संस्मरण

मेरी कहानी 77

डैडी जी को को विदा करके जब मैं ने पैडिंगटन से ट्रेन पकड़ी तो मेरे मन में बहुत खियाल आ रहे थे। मुझे वोह दिन याद आये जब मैं राणी पुर से चला था। एक फिल्म की तरह सारे सीन दिमाग में घूम रहे थे। गियानी जी और जसवंत का साथ और इतने लोगों का मिलना जिन को पहले कभी देखा ही नहीं था एक सपने जैसा लग रहा था। इन सारी बातों को याद कर कर के सूई बहादर लड्डे और जगदीश पर आ टिकती।

जसवंत और मेरा साथ रोज का था लेकिन यह इस बात तक ही सीमत था कि हम रोज़ इकठे काम पर जाते और शनिवार और रविवार को पब्ब में जा कर बीअर और वहां के वातावरण में लोगों की बातों का मज़ा लेते । इस के सिवा न तो जसवंत को सिनिमा देखने की इजाजत थी और ना ही उस को जेब खर्च के लिए दिए गए पैसों से ज़्यादा खर्च करने की इजाजत थी। गियानी जी बहुत अच्छे इंसान थे लेकिन पैसे के मुआमले में बहुत ही संजमी थे। जब भी जसवंत को तन्खुआह मिलती तो घर आ कर तन्खुआह का लफाफा बगैर खोले गियानी जी को पकड़ा देता। गियानी जी लफाफे को खोल कर जसवंत को एक पाउंड दे देते और बाकी पैसों को हफ्ते का राशन खरीद कर अपनी तन्खुआह के साथ बैंक में जमा कर देते। यह एक पाउंड जसवंत का सारे हफ्ते का बस का किराया और बीअर का खर्च होता था।

गियानी जी की ज़िंदगी गरीबी में बतीत हुई थी ,और शायद यह ही कारण था कि वोह एक भी पैनी फज़ूल खर्च नहीं करते थे और ना ही जसवंत को करने देते थे। इस लिए मेरा और जसवंत का साथ बस इतना ही होता था। हर घर का अपना एक सिस्टम होता है ,जिस में पले बच्चे उस के मुताबक ही चलने लगते हैं। बहादर तो मुंह में चांदी के चमचे के साथ ही जन्मा था और मेरे डैडी क्योंकि जवानी की उम्र में ही अफ्रीका चले गए थे ,और अच्छी ज़िंदगी जीने के आदि थे ,इस लिए हम को पैसे खर्च करने की कोई बंदिश नहीं थी। जो जी चाहे हम खरीद लेते और यहां चाहें हम चले जाते थे।

ज़िंदगी में पहली दफा मैंने कोई इंसान देखा जो हर पैनी को रैजिस्टर में लिखता हो। गियानी जी ने एक बहुत बड़ा रैजिस्टर रखा हुआ था। उस में वोह एक एक चीज़ की कीमत लिखते रहते । हफ्ते का कितना किराया दिया ,कितने की सब्ज़ी खरीदी ,कितने के प्याज़ खरीदे ,हफ्ते में कौन सी जरूरी चीज़ खरीदी। इन सब चीज़ों के खर्चे को हफ्ते के आखिर में जोड़ करते और मिली तन्खुआह में से इस खर्चे को निकाल करके देखते कि उस हफ्ते कितने पैसे बचे थे। जसवंत गियानी जी से भी आगे था। हर हफ्ते कोई शिलिंग या आधा शिलिंग बच जाता तो वोह इस को जमा करता रहता और इस को तब खर्चता जब पब्ब में ज़्यादा बीअर पीने को उस का मन करता हो। जसवंत की एक ही हॉबी थी और वोह थी बीअर पीने की ,इस के सिवा उस को किसी बात का भी शौक नहीं था,ना पड़ने के लिए लाएब्रेरी जाने का ,ना सिनिमा देखने का और ना कहीं घूमने का।

डैडी जी कई दफा हंस कर गियानी जी को कह देते थे ,” गियानी जी यह रेजिस्टर की किया जरुरत पड़ गई, किया आप का कोई बिज़नेस है ?”. गियानी जी जवाब देते ,” साधू सिंह जी ,मैंने शरोमणि कमेटी में इंस्पैक्टर का काम किया है और मैं बहुत से गुरदुआरों का अकाउंट चैक किया करता था और इस बात से ही मैंने घर का अकाउंट रखना सीखा है ,हफ्ते के आखिर में अगर एक पैनी का भी फरक पड़ जाए तो तब तक मैं हिसाब करता रहता हूँ जब तक वोह पैनी का पता न लग जाए कि कहाँ पर फरक पड़ा था “. डैडी जी हंस पड़ते और पीठ पीछे गियानी जी को महाँ कंजूस कह देते।

