सामाजिक

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस : मात्र खोखलापन है क्या

किसी भी दिवस विशेष का मनाया जाना इस बात की तरफ संकेत करता है कि जिस विषय अथवा व्यक्ति को मद्देनजर रखते हुए वह दिन विशेष मनाया जा रहा है, उस व्यक्ति अथवा विषय को वास्तविक अर्थों में भी विशेष समझा और माना जाता है।सिर्फ दुनिया में दिखावे के लिए विषय और व्यक्ति के लिए विशेष दिवस को मनाया जाने का कोई तर्क नहीं बनता।विशेष का अर्थ विशेष ही समझा जाए तभी उस विशेष कार्य को करने की महत्ता का आभास होता है अथवा सभी दिन एक समान होते हैं।

महिला दिवस मनाया जाता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है जो कि बहुत ही खुशी की बात है ।बड़े ही हर्ष का विषय है कि विश्व भर में महिलाओं को विशेष माना जाता है और उनके अस्तित्व को सराहा जाता है ।महिला दिवस के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं ,कवि सम्मेलन कराए जाते हैं ,विभिन्न संस्थाओं द्वारा महिलाओं को सम्मानित भी किया जाता है ।महिलाओं के लिए इस अमुक दिवस पर बाजारों, शॉपिंग मॉल और अन्य अनेक शॉपिंग स्थलों पर विशेष प्रकार के डिस्काउंट और स्कीम भी देखने को मिल जाते हैं। महिलाओं की खुशी छोटी-छोटी बातों में पूरी हो जाती है इस बात को सभी जानते हैं। महिलाओं का हृदय सुकोमल होता है और उन्हें यदि जरा भी महत्व दिया जाता है तो उनका उत्साह दोगुना चौगुना हो जाता है और वे पहले से अधिक आत्मविश्वासी बन जाती हैं। महिलाओं को सम्मान देना और उनकी भावनाओं को समझ कर उन्हें प्रबलता प्रदान करना, उनकी समस्याओं को समझ कर उनका समाधान करने की योजनाएं बनाना और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करना किसी भी राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य समझा जाना चाहिए तभी महिला दिवस को मनाए जाने की सार्थकता है अन्यथा नहीं।यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो हम सभी इस बात से सरोकार रखते हैं कि इतना अधिक आधुनिक बनने एवं प्रगति करने के बावजूद भी न केवल विकासशील अपितु विकसित देशों में भी महिलाओं की स्थिति कुछ अधिक सुधरी हुई नहीं है। कुछ दशक पहले जिस प्रकार महिलाएं घरों एवं कार्य स्थलों पर उत्पीड़न और शोषण का शिकार होती थीं,आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है ।फर्क सिर्फ इतना आया है कि पहले महिलाओं के द्वारा भोगी जाने वाली यातनाओं से समाज वाकिफ नहीं हो पाता था, किंतु अब वर्तमान युग में जब तकनीकी इतनी व्याप्त हो गई है, महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों को सोशल मीडिया पर इस प्रकार फैलाया जाता है कि समाज का प्रत्येक वर्ग यह देख पाता है कि समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति क्या है।

पुरुष प्रधान समझे जाने वाले समाज में केवल पुरुषों की ही मानसिकता यह नहीं होती है कि महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों से कम होती हैं ,केवल पुरुष ही महिलाओं को कम नहीं आंकते,अपितु विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाली महिलाएं भी आपस में एक दूसरे को हीन दृष्टि से देखती हैं और एक दूसरे का शोषण करती हैं,महिला ही महिला की दुश्मन बन बैठी है।विकासशील देशों में इस प्रकार के उदाहरण अधिक देखने को मिलते हैं।कुछ परिवारों में ही महिलाओं के साथ इस प्रकार का व्यवहार किया जाता है कि महिलाएं पुरुषों से कमतर आंकी जाती हैं और कुछ कार्य परिवार के पुरुषों को और कुछ कार्य महिलाओं को सौंप दिए जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कम महत्व वाले कार्यों को महिलाओं को और अर्थ संबंधी पौरुष संबंधी रक्षा संबंधी एवं घर के बाहर के अधिकतर कार्य पुरुषों को दिए जाते हैं। ऐसे परिवारों में लोगों की सोच इस प्रकार की होती है कि घर के भीतर के काम महिलाओं को करने  चाहिएं और घर के बाहर के काम पुरुषों को क्योंकि पुरुष महिलाओं से हर प्रकार से सशक्त होते हैं, बलशाली होते हैं और सुपीरियर होते हैं। कई परिवारों में तो स्थिति इतनी खराब होती है कि महिलाएं ही महिलाओं पर अत्याचार करती हैं और यह स्थिति पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रहती है ।पुरुषों को भी ना चाहते हुए मौन धारण करना पड़ता है। कुछ परिवार अपवाद स्वरूप भी देखे जा सकते हैं किंतु अधिकतर परिवारों में आज भी महिलाओं के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाता।कहने को बहू बेटी और बेटा बेटी एक समान समझ जाते हैं किंतु व्यवहारिक पक्ष की यदि बात की जाए तो ऐसा समझने वाले केवल 20 से 25 परसेंट परिवार ही पाए जाते हैं अधिकतर परिवारों में भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है।

