लघुकथा

महका-चहका घर आंगन।

दादा दादी आये हैं। परपोता आरोह और उसकी पत्नी रूही मन ही मन उलझन में फंसे हैं। आज हम सब संगी साथी मिलकर जुहू बीच पर नव वर्ष जश्न मनाने वाले थे। क्या करे? मम्मी पापा को तो मना लेंगे, मान भी जाएंगे, लेकिन दादा दादी को मना करना मुश्किल है। क्या करे? 

बार-बार रोहित का बुलावा आ रहा है।

“बेटा, परेशान क्यों हो रहे हो? अपने मित्र परिवार को अपने ही घर बुला लो।”

नव वर्ष के हर्ष में दादी जी के हाथों बनी देसी घी से बनी मिठाई की खुशबू, दादा जी के हंसगुल्ले, पापा जी के उपहार, मम्मी जी की रसमलाई का स्वाद, बच्चों की किलकरियां, खुशियां ही खुशियां घुल गयी। नव उमंग, नव उल्लास, नवल संस्कार ले आयी नव प्रभात। हंसी ठहाकों से महका-चहका घर आंगन।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८