धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

शिव का अर्थ, स्वरूप व विशेषताएँ

 ‘शिवरात्रि’ जिसका अर्थ होगा- शिव की रात्रि। महर्षि दयानन्द ने परमेश्वर के सौ प्रसिद्ध नामों में ‘शंकर’ और ‘शिव’ दोनों का परिगणन किया है और दोनों का एक ही अर्थ किया है- 

“यः शं कल्याणं सुखं करोति स शंकरः- 

अर्थात् जो  कल्याण करने वाला है इससे उस ईश्वर का नाम शंकर है।” इसी प्रकार शिवु कल्याणे इस धातु से ‘शिव’ जो कल्याण स्वरूप है इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शिव’ है। पवित्र वेदो’ में परमेश्वर को ‘शिव’ ही नहीं शिवतर, शिवत्म, मयोभव, मयस्कर आदि नामों से स्मरण कर उसके प्रति नमन किया गया है। 

जिस रात्रि की एकान्त  गोद में बैठकर साधक स्वयं शिव, शम्भू या शंकर बनने की साधना किया करते हैं इसलिए वह कल्याण – कारिणी रात्रि ही शिवरात्रि है। तैत्रीय उपनिषद में कहा गया है:

अतिथिदेवो भव  (तैत्रीय योनिषद 1.11.1.5) 

अतिथि ही देवता हैं, अतिथि को देवता या भगवान् का रूप मानने का विश्वास गाँव-गाँव के जनमानस में आज भी विद्यमान है। स्वामी समर्पणानन्द जी सरस्वती ने “पञ्चयज्ञप्रकाश” में केवल संन्यासी को ही अतिथि कहा है। अन्य तो अतिथिवत् पूज्य हैं- “अतिथि शब्द का वास्तविक अर्थ परिव्राजक अथवा संन्यासी ही है। पारिवारिक देवों में अतिथि ही शिव का साक्षात रूप है। आचार्य मनु ने अतिथि का लक्षण निम्न किया है- विद्वान् व्यक्ति जो एक ही रात्रि तक गृहस्थ के में रहता है उसे अतिथि कहते हैं।

महर्षि दयानन्द का मत है- सद्गृहस्थों के लिए जिस रात्रि उसके घर कोई विद्वान् अतिथि निवास करता है, उसे व्रती रहकर अतिथि रूप शिव की पूजा, अर्थात् सत्कार करने का शौभाग्य मिलता है। वहीं रात्रि शिवरात्रि है ।

शिवजी का रूप और वर्णन 

शिवजी का पुराणों में जो वर्णन है और वर्तमान मे जो  फोटो प्रचलित है वो एक विद्वान संन्यासी के रूप में सबसे बड़ा प्रमाण है। ये शिव वास्तव में अतिथि के प्रतीक ही हैं और ऐसे विद्वान संन्यासी अतिथि का सत्कार ही शिवजी की पूजा है।

कैलाशवासी- यह कैलास क्या है ?  क से तात्पर्य ब्रह्म या ब्रह्मजल से है  “क” नाम ब्रह्म का है। शिवजी उस ब्रह्मजल में निमग्न रहते है,  यह ब्रह्म क्रीड़ा ही उसका स्वभाव बन गया है। वे  इसी ब्रह्म स्वरूप कैलास में सदा स्थित रहते है। यही  शिवजी का कैलास-वास है। पर्वत दृढ़ता का प्रतीक है, अर्थात् शिवजी योग साधना और अपने  व्रत में पर्वत के  दृढ़ रहते है अटल रहते है।

शिव के त्रिनेत्र हैं- यह तीसरा नेत्र शिवजी के मस्तक पर स्थित है जो ज्ञान का नेत्र है। शिवजी इन ज्ञान नेत्र को खोलकर काम-वासना को भस्मशेष कर देते हैं, वे कभी कामासक्त होकर अनाचार नहीं करते। इसलिए वे परम धार्मिक हैं।

त्रिशूलधारी- त्रिशूल-तीन शूल, अर्थात् तीन कष्ट । आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक।  शिवजी योग साधना से तीनों दुःखों के त्रिशूल को अपनी दायीं मुट्ठी में रखते है, अर्थात् तीनों उसके वश में रहते हैं, इसलिए वे सर्वत्र सब जगह अन्य सांसारिक जनों के इन तीनों प्रकार के कष्टों को दूर करते रहते है।

एक हाथ में डमरू – यह डमरू शब्द संस्कृत दमरु शब्द  का अपभ्रंश  जो दो शब्दों से बना है दम + रू अर्थात् संयम रुप ध्वनि। शिवजी  के प्रत्येक कार्य में संयम रूप ध्वनि व्यक्त होती रहती है, अर्थात् उसका जीवन महा संयमी होता है।

