हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – गोबराहारी गुबरैला जी

‘गोबर’ एक सार्वभौमिक और सार्वजनीन संज्ञा शब्द है।साहित्य के मैदान में इसने भी बड़े -बड़े झंडे गाड़े हैं।हिंदी साहित्य के कुछ ख्यातिलब्ध मुहावरे इसकी संपत्ति हैं।जैसे: गुड़ गोबर होना, दिमाग में गोबर भरा हुआ होना,गोबर गणेश आदि आदि।इन मुहावरों ने गोबर को अमरता की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। यदि इस ख्यातिलब्ध गोबर से कोई वस्तु या जीव की उत्पत्ति होगी ,तो उसमें भी गोबर की गोबरता अवश्य ही पाई जाएगी।इस गोबर को एक ही स्थान पर पड़ा रहने पर एक जंतु विशेष की उत्पत्ति हो जाती है ;जिसका नाम है ‘गुबरैला’।

‘गुबरैला’ की प्रकृति और वंशावली के आधार पर वह अपने पिता गोबर और माता गोबरा के गुण और डी. एन.ए.के मिलान के बाद यह सिद्ध किया गया है कि वह योग्य दंपत्ति की सुयोग्य संतति है।और तो और उसका सूतक गृह और निवास स्थान भी गोबर ही है।वह जहाँ जन्म लेता है ,वहीं पर अपना सारा जीवन बिता देता है।वह अपनी मातृभूमि गोबर का सच्चा सपूत जो है। इस रचनाकार ने उसके गुण धर्म के आधार पर उसके विभिन्न नामकरण भी किए हैं। जिन्हें इस प्रकार गिनाया जा सकता है : गोबरज,गोबरजा,गोबरसुत,गोबरसुता, गोबरजात,गोबरसन्तति, गोबरवासी, गोबरवंशी, गोबराहारी, गोबरांश,गोबरनिर्भर,गोबरदेव,गोबराशीष आदि।

इस गोबरवासी का सर्वप्रिय और सर्व प्रचलित नाम ‘गुबरैला’ ही है। जो सर्वत्र मान्यता प्राप्त है।इसकी प्रकृति और गुणों के आधार पर अनेक मुहावरों और कहावतों का भी जन्म हुआ ,जिनकी चर्चा पहले ही की जा चुकी है। ‘गुबरैला ‘ जी से प्रेरित और मान्यताप्राप्त कुछ मनुष्यों ने भी यही संस्कार सहज स्वीकार करते हुए ‘गुबरैला वृत्ति’ को धारण किया है।गुबरैला की आदि और इति मंजिल गोबर पिंड तक ही सीमित है। उसका यह एकनिष्ठ स्वभाव कुछ लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।जब कभी मन हुआ तो बाहर आकर गोबर पिंड पर भी भ्रमण कर लिया और पुनः स्व निर्मित गोबर गुहा में रम लिए।एक विरक्त सन्यासी स्वभाव को धारण किए हुए गोबर पिंड ही काशी ,वहीं प्रयागराज, वहीं हरिद्वार, वही द्वारिका,वहीं आठों धाम विराजमान हैं।जब सब कुछ वहीं है ,तो कहीं अन्यत्र क्यों जाया जाए ? हमारी भारतीय संस्कृति में वैसे भी माता पिता से बढ़कर कुछ नहीं है। जैसे भगवान गणेश ने अपने माता पिता की परिक्रमा पूर्ण कर सम्पूर्ण धरती की परिक्रमा कर ली और उसे पूर्ण मान्यता भी प्रदान की गई तो हमारे प्रिय गुबरैला जी को ही क्या पड़ी जो इधर – उधर की धूल फांकता फिरे? मन चंगा तो कठौती में गंगा की कहावत को यदि सच्चे अर्थ में किसी ने मान्य किया तो इस गोबर गणेश ,गोबर गणेश नहीं,गोबरसुत गुबरैला ने ही। वैसे यदि हम विचार करें तो यह गुबरैला जी भी किसी गोबर गणेश से कम महत्त्व नहीं रखते।

जब गुबरैला जैसे जानदार जीव की जीवंतता की चर्चा आम हो रही है तो हमारा यह कर्तव्य भी बनता है कि उसकी जन्मदात्री ,जन्मदाता और जन्मभूमि की चर्चा भी लगे हाथ क्यों न कर ली जाए ?गाय तथा भैंस बैल हाथी आदि पशुओं के गोबर का विशेष महत्व है। जिस काम के लिए मानव विसर्जित पदार्थ काम नहीं लाया जाता ,उस काम के लिए इस गुबरैला के जन्म धाम को प्रयोग किया जाता है। वह भी बड़े ही आदर और पवित्र भाव के साथ ग्रहण किया जाता है।अशुद्ध घर ऑंगन और दीवारों की लिपाई पुताई करके उन्हें पवित्र करना हो तो गुबरैला के जन्म धाम गोबर की ही याद आती है।सुना तो यह भी गया है कि पहले के लोग किसी व्यक्ति के अपवित्र हो जाने पर उसे गुबरैला के जन्म धाम गोबर को खिला कर शुद्ध कर लेते थे।जब गुबरैला का जन्म धाम इतना महत्वपूर्ण और पावनकारी है,तो बेचारे गुबरैला ने ही क्या बिगाड़ा है जो उसे हेयता की दृष्टि से देखा जाये। वह भी एक विशेष सम्मान का अधिकारी है।

माना कि गुबरैला अपने स्वकेन्द्रित भाव और प्रकृति के कारण किसी से कुछ कहता नहीं है,तो भला उसके प्रति हेयता का भाव क्यों रखा जाए ? उसे भी एक सन्यासीवत सम्मान दिया जाना चाहिए। वह किसी से कुछ माँगता भी नहीं है। किसी के विरुद्ध अपने बल का प्रयोग भी नहीं करता ,तो उसे निर्बल क्यों समझा जाए? वह अपने समाज और घर-परिवार में ही मस्त तथा व्यस्त रहता है ,तो बुरा क्या है? उससे किसी की कोई हानि भी नहीं होती। वह आत्म केंद्रित है ,तो यह उसकी प्रकृति प्रदत्त शक्ति ही है।वह भी मानव की तरह चौरासी लाख योनियों में से एक योनि का भोग कर रहा है।जब उसका समय पूर्ण होगा तो वह भी अपने नए रूप में जन्म लेकर तदवत विचरेगा।अभी उसे अपनी गोबर -गुहा तक ही सीमित रहने दीजिए। इसी में उसका कल्याण है।वह कर्म नहीं कर सकता ,भोग तो सकता है। वह उन नर देहधारियों से बेहतर है ,जो मनुष्य देह धारण करते हुए भी गुबरैला से बदतर जीवन जी रहे हैं।

— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040