कविता

मैं हूँ एक पुल

सुनो, मैं हूँ एक पुल

दरिया, खड्डों,नालों पर पड़ा हूँ

अपना सीना तान कर खड़ा हूँ

आजके इंसान की तरह तोड़ने का नहीं

जोड़ने का काम करता हूँ

सर्दी गर्मी बरसात तूफान में

मैं अडिग रहता हूँ

मेरे ऊपर से हर दिन 

सब तरह के लोग गुजरते हैं

मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं

कोई बंदिश नहीं

बिना किसी भेदभाव के

मैं सभी को पार पहुंचाता हूँ

खुद वहीं खड़ा रह जाता हूँ

क्योंकि मैं एक पुल हूँ

भगवान राम के ज़माने से सेतु के रूप में

कहीं न कहीं काम आ रहा हूँ

सारी सृष्टि को रास्ता दिखा रहा हूँ

जिस किसी को भी पार जाना होता है

मेरे दिल के ऊपर से धड़ाधड़ गुज़र जाता है

मेरी सिसकियों की आवाज कोई नहीं सुनता

दब जाती है गाड़ियों के शोर में

क्योंकि मैं एक पुल हूँ

मुझे केवल इस्तेमाल किया जाता है

जब मैं जवान होता हूँ

सब याद करते है मुझे

बूढ़ा होने पर किनारे कर दिया जाता हूँ

मेरा ज़र्ज़र शरीर अब काम का नहीं रहा

कोई नहीं पूछ रहा मुझे

क्योंकि मैं एक पुल हूँ

मैंने जातपात ,धर्म,मज़हब कुछ नही देखा

सबमें एक ही रूप देखा

फिर ए इंसान तू क्यों आपस में लड़ा रहा है

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई करवा रहा है

मेरी तरह जोड़ना सीख ले

यही काम आएगा

वरना लड़ाते लड़ाते एक दिन इस लड़ाई में

सब खत्म हो जाएगा।

— रविंदर कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र