उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 2)

अध्याय-1: मैं और मेरा परिवार

वो ये कहते हैं कि ‘गालिब कौन है?’
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या?

विश्वनाथ को ‘बिस्सा’ और लखनदास को ‘लक्खो’ कहने वाले लोग अगर अच्छे खासे ‘विजय कुमार’ को बिगाड़ कर ‘बिज्जू’ कर दें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मैंने तो जबसे होश सँभाला है, अपने को इसी नाम से पुकारा जाता पाया है। यों घर में मेरी माताजी, जिन्हें हम पहले भाभी कहते थे और बाद में मम्मी कहने लगे, मुझे ‘विजय’ कह कर बुलाती हैं, मेरे सहपाठी ‘सिंघल’ सम्बोधन देते हैं और एक गहरी दोस्त ने मुझे ‘अंजान’ उपनाम प्रदान किया है, मगर मेरा नाम रहा मूलरूप में ‘बिज्जू’ ही, हालांकि इसके अपभ्रंश बिजू, विजू, बीजू, बैजू और बिज्जो भी किसी-किसी के मुखारविन्द से उच्चारित होते रहे हैं। और आज तो हाल यह है कि मेरे घर के छोटे बड़े लोगों से लेकर पड़ौसियों तथा रिश्तेदारों तक मुझे ‘बिज्जू’ कहकर ही बुलाया करते हैं। यहाँ कि हमारी पूजनीया बड़ी भाभी जी भी मुझे ‘बिज्जू भैया’ का सम्बोधन देती हैं।

मुझे अपने नाम से प्यार है। ‘बिज्जू’ नाम मुझे प्रिय है, मगर ‘विजय’ शब्द मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। यों अपनी एक मित्र देवी जी द्वारा दिया हुआ उपनाम ‘अंजान’ भी काफी पसन्द है, क्योंकि उन देवी जी के प्रसाद की उपेक्षा करने का दुस्साहस मुझमें नहीं है। ‘बिज्जू’ शब्द में केवल यही विशेषता नहीं कि यह प्यार का नाम है या मेरे वास्तविक नाम ‘विजय’ का अपभ्रंश है, इसकी विशेषता यह भी है कि यह मेरे स्वभाव से मेल खाता है। वास्तव में ‘बिज्जू’ (जिसे कभी-कभी बीजू भी कहते हैं) लोमड़ी की शक्ल और बिल्ली के आकार का लेकिन देखने में मरियल सा एक जानवर होता है। उसके गुण होते हैं- चालाकी, धूर्तता, फुर्ती, दूरदर्शिता, दुस्साहस और तीक्ष्ण बुद्धि। शायद मेरे गुणावगुण भी इसी कोटि के हैं, तभी तो मेरे कुछ गुरुजन (ताऊजी, चाचाजी तथा अन्य) प्रायः मेरी शरारतों से तंग आकर कहा करते थे- ‘पक्कौ बीजू ऐ’, ‘अहै…है….है बीजू…’ और ‘तू बीजू से, न मानैगौ?’

आप अनुमान लगाइये एक लड़के का- दुबला-पतला, ठिगना, उम्र के लिहाज से मरियल, सामान्य से कुछ बड़े दाँत, पैनी आँखें, चौड़ा माथा और चेहरे पर हर वक्त खेलती शरारत भरी मुस्कान यानी कुल मिलाकर ऐसा कि अगर कोई पहली बार देखे और उसे कुछ न बताया जाय, तो शायद उसे पागल समझे। मगर यही मरियल सा लड़का बातचीत में बड़े-बड़ों के कान काटता था (पूज्य छोटे चाचाजी के शब्दों में- ‘अधर गालै खामतुऐ’) और केवल अपनी बुद्धि के बल पर अपने से बड़ी उम्र के और अधिक ताकतवर लड़कों का भी नेतृत्व करता था। तभी तो पिताजी (जिन्हें पहले हम भैया कहते थे) आशीर्वाद दिया करते थे- ‘जि तौ नेता बनैगौ’ (यह तो नेता बनेगा)।