एक दफा तो ऐसा हुआ ,मैं काम से आया और खाना खाने के लिए मैंने दाल को तड़का लगाना था। मेरे प्याज़ खत्म हो गए थे ,इतना वकत मेरे पास नहीं था कि जा कर दूकान से ले आऊं क्योंकि मैंने वापस काम पर जाना था। मैंने एक प्याज़ गियानी जी की टोकरी से लिया ,तड़का लगाया और खाना खा कर काम पर चले गिया। दूसरे दिन गियानी जी जगह जगह किचन में कुछ ढून्ढ रहे थे। आखर में उन के मुंह से निकल ही गिया ,” कब से ढूंढ रहा हूँ ,एक प्याज़ कम है ,पता नहीं कहाँ चले गिया “. मैंने कहा गियानी जी ,” मैंने लिया था ,क्योंकि मेरे खत्म हो गए थे ,मैं कल को ला दूंगा “. गियानी जी बोले ,” नहीं नहीं वापस देने की कोई जरुरत नहीं, मैं तो सिर्फ सोच रहा था कि पांच प्याज़ थे ,अब चार हैं ,एक कहाँ गिया “. इतना हिसाब गियानी जी रखते थे।

मुझे नहीं पता कि उन की यह आदत अच्छी थी या नहीं लेकिन इतना मुझे पता है कि इस हिसाब किताब का उन को शायद ही कोई फायदा हुआ हो,इस प्याज़ की बात से मैंने बहुत शर्म महसूस की थी और ज़िंदगी में आगे से कभी भी कोई चीज़ नहीं चुराई। यूं तो अब मेरे बहुत दोस्त बन गए थे लेकिन बहादर और लड्डे को मिले बगैर मन को सकून नहीं मिलता था। कई दफा हम एक दूसरे को खत लिखते जिन में मज़ाक की बातें लिखते। मुझे याद है एक दफा मैंने बहादर और लड्डे को एक खत लिखा था जिस में बहुत मज़ाक और हंसी वाली बातें लिखी हुई थीं और जब मैं बर्मिंघम उन दोनों को मिलने गिया तो लड्डे ने मेरा वोह खत निकाला और पड़ पड़ कर हम बहुत हँसे।

गियानी जी की संजमी बातों को ले कर मैंने कभी भी सोचा नहीं था। मेरा उन का साथ तो एक गुरु शिष्य जैसा था ,मैं उन की बहुत इज़त करता था। एक दफा वोह खुद ही मुझे बताने लगे ,गुरमेल !” मेरी कुछ आदतें शायद लोगों को अच्छी ना लगती हो लेकिन जिस मुश्किल दौर से मैं गुज़रा हूँ वोह बताने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा ,वोह तो सिर्फ मेहसूस ही किया जा सकता है। पड़ने में मैं हुशिआर था लेकिन घर की गरीबी मुश्कलें खड़ी कर रही थीं। मेरे बापू खेती करते थे लेकिन जमीन इतनी नहीं थी ,मेरी माँ रूक्मण जिस को हम सभी रुक्को बोलते थे ,विचारी दिन रात काम में मसरूफ रहती थी ।

मेरे दो छोटे भाई थे जो अभी बहुत छोटे थे और एक बहन भी थी। मेरे बापू खाने पीने के सिलसिले में बहुत बेसमझ थे ,लड्डू खाने शुरू करते तो एक सेर ही खा जाते ,जलेबियाँ शुरू की तो खाए ही जाना। एक दफा उस ने इतनी जलेबियाँ खाई कि उस को संग्रिहणी का रोग हो गिया ,इलाज के लिए इतने पैसे नहीं थे और इस रोग से ही वोह हमें अलविदा कह गिया और घर का सारा बोझ मेरे कन्धों पर छोड़ गिया। मैंने मैट्रिक कर ली थी और काम ढूंढने की सोच में था लेकिन बापू की वजह से खेती करनी पडी। मुझे खेती का इतना तज़ुर्बा नहीं था। हल कभी चलाया नहीं था।