समाज चाहे कितना भी आगे बढ़ जाए किंतु आज भी शिक्षित पुरुष अच्छी सुशिक्षित महिलाओं तक को हीन दृष्टि से देखते हैं और उन पर अत्याचार करते हैं, वजह बेवजह उन पर हाथ उठाते हैं ,गाली गलौज करते हैं और उनकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना चाहते हैं महिलाओं को यह कहकर बाहर घूमने की स्वतंत्रता नहीं दी जाती कि महिलाओं का काम सिर्फ चूल्हा चौका संभालना और बच्चों को संभालना होता है, इसके इतर यदि महिलाओं को कोई काम करना होता है तो उन्हें पहले घर के पुरुषों से पूछना पड़ता है उनकी स्वीकृति की प्रतीक्षा करनी पड़ती है ।यह स्थिति केवल गरीब परिवारों में नहीं अपितु अमीर और शिक्षित कहे जाने वाले परिवारों में भी देखने को मिलती है ।समाज के सामने हम चाहे कितना भी खुद को एडवांस और आधुनिक होने का दिखावा करते हों किंतु घर के भीतर की वास्तविक स्थिति पर हम खुद पर्दा डाले रहना चाहते हैं क्योंकि हर व्यक्ति आज यही समझता है कि जैसा चल रहा है वैसा ठीक है और अपने घर की बात क्यों बाहर निकाली जाए। कुछ महिलाएं तो इतनी दबी हुई होती हैं कि वे पारिवारिक हिंसा का भी विरोध नहीं करती और घर के पुरुषों द्वारा मार खाती हैं और फिर भी अपना मुंह सिल कर रखती हैं ताकि जग हंसाई न हो। कुछ महिलाएं पुरुषों का ऐसा व्यवहार इसलिए बर्दाश्त करती हैं क्योंकि वे चाहती नहीं कि घर के झगड़ों का असर उनके बच्चों पर पड़े।कुछ महिलाएं असुरक्षा की भावना के चलते ऐसा करती हैं और जिंदगी भर घुट घुट कर जीने के लिए मजबूर हो जाती हैं।कुछ महिलाएं अक्सर सोचती हैं कि यदि वह पति का विरोध करेंगी तो उन्हें घर से बाहर निकाल दिया जाएगा और उस स्थिति में वे कहां रहेंगी।

किंतु यदि हमें वास्तविक अर्थों में महिला दिवस को मनाना है,इसकी तार्किकता का मान रखना है और महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार को रोकना है तो हमें महिलाओं को मजबूत बनाना होगा उनमें आत्मविश्वास भरना होगा उन्हें संबल प्रदान करना होगा उन्हें समझाना होगा कि समाज उन्हें चाहे कितना भी कमजोर क्यों ना समझे किंतु उन्हें खुद को कभी कमजोर नहीं समझना है ,उन्हें खुद पर भरोसा रखकर समाज के सामने एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करना है। आज की कामकाजी महिलाओं के साथ भी स्थिति कुछ कम बदतर नहीं है। यह सच है कि समाज में परिवर्तन आया है,और यदि परिवर्तन की गति पहले से थोड़ी तेज हो जाए तो उन्हें संदेह महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार आएगा महिलाओं के सोचने समझने का खुद के प्रति उनका अपना नजरिया जरूर बदलेगा। दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की अध्यापिका नीतू पांचाल निधि का इस विषय में कहना है कि..”एक औरत को दूसरी औरत का मनोबल ज़रूर बनना चाहिए। अपनेपन के नाम पर दोस्त कहलाने वाली महिलाएं पीठ पीछे दूसरी को काटे नहीं, महिलाओं को अपनी बात को पुख़्ता तरीके से रखना अब सीख लेना चाहिए। समाज  को सुधारने का बीड़ा अकेले उनके ही कंधों पर क्यों? क्यों पुरुष अपनी भूमिका निभाने से सदा ही परहेज़ करता है? दोनों को मिलकर समाज और परिवार के दायित्व उठाने चाहिए। देश में परिवार व्यवस्था मज़बूत हो, इसके लिए सामाजिक मापदंडों की पुनः समीक्षा करने की पुख़्ता ज़रूरत आन पड़ी है अब। निधि यह भी कहती हैं कि “महिलाओं को आगे बढ़ते देखने का आदी ना तो पुरुष है और ना ही स्त्रियां ।जहां किसी के अंदर प्रतिभा दिखने लगती है पति के नाम से उसे घसीट कर नीचे उतरने की कोशिश की जाने लगती है।”