मेरी जन्म तिथि पर इतिहासवेत्ताओं और विद्वानों में मतभेद हो सकता है। सत्य तो यह है कि मैं आज तक अपनी जन्म तिथि के बारे में अन्तिम निश्चय नहीं कर पाया। लेकिन इसे आप यह न समझें कि मेरा जन्म होना केवल कपोल कल्पना है। इस बात का तो मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा जन्म हुआ था, क्योंकि मेरी माताजी और पिताजी का ऐसा ही विचार है और उनकी बात काटने का मेरा कोई इरादा नहीं है। अब सवाल रह जाता है कि ‘कब हुआ था?’। इसका जबाब खोजने के लिए मुझे अपनी माता जी का स्मृतिकोष टटोलना पड़ेगा। उनका कहना है कि वह दिन मंगलवार था और दीपावली से ठीक पहले की दशमी थी। सन् और संवत् माताजी को तो क्या पिताजी को भी पक्की तरह याद नहीं है, लेकिन उनका कहना यह है कि जिस समय मैं स्कूल में दाखिल कराया गया था, मैं साढ़े चार साल का था जबकि दाखिल होने के लिए मुझे कम से कम 5 साल का होना चाहिए था। इसलिए पिताजी ने मेरी उम्र जानबूझकर 6-7 महीने ज्यादा लिखा दी थी। विद्यालयों के अभिलेखानुसार (सरकारी भाषा में कहें तो ‘हाईस्कूल प्रमाणपत्र के आधार पर’) मेरी जन्म तिथि 31.03.1959 है। इस हिसाब से मेरा अनुमान है कि मेरा जन्म माह अक्टूबर सन् 1959 के किसी दिन हुआ होगा। अब यह पंडितों तथा इतिहासकारों का काम है कि वे अपने पोथी-पत्रा निकाल कर मेरी सही जन्म तिथि का निर्णय करें।

(पादटीप– आगरा के एक पंडितजी की सहायता से मेरी सही जन्मतिथि का पता चल गया है। यह है 27 अक्टूबर 1959, दिन मंगलवार। लेकिन सरकारी कागजों में यह बदलाव कराने का मेरा कोई इरादा नहीं है, क्योंकि मैं 7 माह पहले ही अवकाश प्राप्त कर लूँगा, जो मेरे लिए अच्छा रहेगा।)

मेरे जन्म स्थान के बारे में मेरी माताजी, पिताजी तथा अन्य लोग एकमत हैं। यह स्थान है ‘दघेंटा’, जो मथुरा से ठीक सात कोस की दूरी पर पूर्व दिशा में एक गाँव है। इसका उल्लेख कुछ प्राचीन पुस्तकों में भी मिलता है। बताया जाता है कि यहाँ कभी राजा दंघ (या दंग) का खेड़ा था। उस खेड़े के अवशेष मैंने भी अपनी आँखों से देखे हैं तथा आज भी हमारा गाँव ‘खेड़ा’ या ‘खेरा’ माना जाता है। यहाँ का एक ब्राह्मण ‘खेरापति’ या ‘खेड़ापति’ कहा जाता है तथा ‘बोल दघेंटे खेरे की जय’ के रूप में गाँव का जयकारा भी विभिन्न अवसरों पर लगाया जाता है। वैसे हमारे गाँव के नाम का सही-सही उच्चारण करना और लिखना सबके लिए टेढ़ी खीर होता है। हमारे गाँव में आने वाले पत्रों पर इसके विचित्र नाम लिखे रहते हैं, जैसे धनेटा, दधेंटा, दगैता, धगैंता, धधेंटा आदि-आदि। परन्तु आश्चर्य है कि ऐसे सभी पत्र एकदम सही जगह पहुँच जाते हैं।