जब खेत में हल चलाना शुरू किया तो बैल भाग गए। लोग हंसने लगे कि यह स्कूल का लड़का क्या ख़ाक करेगा खेती !. मैंने भी अब ठान लिया था कि इन गाँव वालों को काम करके दिखाऊंगा। धीरे धीरे काम शुरू हो गिया। बापू ने कभी भी ठीक तरह से काम नहीं किया था ,मैंने खेती की कुछ किताबें पड़ीं ,अपनी खाद बनाने पर जोर दिया ,कई कई दफा हल चलाया ,खेतों में से घास निकाला और खेतों की मट्टी आटे जैसी हो गई। फसलें ऐसी होने लगीं कि लोग हैरान होने लगे। धीरे धीरे छोटे बहन भाई बड़े हो गए ,उन की शादियां कीं।

छोटे भाई खेती करने लग गए थे और मैं भी अब सारा काम उन पर छोड़ कर शरोमणि कमेटी अमृतसर में गुरदुआरों का हिसाब किताब करने के लिए नौकरी ले ली। और कुछ साल काम करके मैंने इंगलैंड आने की सोची। किराए के पैसे पास नहीं थे, रिश्तेदारों ने ज़मीनं बेचने का मशवरा दिया लेकिन उस वक्त एक दोस्त मेरी मदद पे आया जिस ने बगैर किसी लिखत के मुझे पैसे दे दिए और मैं यहाँ आ गिया और मुझे काम भी जल्दी ही मिल गिया। सब से पहले मैंने दोस्त के पैसे वापस किये”

गियानी जी की आँखों में नमी थी और फिर बोले ,” गुरमेल ! गुड ईयर टायर फैक्ट्री में मैं ने चार साल सोला सोला घंटे खाम किया। यों तो आठ घंटे की शिफ्ट होती थी लेकिन जब सोला घंटे काम करना हो तो इस को डब्बल कहते थे ,एक दो डब्बल हफ्ते की तो सभी कर लेते थे लेकिन मैंने पांच पांच डब्बल हफ्ते की लगाईं ,बहुत पैसे कमाए ,इन पैसों से मैंने गाँव में आठ एकड़ जमींन खरीदी ,गाँव में बल्ले बल्ले हो गई। मैं फिर काम पे आ गिया और फिर डब्बल लगानी शुरू कर दी। एक दिन मैं काम पर खड़ा खड़ा गिर गिया और मुझे एम्बुलेंस में हस्पताल ले गए ,दो महीने मैं हस्पताल में रहा ,मेरा शरीर आधा रह गिया था ,धीरे धीरे ठीक होने लगा और अपने आप में सोचने लगा कि अगर मुझे जीना है तो आठ घंटे काम बहुत है ,अगर मरना है तो सोला घंटे करता रहूँ। तंदरुस्त हो कर मैं वापस काम पे चला गिया और इस के बाद कभी भी चालीस घंटे से ज़्यादा काम नहीं किया और अब से सिहत का धियान रखना शुरू कर दिया जिस के लिए किताबें पड़नी शुरू कर दीं”

आज मैं सोचता हूँ कि गियानी जी सिहत का इतना खियाल रखते थे कि वोह मार्क्स ऐंड सपैंसर से बडिआ कुआलिटी की लैटिस और टमाटर खरीदते ,बड़ीआ कुआलिटी की सब्जिआं वूलवर्थ से लेते और फिर चले जाते हीथ ऐंड हीथर्ज़ के हैल्थ स्टोर में( इस का नाम अब हौलैंड ऐंड बैरेट है )। वहां से उन की अपनी ब्रैंड की ब्रैड खरीदते जो सब से बड़ीआ किसम की होती थी और यहां से ही वोह ड्राई फ्रूट ,शहद की पीपी जो तकरीबन दो किलो की होती थी ,बारले ,बड़ीआ किसम के ओटस जिस से ब्रेकफास्ट के लिए दलिआ बनाते ,बहुत से विटेमिन्ज़। और इस के इलावा वोह ब्रैन जो गेंहूँ का छिलका होता है लेते जिस को वोह दलिये में डालते थे। बड़ीआ किसम का फ्रूट लेते थे। और भी बहुत चीज़ें थीं जो वोह इस्तेमाल करते थे।