“फला औरत को उसका पति मारता है” का दाग पुरुष पर नहीं बल्कि महिला पर ही लगाया जाता है कि यह ऐसा कुछ करती होगी जिससे वह आक्रोशित हो जाता होगा। इस सब के लिए दोषी सिर्फ पति नहीं ,हम सभी हैं। जब तक हम सिंगल मदर और डाइवोर्स महिलाओं को सम्मान देना शुरू नहीं करेंगे यह सब चलता रहेगा।”

वहीं दिल्ली के ही एक दूसरे स्कूल की शिक्षिका रोशनी का कहना है कि 

“100% पीड़ित महिलाएं का अंदर ही अंदर कुढते रहना और मुँह से कुछ ना कहना सही नहीं  क्योंकि परिवार और समाज के लोग इसी का फायदा उठाते हैं। महिलाओं को सशक्त बना ही होगा अपने लिए स्टैंड लेना ही होगा।”

अक्सर लोगों को कहते सुना जाता है कि कुछ घरों में महिलाओं को इंसान तक नहीं समझा जाता उनके साथ पशुओं से भी बुरा व्यवहार किया जाता है तो,सौ बातों की एक बात,महिला क्या है क्या नहीं,समाज को कोई हक़ नहीं बनता कि उसे बराबर समझे, कम समझे,इंसान समझे या न समझे।कोई हमें कुछ नहीं समझता,इसका दुख मनाने की बजाय हमें खुद को संबल देना होगा,हमें पहले खुद को समाज के एक अभिन्न अंग के रूप में देखने की आदत स्वयं में विकसित करनी होगी।कोई समझे न समझे,हमें खुद को समझना,समझाना होगा

समाज क्या समझे,उतना काफी नहीं हो सकता ।स्त्री की समाज में अपनी अलग पहचान है, अस्तित्व है।किसी को कोई अधिकार नहीं कि स्त्री को आंके। और यह बात महिलाओं को जितनी जल्दी समझ आए उतना ही उनके लिए बेहतर होगा।महिला और पुरुष में से श्रेष्ठ कौन है इस पर एक बार फिर अध्यापिका निधि का कहना है कि

“महिलाओ को पुरुष के बराबर नहीं श्रेष्ठ समझना होगा अब। युगों पहले हमारे शास्त्र नारी की श्रेष्ठता, उसकी महिमा को भांप चुके हैं, समझ चुके हैं, स्वीकार चुके हैं। तो फिर बाद में ऐसा क्या हुआ कि दो पाटों में पिसने लगी यह शक्तिस्वरूपा? गौर करने की ज़रूरत है। किंतु एक सक्षम नारी को स्वयं भी विचारवान होना होगा। सामर्थ्य और अभिमान के फ़र्क को समझना होगा। कई बार जहां पुरुष सही होता है, वहां बहुत सी स्त्रियां भी अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने से नहीं चूकती। अतः हमें अपने आत्मगौरव के साथ-साथ अपनी ज़िम्मेदारियों को भी याद रखना होगा।”

कुछ महिलाएं अपमान पूर्ण जीवन जीने से बेहतर मरना समझती हैं ।महिलाओं की इस सोच पर भी अपने विचार व्यक्त करते हुए निधि कहती हैं कि”जीवन लीला समाप्त करना बिल्कुल सही नहीं, जीवन संघर्ष है। संघर्ष सबके जीवन में हैं, सामना करने वाला ही विजयी है, यह नई पीढ़ियों को हमें सिखाना है। अपने ख़ुद के जीवन से हार मानना तो हमारे शास्त्रों में भी गलत कहा गया है और कानून की नज़र में भी।”

आज की नारियों के प्रति आज की नारी की सशक्त सोच को देखकर अति प्रसन्नता का अनुभव होता है कि महिलाएं निसंदेह अब जागरूक हो रही हैं और अपने और दूसरी महिलाओं के हितों को ध्यान में रखते हुए एक दूसरे का मार्गदर्शन कर रही हैं ,उन्हें उत्साहित कर रही हैं,उनके आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम सही मायनों में महिला दिवस मनाना चाहते हैं तो इसे किसी विशेष दिवस को बेशक मनाएं,किंतु साथ ही प्रत्येक दिवस महिलाओं का सम्मान करें ,उनकी भावनाओं और सुरक्षा का ख्याल रखें और उन्हें उनके फैसले लेने के लिए स्वतंत्र रखें ,उन्हें उनका जीवन अपने तरीके से जीने दें, तब देखिएगा कि हमारा यही समाज कितना खूबसूरत दिखाई देगा ।तब हर तरफ खुशियां ही खुशियां होंगी और एक स्वस्थ समाज ,एक खुशहाल समाज और एक अति उत्कृष्ट राष्ट्र देखने का हमारा सपना बहुत जल्द सच में परिवर्तित होगा।

— पिंकी सिंघल

पिंकी सिंघल

अध्यापिका शालीमार बाग दिल्ली