कहानी – बगावत का हासिल
आराधना का जन्म जिस परिवार में हुआ था वह पढ़ा लिखा आधुनिक और संस्कारी परिवार था…. । पहाड़ की तलहटी में बसा छोटा सा गांव था। दस पंद्रह घर रहे होंगे पूरे गांव में…।
आराधना के पिता रामस्वरूप शिक्षक थे और मां एक सुघड़ गृहणी …. । गांव में रामस्वरूप का एक सम्मानित परिवार था…. ।
घर में अनुशासन और मानवीय जीवन मूल्यों के साथ-साथ आधुनिक प्रगतिवादी सोच का वातावरण था।
मां एक सुघड़ गृहणी के साथ-साथ गाने का भी शौक रखती थीं। उसे घर का कामकाज निपटाकर जब भी समय मिलता अपने हारमोनियम पर हाथ चला लेती और धीरे-धीरे गुनगुना लेती…। पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था कई पत्र- पत्रिकाएं घर में आती रहतीं थीं ।
गाहे-बगाहे आराधना भी इन पत्र- पत्रिकाओं पर हाथ चलाती रहती थी, जिसके कारण उसमें पढ़ने का भी शौक पैदा हो गया था….।
माता-पिता दोनों अपनी-अपनी कला में शौक रखते थे, एक पढ़ने लिखने में तो दूसरा संगीत में…।
यानी दोनों कलाकार थे।
कहते हैं कलाकार कोई विशेष व्यक्ति नहीं होता परंतु हर व्यक्ति विशेष कलाकार होता है…।
किसी के भीतर गाने की कला होती है तो किसी के भीतर नाचने की। किसी के भीतर लेखन की कला होती है तो किसी के भीतर कोई और कला….।
लेकिन सबके भीतर कोई न कोई विशेष कला सदैव विद्यमान रहती है। बशर्ते कि उसकी पहचान की जाए और उसको निखारा जाए । क्योंकि प्रतिभा तो जन्मजात होती है बस उसे निखारना पड़ता है ….।
इस कला के संवर्धन के लिए परिवार समाज व गुरुजनों का प्रोत्साहन मिलना बहुत जरूरी होता है….।
उसके बाद आदमी के भीतर की उत्कट जिजीविषा जो कला को निखार कर उसे शिखर तक ले जाती है बहुत जरूरी होती है…।
यशोदा के संगीत में शौक को देखकर हारमोनियम उसके पति ने ला कर दिया था……।
यशोदा गांव के सत्संग इत्यादि में गाकर अपना शौक पूरा कर लेती थी ।
इससे ज्यादा उसे न तो अवसर मिला और न ही उसका शौक था।
क्योंकि उस जमाने में आज की तरह इतना खुला विस्तृत मंच नहीं मिला करता था । सीमित से मंच हुआ करते थे। जहां आदमी अपनी प्रतिभा दिखा सकता था परंतु वहां पहुंचना कोई आसान काम भी नहीं था।
आराधना यशोदा और मास्टर रामदयाल की बड़ी बेटी थी, सारा प्यार आराधना के हिस्से था…..।
बड़े लाड़ से पाला था आराधना को उसके माता-पिता ने।
आराधना भी जब मां हारमोनियम पर गुनगुनाती तो सुनती, इस तरह संगीत की शिक्षा उसके भीतर मां की लोरी के साथ ही आ गयी थी….।
कहते हैं सबसे पहला गुरु मां होती है , जिसकी मां अच्छी होती है उसका व्यवहार भी अच्छा होता है, संस्कार भी अच्छे होते हैं और संसार भी अच्छा होता है….।
नेपोलियन ने कहा था-” गिव मी गुड मदर्स आई विल गिव यू ए गुड नेशन “, यानी आप मुझे अच्छी माताएं दो मैं आपको अच्छा राष्ट्र दूंगा।
राष्ट्र की सारी तरक्की और भविष्य राष्ट्र की माताओं पर निर्भर करता है। आराधना में मां के खूबसूरत व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव उतर आया था….।