 मस्तक पर गङ्गा-  शिवजी के मस्तिक  पर जो गंगा दिखाई देती  है यह  ज्ञानरुप की  गंगा है। किसी कवि ने कहा भी है-

जब ज्ञान की गंगा में नहाया। तब मन में क्लेश जरा न रहा।

अतिथि को पूर्ण विद्वान् और ज्ञानवान् कहा गया है, उसके मस्तिष्क में ज्ञान-गंगा हिलोरें मारती है। इस जान-गंगा को वह अपने तक सीमित न रखकर वह संसार के भले के लिए प्रवाहित करता रहता है। इसलिए बह परोपकारी भी है। वह भेदभाव भूलकर सबका भला करता है। 

सिर पर दूज का चन्द्रमा- शिवजी के सिर पर चंद्रमा है । दूज का  चन्द्रमा जितना प्यारा, आशा का प्रतीक और सौम्य होता है उतना पूर्णिमा का चन्द्रमा भी नहीं होता। शिवजी  इन सभी विशेषताओं को सिर में धारण किये रहते है ।

शरीर पर भंयकर विषधर- शिवजी के शरीर पर भंयकर विषधर लिखाई और देते हैं। ये विषधर- काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, पक्षपात आदि विकार रूप हैं जिन्हें शिवजी अन्तःकरण से बाहर निकाल देते है। अर्थात वे इन विकारों से मुक्त रहते हैं और गृहस्थों को संदेश देते है कि इन विषधरों से बचकर रहो।

नीलकण्ठ – शिवजी संसार के कष्टों का स्वयं पान करने है धारण करते हैं इसलिए वे विषपायी नीलकण्ठ हैं। ये मनुष्यों पर आनेवाली बड़ी से बड़ी कठिनाई को स्वयं झेल जाते हैं, और उन्हें अभय बना देते हैं।

वेषभूषा बाघाम्बर -शिवजी की वेशभूषा बाघाम्बर है अर्थात सांसारिक मोह माया से विरक्त ,उनका का वास बाघाम्बर है क्योंकि वे अधिकांश समय सांसारिक लोगों और मोह-माय  से दूर एकांत जंगल में साधना करते है।

 गले में मुण्डमाल- शिवजी के गले में  ‘मुण्डमाल’ है जो शिवजी  के पूर्व जन्मों का प्रतीक है जिन को वे जानते है किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके सिर से होती है, क्योंकि शिवजी ने अनेक जन्म धारण किये हैं, अत: उस के जन्म मुण्ड न होकर मुण्डमाल है। अपने अतीत जन्मों को योग द्वारा जानना ही मुण्डमाल धारण करना है। 

गीता में योगेश्वर कृष्ण कहते हैं-

बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।

गीता ४।५

हे अर्जुन ! मेरे बहुत जन्म व्यतीत हो चुके हैं जिन्हें मैं तो जानता हूँ, किन्तु तू नहीं जानता।

शरीर पर भस्म-  शिवजी शरीर पर भस्म लपेट रहते हैं जिसका तात्पर्य यह है कि वे शरीर की चरम परिणति भली भाँति अनुभव करते है। भस्मान्तं शरीरम् ॥ यजुर्वेद ४०।१५ अर्थात् यह शरीर अन्त में भस्म हो जाने वाला है। अत: वे शरीर को आत्मा पर लिपटी भस्म ही समझते है उसमें आसक्त नहीं होते। यही उसका भस्म-लेपन है।

सवारी नादिया या वृषभ- शिव मंदिरों में नादिया या वृषभ शिव की सवारी के रूप में दिखाई देते हैं। नादिया’ शब्द नाद का अपभ्रंश है। नाद ध्वनि को कहते हैं और सर्वश्रेष्ठ ध्वनि प्रणव (ओंकार) है। यह उसके लिए ‘वृषभ’ अर्थात् सुखों की वर्षा करने वाला है। शिवजी का स्वयं का जीवन उस प्रणव ध्वनि में सदा लीन रहता है अर्थात यही उसकी नादिया वृषभ की सवारी है।

‘उमा’ से विवाह- शिवजी का उमा से विवाह, उमा का स्वरूप-ज्ञान है। केनोपनिषद् (३।१२) 