हाँ तो, मैं कह रहा था कि इसी दघेंटे गाँव के एक सिंघल गोत्री वैश्य (बीसा अग्रवाल) परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरे बाबा स्व. श्री चिन्तामणि जी अग्रवाल एक सीधे-साधे ग्रामीण थे। उन्होंने कभी फौज की एक कैण्टीन में नौकरी की थी। मुझे उनके बारे में सिर्फ इतना याद है कि वे काफी कमजोर और बीमार से रहते थे तथा उन्हें गुस्सा भी बहुत आता था, प्रायः हर दूसरे-तीसरे दिन खाना बीच में छोड़ कर उठ जाते थे। वे हमारी कपड़े की कच्ची दुकान की रखवाली किया करते थे तथा मुझे पक्की तरह याद है कि दिन में कई बार हम उनके पास पीने का पानी लोटे में पहुंचाया करते थे। मुझे वे बहुत प्यार करते थे। उनका हस्तलेख बहुत अच्छा था। एक बार उन्होंने एक नाटक का मेरा पाठ (अर्थात् संवाद) अपने हाथ से कलम से मोती जैसे अक्षरों में लिखा था। जिस समय उनका देहान्त हुआ, उस समय मैं कक्षा 3 या 4 का छात्र था।

मेरी दादी, जिन्हें मैं अम्मा कहता था, भी एक सीधी-सादी ग्रामीण अनपढ़ महिला थीं। बाबा से ज्यादा मुझे अम्मा की याद है। गाँव में पक्के दुमंजिले मकान में हम सब और बड़े चाचाजी का परिवार ऊपर की मंजिल पर रहते थे। नीचे की मंजिल के एक कमरे में हमारी दुकान थी, बाकी जगह में अनाज की बोरियाँ रखी रहती थीं। अम्मा नीचे की मंजिल की रखवाली दिन रात किया करती थीं तथा घर में घुसने वाले कुत्तों को भी भगाया करती थीं। मुझे पक्का याद है कि उन दिनों हमारा दूध बरोसी में हाँडी में गर्म होता रहता था। रोज दोपहर को अम्मा उसमें से निकालकर कटोरे में मुझे दूध पीने को दिया करती थी। दूध प्रायः बहुत गर्म होता था, इसलिए उसे ठंडा करने के लिए दूध भरे कटोरे या भगौनिया को ठंडे पानी में तैरा दिया करती थीं। मेरी अम्मा का नाम चन्द्रवती या चन्दा था। यह नाम मुझे याद इसलिए है कि हमारे कुल पुरोहित, जो पास के लुखटिया गाँव के थे, उन्हें ‘चन्दा’ कहकर बुलाया करते थे। जब हमारी चचेरी बहिन शकुन्तला का विवाह हुआ था, तब मैं केवल 4 या 5 साल का था। उनके विवाह के समय वे पुरोहितजी जीवित थे और हमारी अम्मा को बार-बार ‘चन्दा’ कहकर पुकार रहे थे।

जब तक बाबा थे, तब तक अम्मा की हालत ठीक रहती थी। सब्जी काटना, दूध गर्म करना, छोटे बच्चों को रोटी खिलाना जैसे छोटे-मोटे काम अम्मा ही किया करती थी। साथ ही जब बाबा गुस्सा होते थे, तो उन्हें मनाने का दायित्व भी वही उठाती थी। बाबा के मरने के बाद वह बहुत बीमार रहने लगी थी। आँखों से कम दिखाई पड़ने लगा था, सुनाई भी कम पड़ता था तथा उनका दिमाग भी गड़बड़ा गया था। बात-बात पर गुस्सा करती थी तथा घर से भागने के मौके तलाशा करती थी। इसलिए हमारी माताजी को रात को बहुत सावधान रहना पड़ता था। रात को सोते समय घर के मुख्य दरवाजे पर अन्दर से ताला लगा लिया जाता था तथा पेशाब वगैरह के लिए निकलने पर माताजी उनके साथ जाती थीं।