वह स्कूल में दाखिल हुई तो बाल सभा में अध्यापक जब भी बच्चों से कुछ गाने के लिए कहते तो आराधना स्वयं उठ जाती और गाने लगती ….।
इस तरह से उसके भीतर मंच का भय भी छोटी उम्र में ही खत्म हो गया था….।
उसने कोई विधिवत् संगीत की शिक्षा नहीं ली थी परंतु परमात्मा ने उसे बहुत मीठी आवाज दी थी। बाकी मां के संस्कारों से संगीत की मधुरता उसके कंठ में उतर आई थी।
वह बहुत मधुर गाती थी।
अब अध्यापकों की नजर भी उसकी प्रतिभा के ऊपर रहती थी…।
जब भी बालसभा होती या कोई अन्य कार्यक्रम , अध्यापक आराधना को जरूर गाने के लिए कहते …।
इस तरह वह धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी…।
समय पंख लगाकर उड़ रहा था पता ही नहीं चला कब उसने 12वीं कर ली और कब बी ए….।
इस दौरान उसने विद्यालय के स्तर पर और कॉलेज के स्तर पर कई संगीत कार्यक्रमों में अपनी प्रतिभागिता निभाई ..।
अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।
बीए करने के पश्चात आराधना का शौक था कि वह संगीत की बुनियादी शिक्षा लेगी । परंतु उसके इस शौक को पंख नहीं लग पाए ।
अभी वह संगीत के क्षितिज में उड़ने के लिए पर फैला ही रही थी कि माता पिता को एक रिश्ता मिल गया…।
लड़का सरकारी नौकरी करता था । अच्छा रुतबे वाला परिवार था, धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी आलीशान कोठी कार सब कुछ था…. ।
हर एक माता-पिता का सपना होता है कि बेटी को अच्छा घर मिले यह बाहरी चीजें देखकर बेटी के सुख के लिए सारे ही माता-पिता ललचा जाते हैं ।
आराधना के माता-पिता भी बेटी के सुख के लिए अच्छा रिश्ता देखकर रिश्ते के लिए तैयार हो गए थे…।
हर मां-बाप की हसरत होती है बेटी को अच्छा घर मिले अच्छा वर मिले, उनकी हसरत पूरी हो रही थी हालांकि आराधना की उम्र अभी 21 वर्ष की ही तो थी।
परंतु फिर अच्छा रिश्ता मिले न मिले इसलिए उन्होंने आराधना का रिश्ता पीयूष से कर दिया….।
और कुछ समय बाद शादी भी कर दी।
रिश्ता जोड़ने से पहले तो बाहर से सभी अच्छे लगते हैं परंतु उनकी भीतरी दुनिया का पता तब चलता है जब उनके साथ उठना बैठना मिलना जुलना जीवन जीना शुरू होता है..।
बाहर की चकाचौंध बहुतों को भ्रमित कर देती है….. ।
कहते हैं न हर चमकती चीज सोना नहीं होती…।
और इस भ्रम में कई बार ऐसे निर्णय लिए जाते हैं जो उचित नहीं होते। बाहरी चमक दमक आकर्षक हो सकती है उपयोगी भी हो जरूरी नहीं….।
यह भी संसार की एक सच्चाई है। आराधना के माता-पिता पीयूष के परिवार के बारे में भीतरी तौर पर कुछ भी नहीं जानते थे…।
शादी के बाद एक दिन आराधना ने पति से कहा-“मैं बचपन से ही गायन का शौक रखती हूं यदि आप मेरा सहयोग करें तो मैं इस क्षेत्र में कुछ अच्छा कर सकती हूं।”
आराधना की बात सुनकर पीयूष बोला -“तुम्हें पता होना चाहिए हमारे परिवार का रेपुटेशन समाज में कैसा है ….?
