लघुकथा

बेटी

“बेटी हुई है बेटी।” बेटी के जन्म पर खुशियां मनाता परिवार देख उसकी आँखें नम हो गयी।

याद आया, जब उसकी दुसरी बिटिया का जन्म हुआ, कैसे सब गुमसुम हो गये थे। न नवागत का स्वागत, न कोई मिठाई। सिर्फ तानें ही तानें। जैसे बेटी को जन्म देकर उसने बहुत बडा गुनाह किया हो।

“लो सिस्टर, मिठाई ले लो। लक्ष्मी जी पधारी है।” आसपास के मरीजों को भी मिठाई खिलायी गयी।

“आप थोडी और ले लो सिस्टर।”

“रात भर आपको सोने नहीं दिया बहु और बिटिया ने।”

“हमारे घर की रौनक हैं लाडो रानी।”

“नन्हीं परी”

“घर आंगन की महक-चहक।”

रिश्तेदार भी नन्ही बिटिया को खूब प्यार कर रहे थे। भुआ जी सीने से लगाकर झुम रही थी।

“मेरी नन्हीं पालने में सो रही होगी। आया के भरोसे।” 3 महिने की गुडिया को दादी जी और आया के भरोसे छोड आती थी वह।

कितनी बेबस है वह। नाकारा पति और सास के पास छोड तो आती है, पर गुडिया के रोने की आभासी आवाज उसे बेचैन करती है।

जब से अस्पताल में पालना घर हुआ है, बहुत खुश है वह। काश पहले ही ये सुविधायें मिलती। जब भी समय मिलता है, बिटिया को संभाल आती है।

अशेष दुआयें देती हैं पालनाघर की संकल्पना साकार करनेवाले समाजसेवी संस्था को।

— चंचल जैन

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८