कविता

बडा़ अभिमान था

बडा़ अभिमान था
अपने रंग रूप पर कभी बडा़ गुमान था
मेरे चेहरे, नाक- नक्शे और सुंदर शरीर पे कभी बडा़ अभिमान था
ज्योहिं जिंदगी ने ली करवट, प्राणों ने त्याग दिया शरीर
बस चारों तरफ सन्नाटों का बिछा था चादर, सबके भाव थे गंभीर
मेरे मृत शरीर के चारों तरफ एक अलग ही सम्मान था
मेरे चेहरे, नाक-नक्शे और सुंदर शरीर पे कभी बडा़ अभिमान था
सजा दिया मेरे चिते को मखमल की तरह, और लकडियों में मुझे दबा दिया
फिर एक चिंगारी ने मेरे पूरे वजूद को धुंए में उडा और मुझे राख बना दिया
मैं तब्दील हो गया उस मिट्टी में जिसपे मुझे गुमान था
— मृदुल शरण