तुम इस परिवार की बहू हो, तुम्हें गाने बजाने का काम शोभा नहीं देता ….।
घर परिवार संभालो यही काफी है…।”
कहां तो उसे सहयोग की अपेक्षा थी और कहांयह निष्ठुर जबाब…। वह भीतर ही भीतर रो उठी…।
यद्यपि पीयूष अच्छा पढ़ा लिखा तो था परंतु मानसिकता में उसकी वही पुरातनपंथी रूढ़िवादी पुरुष प्रधान मानसिकता थी।
पति ही क्या सास-ससुर भी सब एक जैसे पुरातन पंथी….। पैसे के हिसाब से तो अमीर थे परंतु सोच के हिसाब से आज भी उनकी वही दकियानूसी सोच थी…।
आराधना सोचती किन लोगों के साथ पापा ने मेरा जीवन जोड़ दिया और कभी-कभी उसे उनकी इसी सोच पर झुंझलाहट होने लगती …।
फिर वह अपने आप से कहती- “कोई बात नहीं कल तक सब ठीक हो जाएगा”।
मां-बाप की नटखट लाडो ससुराल पहुंचते ही कब धीर गंभीर हो जाती है पता ही नहीं चलता….। आराधना की चुलबुलाहट भीकब गंभीरता में बदल गई थी उसे भी पता नहीं चला…।
जैसे धान की पनीरी को उखाड़ कर दोबारा रोप दिया जाता है और उस पनीरी को पुनः अपनी जड़ें स्थापित करने के लिए मरकर दोबारा जीना पड़ता है …।
अगर खेत को पानी ठीक मिले तो पनीरी अपनी जड़ें पकड़ लेती है यदि खेत सूखा रहे तो पनीरी भी सूख जाती है….. ।
ठीक इसी तरह लड़की को भी मायका छोड़कर ससुराल पहुंचते ही स्वयं को स्थापित करने के लिए खूब जद्दोजहद करनी पड़ती है ।
यदि ससुराल पानी वाले खेत की तरह अच्छा मिले तो पुनः स्थापित होने के लिए ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ता ।
अन्यथा लड़की की भी वही दशा होती है जैसे पनीरी की…। धीरे-धीरे सूख जाती है…। जीते जी ही मर जाती है..।
उसके सपने, उसकी चाहतें, उसके अरमान सब कुम्हला जाते हैं।
उसकी सारी प्रतिभा, उसकी सारी कला, ससुराल के सूखे खेत और तीखी धूप में झुलस जाती है…।
संस्कृति और मर्यादा की दुहाई देने वाला समाज नारी हृदय की तह तक कभी नहीं पहुंचता।
बस खड़ी करता है तो मर्यादाओं की, रूढ़ियों की और अहम की ऊंची ऊंची दीवारें उसके अगल-बगल …।
और कई बार तो बहुत सी कोमल कलियां इन दीवारों के भीतर असमय मुरझा जाती हैं …।
कभी-कभी तो सूख भी जाती हैं ….।
लेकिन समाज को अपने इस दम्भ भरे कृत्य के लिए थोड़ा सा भी पश्चाताप नहीं होता….।
उसे तो अपनी ईगो को सेटिस्फाई करना होता है…।
युगों से चला आ रहा नारी जीवन का यही सत्य है….।
उसके पैरों में बेड़ियां बांध कर खुले आसमान का सपना दिखाया जाता है…।
आराधना अपने आसपास उगी दीवारों और पैरों में मर्यादाओं की बंधी बेड़ियों को देख कर भीतर ही भीतर कराह उठती…..।
सोचती……, “जीवन के इस रूप के बारे में तो उसने कभी सोचा ही नहीं था ।”उसके सपनों का राजकुमार हकीकत के राजकुमार से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता था….।
दोनों घरों के वातावरण में जमीन आसमान का फर्क था । उसके मायके में जहां लिखने पढ़ने और संगीत का वातावरण था , मूल्यों की कीमत थी, प्रगतिवादी सोच थी,यहां बिल्कुल इसके उल्ट था ।
यहां दो से चार कैसे बनाए जा सकते हैं इस पर खूब चर्चा होती थी….।
घर में आने वाले मेहमान भी दो से चार बनाने वाले ही होते…। लाखों करोड़ों की बातें होतीं पर कला की बात कभी नहीं होती।
उन्हें पता ही नहीं था कि कला किस चिड़िया का नाम है , दुनिया में कला भी कोई चीज होती है..,और जीवन में पैसे के साथ-साथ जीवन मूल्यों की भी कीमत होती है….।
इस वातावरण में उसे बहुत घुटन होती परंतु किया भी क्या जा सकता था…।
कभी-कभी वह खुद से कहती_” दिल की बात किससे करूं यहां तो कोई भी दिल की बात सुनने वाला नहीं है…।”
बरसों बीत गए पर सब ठीक होने वाला कल नहीं आया और वह समझौते पर समझौता करके जिंदगी को घसीटती रही….।
इस तरह उसे अपने संगीत के शौक को वर्षों तक मारना पड़ा था …।
इस रूढ़िवादी परिवार में रूढ़िवादिता और पारिवारिक अहम ने उसके इस नाजुक से सपने को बरसों पहले ही तो मार दिया था…। जब वह ब्याह कर इस घर में आई थी।
परंतु फिर भी भीतर कहीं उसका बीज आज भी विद्यमान था…।
यह उसके लिए संतोष की बात थी।
फिर एक दिन उसके भीतर से आवाज आई-” बहुत जी लिए औरों के लिए अब खुद के लिए जीते हैं ….।”
तब तक उसके बच्चे बड़े हो गए थे ।
“अब मैं अपने पुराने शौक को फिर से जिंदा करूंगी “- उसने अपने आप से कहा।
और फिर उसने अपने शौक को दोबारा जिंदा करने का प्रण कर लिया ….।
उसने अपने पति से एक बार फिर अपने संगीत के शौक को जो अब बीज रूप में ही उसके भीतर बचा था पुनः उगाने की जिद्द की ।
आराधना बोली- “अब तो मैं अपनी जिम्मेवारियों से थोड़ा सा निवृत्त हो गई हूं बच्चे पढ़ कर अपना आप संभालने लगे हैं, मेरा मन करता है मैं अब अपने बचपन के शौक गीत संगीत में कुछ बेहतर करूं…।”
आराधना की बात सुनकर पति के पास बरसों पहले का वही उत्तर था -“तुम हमारे परिवार के रेपुटेशन को नहीं जानती? हमें यह काम शोभा देता है गाने बजाने का ?
