कविता

कान्हा

मेरी आवाज़ को सुनकर यदि आये न तुम कान्हा, 

तो मैं रूठ जाऊँगी, यह बचपन की आदत है। 

अगर राधा बिन आये, तो इतना ध्यान रखना तुम, 

मैं तुमको भी भुला दूँगी, यह बचपन की आदत है। 

अगर रुक्मणी के संग, सुभद्रा को भी ले आये, 

करूँगी सब समर्पण मैं, यह पचपन की आदत है। 

करेंगे रास लीला हम, बंशी तेरी सुन सुन कर, 

मैं खुद को वार दूँ तुझ पर, यह पचपन की आदत है। 

अगर आये न तुम कान्हा, मेरी आवाज़ को सुनकर, 

मैं खुद को ही मिटा दूँगी, मुझे अर्पण की आदत है। 

सुन साँवरे अर्ज़ मेरी, मैं तेरी ही दिवानी हूँ, 

मैं समर्पित तेरे चरणों में, मुझे अर्पण की आदत है। 

सुन ले कान्हा तू इतना, मैं तेरी प्रेम दीवानी हूँ, 

धरूँ मैं शीश चरणों में, मुझे समर्पण की आदत है। 

ब्रज की गलियों में डोलूँ, यमुना तट पर रम जाऊँ, 

तेरी ख़ातिर बनूँ ग्वालिन, मुझे समर्पण की आदत है। 

 — डॉ अ कीर्ति वर्धन