शोभमाना हैमवती उमा ही हिमालय-पुत्री पार्वती है। इसका नाम उमा इसलिए है- उ ब्रह्म मीयते ज्ञायते यया-सा ब्रह्मविद्या उमा’ अर्थात् जिस विद्या से ब्रह्म को जाना जाए वह ब्रह्म विद्या ही ‘उमा’ है। प्रकाशवती होने से यह ‘हैमवती’ और ‘बहुशोभमाना’ है।  शिवजी इसी हैमवती उमा से पाणिग्रहण करते है, अर्थात् ब्रह्म विद्या को प्राप्त कर ब्रह्म तक पहुँचने या ब्रह्मप्राप्ति के प्रयास मे रत रहते है। दुसरो का कल्याण करना सुख पहुंचाना यह शिवजी का ध्येय है।

इसलिए शिव को कल्याण रूप कहां गया है-

नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय

 च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च 

॥ यजुर्वेद १६ । ४१

दूसरों का कल्याण करना और उन्हें सुख पहुँचाना यह शिव रूप अतिथि का परम स्वभाव है। वह सत्संग और सत्य उपदेश द्वारा सब को सुख पहुँचाता है। आचार्य मनु और महर्षि दयानन्द दोनों ने ही अतिथि का प्रधान कर्तव्य गृहस्थों को अपने सद उपदेश द्वारा  कल्याण करना और उन्हें सुख पहुँचाना बताया है जो उसके ‘शिव’ नाम की सार्थकता को प्रतिपादित करता है।

शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है। रुद्र देवतात्मक एक मन्त्र में ‘अम्बिका’ को उसकी ‘स्वसा’ कहा है- स्वसा। एष ते रुद्रभागः सह स्वस्त्राम्बिकया तं जुषस्व यजुर्वेद ३. ५७

 ‘अम्बिका-‘ पद का अर्थ वाण या वेदवाणी और ‘स्वसा’ का अर्थ उत्तम विद्या या उत्तम क्रिया करते हैं। तात्पर्य यह है कि रुद्र या शिव वाणी तथा विद्या के अधिपति हैं।  शिवजी  के सम्बन्ध में मान्यता यह है कि वे शब्द शास्त्र के आदि-आचार्य हैं ।  पाणिनि व्याकरण के आधारभूत १४ सूत्र ‘महेश्वर (शिव) सूत्र’ कहे जाते हैं । शिवजी पूर्ण विद्वान् होने से वाणी के स्वामी है, यह भी दोनों में समानता है। ऐसे शिव समान साक्षात योगी का उदाहरण योगीराज महर्षि दयानन्द स्वयं थे।

शिवजी की  अतिथि की पूजा-

उपर बतायें भगवान शिवजी के गुणों को धारण करने वाले अतिथि की पूजा या सत्कार करना ही शिवजी का पूजन और सत्कार करना है जिसकी की विधि अत्यन्त सरल और सीधी है। अथर्ववेद, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश आदि में इसका विस्तार से वर्णन हुआ है-

 घर आये हुए शिव स्वरूप अतिथि का  प्रथम (पाद्य) पद प्रक्षालनार्थ जल (अर्घ्य) मुख धोने का जल और (आचमनीय) पीने के लिए जल तीन प्रकार का जल देना चाहिए। पश्चात् सत्कार पूर्वक आसन पर बैठाना चाहिए। खान-पान आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से सेवा- शुश्रूषा कर उन को प्रसन्न करना चाहिए। सत्संग प्रवचन द्वारा उनसे प्रश्नोत्तर कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्षदायक ज्ञान-विज्ञान पूर्ण उपदेशों का श्रवण करना चाहिए, तथा उपदेशानुसार चाल-चलन भी रखना योग्य है।  आइये अतिथि देव ! इस आसन पर विराजिये। क्या कारण है कि आज इतने दिनों पश्चात् आपके दर्शन हुए हैं? क्या बात है? आपके शुभदर्शनों से मन अति प्रसन्न हो रहा है। 

” शिवरात्रि का यही वैदिक सन्देश है। हमारी रात्रियाँ शिव और शुभ बनें, क्योंकि शिवरात्रि ही दिव्य जीवन की प्रतीक है। हम ‘शिव’ की आराधना, पूजा, सेवा, सत्कार में सदा सावधान और दत्तचित रहें कभी १४वीं (शिवचतुर्दशी) की रात १४ वर्ष के बालक मूलशंकर ने निबोध या प्रबोध के द्वारा सच्चा बोध प्राप्त किया था और हमें सन्देश दिया था- 

‘सदा जागते रहो’ । 

वह ‘शंकर’ स्वयं ‘शंकर’ बन उस ‘दिव्य शंकर’ में तल्लीन हो गया। संसार महर्षि दयानन्द के रूप में उनके प्रति सदा नतमस्तक रहे।

लेखक- घेवरचन्द आर्य पाली