचिस अपने सूप में सजाकर ले जातीं और घर- घर जाकर उनके दरवाजे दीप जला आतीं। यह ‘आप सबको दीवाली शुभ हो’ की सद्भावना का ही एक रूप था।शब्द नहीं ,क्रिया से शुभ दीवाली पर्व मनाने की भावना का प्रतीक था यह कार्य।आज केवल खोखले शब्द रह गए हैं,क्रिया भाव विलुप्त हो गया है। ‘शुभ दीवाली ‘की जगह वह ‘हैपी दीवाली’ जो हो गई है। अब तो केवल अपने ही शुभ – लाभ की भावना है। ‘हैप्पी’ बोलकर एक औपचारिकता पूरी कर ली जाती है।मन में तो कुछ और ही अदृष्ट है!

हम बच्चों के लिए दीवाली की रात बीतने के बाद की अगली सुबह भी उतनी ही रोमांचक और आनंददायिनी होती थी ,जितनी दीवाली की रात।जल्दी -जल्दी बिस्तर छोड़कर हम बच्चों का पहला काम होता था कि रात में जलाए गए दियों और मोमबत्तियों को एकत्र करना तथा बिना चले पटाखों को खोजना और गोबरधन बाबा की पूजा की तैयारी करना। उनमें से अधिकांश दिये माँ के द्वारा अरहर,उर्द ,मूँग आदि की दालों में बघार देने के काम आते थे। इसलिए वे माँ को सौंप दिए जाते थे। कुछ दिए हमारे खेल -खिलौने बन जाते थे। उनका सदुपयोग हम दियों की तराजू बनाने के लिए करते थे।संग्रह- कार्य के उपरांत हमारा ‘तराजू – निर्माण अभियान’ प्रारम्भ हो जाता। तकली या किसी पैनी वस्तु से दो दियों में समान दूरी पर तीन -तीन छिद्र किए जाते। उनमें तीन बराबर नाप के धागे लेकर किसी लकड़ी के दो छोरों पर बाँधकर और डंडी के बीचोंबीच एक पुछल्ला लगाकर फ़टाफ़ट तराजू बना ली जाती और दूकान चालू।काम चालू।

दियों की तरह इकट्ठे किए गए मोम या अधजली मोमबत्तियों को पिघलाकर पुनः मोमबत्ती निर्माण की कार्यशाला प्रारम्भ हो जाती थी। लाल, पीले, हरे ,सफ़ेद आदि कई रंगों का मोम एक कटोरे में पिघलाकर एक नया ही रंग बन जाता और उसे पपीते के पत्ते के डंठल के खोखले भाग में भरकर उसमें एक धागा डालकर नई मोमबत्तियाँ बना ली जातीं।मोम ठंडा होने पर डंठल को फाड़ दिया जाता और सीधी या कुछ वक्राकार मोमबत्ती तैयार।’हवन करते हाथ जले’ कहावत के अनुसार इस ‘हवन कार्यशाला’ को संपादित करने में पिघला हुआ मोम हमारे हाथों को भी जला देता। लेकिन इसकी कोई भी सूचना माता – पिता से गुप्त ही रखी जाती।लेकिन ‘महान कार्य’ करने में कुछ ज़ोखिम भी उठाना पड़े तो फ़िक्र ही क्या ! की भावना हम बच्चों को लेश मात्र भी आहत नहीं करती थी। जिन बच्चों को पपीते के डंठल नहीं मिल पाते वे अंडी के पत्तों के डंठलों से इस अभियान को साकार कर लेते। क्या ही आनंदप्रद अतीत था।जिसकी आज केवल यादें ही शेष हैं।

— डॉ.भगवत स्वरूप ‘शुभम्’

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040