और तुम …इस उम्र में यह काम करोगी। अब तो हमारे बच्चे शादी विवाह के योग्य होने लगे हैं ,और तुम्हें गाने बजाने का शौक चढ़ा है….।”
उसे उम्मीद थी अब पति उसे इजाजत दे देंगे, उसका सहयोग करेंगे और कहेंगे की कर लो आप अपना शौक पूरा…..।
परंतु पति के इस जवाब से तो उसके भीतर एक ज्वाला सी धधक उठी….।
उसे समझ नहीं आ रहा था पति को क्या जवाब दे…।
वह सोच रही थी….
“इतने बरसों बाद भी पति का वही पुरुषवादी नजरिया….।
मैंने जिंदगी के कितने बरस इस परिवार के लिए लगा दिए….।
दो-दो बच्चे पैदा करके इस परिवार को दे दिए, घर को संभाला ,परिवार को संभाला मगर फिर भी मेरी जिंदगी जिंदगी नहीं….।
मुझे कुछ भी अपनी मर्जी से करने का कोई अधिकार नहीं….।
क्या औरत इतनी निर्बल है ….?
समाज में उसे हर काम के लिए पुरुष से अनुमति लेने की जरूरत है…?”
कई प्रश्न उसके जहन में उठ रहे थे…।
अब उसके भीतर विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी थी।
कहते हैं नारी जब कुछ करने की ठान ले तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे सचमुच रोक नहीं सकती ।
यह गुण सिर्फ और सिर्फ भगवान ने औरत को ही दिया है…।
अब उसके तेवर में बगावत के सुर आ गए थे। अब उसने सोच लिया था परिवार का सहयोग न तो न सही वह अपने शौक को जरूर पूरा करेगी….।
बेशक उसको इसकी कितनी भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।
पच्चीस वर्षों के गृहस्थ जीवन में उसने परिवार में पाया था कि- “पुरुष की ईगो कल भी वैसी थी आज भी वैसी ही है, औरत के प्रति उसका नजरिया जस का तस ही है।”
“जबकि पूरी उम्र साथ जीने के बाद भी उसे दोयम दर्जे का इंसान ही माना जा रहा है तो क्यों न कुछ बचे हुए वर्ष अपनी मर्जी से जी लिए जाएं…।”
समाज में कुछ अच्छे लोग भी थे जिनकी बदौलत उसने संगीत की दुनिया में कदम रख लिया …।
एक एल्बम रिकॉर्ड होकर जब मार्केट में आई तो रातों रात वह स्टार बन गई…..।
,उसकी आवाज का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला। फिर उसे संगीत के मंचों पर बुलाया जाने लगा। कल तक जो परिवार उसे गृहस्थी संभालने की सलाह दे रहा था, परिवार का नाम खराब करने की बेहूदा बातें कर रहा था आज उसकी उपलब्धि पर नाज करने लगा था ….. ।
अब उस परिवार को गायिका आराधना के नाम से जाना जाने लगा था…..।
इस मुकाम को हासिल करने के पश्चात कभी-कभी आराधना अकेले में बैठकर सोचती-“काश वह बगावत नहीं करती तो शायद यह मुकाम उसे कभी हासिल नहीं होता…।
उसकी बगावत रंग लाई थी….।
वह जो पाना चाहती थी पा लिया था…।
जितनी खूबसूरती से वह घर को चला रही थी उतनी ही खूबसूरती से उसने संगीत की दुनिया में भी अपने पैर जमा लिए थे…। अब वह परिवार के साथ-साथ खुद के लिए भी जी रही थी…।। आराधना का देखा सपना अब पूरा हो गया था….। उसका शौक पुनः जी उठा था, यही उसकी बगावत का हासिल था….।।
— अशोक दर्द