लेकिन एक दिन वही हुआ जिसका डर था। भीषण जाड़ों के दिन थे। एक रात को अम्मा पेशाब करने उठी। हमारी माता जी ने दरवाजा खोल दिया तथा अम्मा पेशाब करने के लिए बाहर चबूतरे पर बैठ गयी। तभी माता जी को नींद आने लगी तो वह भीतर आकर लेट गयी। थोड़ी देर बाद उसे अम्मा का ध्यान आया तो अम्मा के खटोले पर देखा। खटोला खाली था। फिर उसने बाहर देखा वहाँ भी नहीं थी। तब घबराकर माताजी ने पिताजी और चाचाजी को आवाज लगायी, जो पास में कपड़े की कच्ची दुकान पर सोते थे। वे तथा सब मुहल्लेवाले इकट्ठे होकर अम्मा को ढूँढ़ने लगे। आस-पास के खेतों में लालटेन लेकर खोज की गयी, मगर अम्मा न मिली। सब सोचने लगे थे कि अब वह अगर मिलेगी भी तो जिन्दा शायद ही मिले, क्योंकि इतने भयंकर जाड़े में दो घंटे तक वह बीमार बुढ़िया जिन्दा कैसे बची होगी।

वास्तव में हुआ यह था कि हमारे घर से थोड़ी दूर पर एक कुम्हार का अवा (एक बड़ा सा गड्ढ़ा, जिसमें मिट्टी के बर्तन पकाये जाते हैं) था। अम्मा उसमें जाकर बैठ गयी थी। वह एक दो बार खाँसी तो कुम्हार की नींद खुल गयी। डर कर वह बार-बार पूछने लगा- को ऐ तू? अम्मा ने काफी देर बाद जबाब दिया कि बौहरे की माँ ऊँ। पर कुम्हार उसे नहीं पहचान पाया, क्योंकि अँधेरा बहुत था। थोड़ी देर बाद एक दूसरे कुम्हार ने उसे पहचान लिया। तब उसने हमें आवाज लगायी और तब पिताजी उसे उठाकर लाये। अम्मा जाड़े से काँप रही थी तथा गुस्से में भी थी। हमारे एक चाचाजी श्री हीरा लाल ने पूछा- मौसी, तू कहाँ भाजि गयी?, तो जबाब में मौसी ने उनके गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। सब हमारी अम्मा को ‘मौसी’ कहते थे, क्योंकि उनकी बड़ी बहिन का विवाह हमारे बाबा के बड़े भाई श्री शंकर लाल, जो बाद में स्वामी शंकरानन्द जी सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए, के साथ हुआ था। हमारे पिताजी तथा दोनों चाचाजी भी अम्मा को मौसी कहते थे।

इस घटना के बाद हम सब बहुत सावधान हो गये थे, मगर सौभाग्य से तब से अम्मा का दिमाग भी सुधर गया। इसके बाद वह तीन साल तक और जिन्दा रहीं। मुझे अम्मा बहुत प्यार करती थीं। कभी माताजी मुझे पीटती थीं तो अम्मा ही बचाया करती थी। सबेरे-सबेरे जब हम सोती, उनींदी, जागती सी हालत में होते थे, तो अम्मा एक गीत गुनगुनाया करती थी-

जागौ रे मेरे कृष्न कन्हैया
गइया ऊ जागी, बछड़ा ऊ जागे, जागे रे गइयन के दुहैया।।
जसोदा ऊ जागी, नन्द बाबा ऊ जागे, जागे रे बलदाऊ भैया।।
जागो रे मेरे कृष्न कन्हैया।

यह गीत मुझे बहुत अच्छा लगता था, इसलिए मैं प्रायः अम्मा से इसे गाने के लिए कहा करता था।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

2 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 2)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बिज्जू भाई , हा हा किया मजेदार बचपन बताया . मेरा भी कुछ ऐसा ही है , कभी लिखूंगा तो यह ना समझ लेना कि मैंने कॉपी की है . पता नहीं कियों वोह दिन हर दम दिमाग में घुमते रहते हैं . उनमें इतना रस है कि एक आनंद सा आ जाता है .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! आपकी कहानी भी पढना चाहूँगा.

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