सिहत के बारे में हर दफा कोई न कोई किताब हीथ ऐंड हीथर से ले आते। मैंने कभी भी उन को डाक्टर के पास जाते नहीं देखा था। आख़री दिन तक जब वोह 90 साल के थे ,उन का ब्लड प्रेशर एक जवान जैसा था और डाक्टर हैरान थे। आख़री दिनों में सब ने उस की बहुत सेवा की थी। आज जब मैं यह लिख रहा हूँ तो उन की याद बहुत आती है। उन की बातें लिखने को तो बहुत हैं, जो लिखा है उन में बहुत सी तो बाद की बातें हैं ,मैं तो सिर्फ जब पिता जी को टिलब्री छोड़ कर वुल्वरहैम्पटन आ रहा था तो मन उदास था और बहुत कुछ दिमाग में घूम रहा था।

आज जब लिखने बैठा तो गियानी जी के साथ बीते दिन याद आ गए.गियानी जी की ज़िंदगी एक संत जैसी थी जिन को ना तो कोई अपने लिए अच्छे कपडे की जरुरत थी ना अच्छे जूतों की। वोह तो अपने परिवार के लिए ही काम करते थे। सोशल वर्क करना उन के लिए एक सेवा होता था। उस समय जो लोग पहले आये थे वोह ज़्यादा तर अनपढ़ ही होते थे और गियानी जी कभी किसी के साथ कभी किसी के साथ वकीलों डाक्टरों के पास दोभाषिए का काम करने जाते ही रहते थे। काम से वापस आ कर किसी के साथ जाना इतना आसान नहीं होता लेकिन वोह किसी को इंकार नहीं करते थे। गुरबाणी में उन का लगाव बहुत होता था। सुबह सवेरे दो वक्त पाठ करते , इस के इलावा गुरबानी की किताबें और भी पड़ते। जब वोह लाइब्रेरी जाते तो कभी कभी मेरे पास वक्त होता तो मैं भी उन के साथ चले जाता।

जसवंत का सुभाव इस के बिलकुल विपरीत था ,ना तो उस को कोई पड़ने की आदत ना उस के कोई धार्मिक विचार थे। उस का तो सिर्फ एक ही शौक था ,बीयर पीना और वोह भी ज़्यादा पीना। वोह पब्ब में एन्जॉय करने के लिए नहीं जाता था बल्कि सिर्फ पीने के लिए ही जाता था और यह आदत कुछ सालों बाद बहुत आगे बड़ गई थी। गियानी जी अक्सर बातें करते करते कहा करते थे कि ,” यह सुभाव आदतें भगवान की ही देन होती है ,मेरी वाइफ सारी उम्र मुझ को समझ नहीं सकी ,जसवंत की १% आदत भी मुझ से नहीं मिलती। गुरु नानक देव जी के दोनों लड़के श्री चंद और लख्मी दास अपने पिता जी को समझ नहीं सके.बस यहाँ परमात्मा रखे वहां ही ठीक है “. भगवान करें ,यहां भी वोह हों शान्ति से रहें।

चलता . . . . . . . . . .

 

5 thoughts on “मेरी कहानी 77

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी आज की किश्त के लिए। ज्ञानी जी का जीवन पढ़कर अच्छा लगा। मनुष्य को जीवन में सादगी और सरलता को धारण करना चाहिए और अपने स्वास्थ्य के प्रति सदैव सजग एवं जागरूक रहा ही चाहिए। अच्छे ग्रंथों का स्वाध्याय करने के साथ ईश्वर और आत्मा को जानने के लिए भी स्वाध्याय व आत्म चिंतन करना चाहिए। धन्यवाद। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , धन्यवाद .दरअसल गियानी जी जैसा इंसान मुझे कभी जिंदगी में नहीं मिला और यही कारण है कि भले ही गियानी जी के सभी बच्चे दूर दूर रह रहे हों लेकिन अभी भी हमारे रिश्ते उसी तरह काएम हैं .

      • Man Mohan Kumar Arya

        प्रतिक्रिया पढ़ी। ज्ञानी जी के बारे में नई जानकारी मिली। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, प्रणाम ! यह किस्त भी बहुत अच्छी लगी।
    पैसे का महत्व वही जानता है जो मेहनत से कमाता है। इसीलिए उसको समझ बूझकर ख़र्च करता है। अज्ञानी लोग इसे कंजूसी कहते हैं पर यह ठीक नहीं।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई ,आप सही कह रहे हैं .किओंकि गियानी जी मुझ से हर बात सांझी कर लेते थे ,इसी लिए वोह मुझे सब बातें बता देते थे ,शाएद मैं भी उन के लिए सही सरोता था .

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