कविता

गहरा तम है…

गहरा तम है, कलुषित जन आराध्य हुए
पथभ्रष्टक अब निपुण जनो के साध्य हुए।
कागा मोती खाये कैसा कलियुग है
मोती खाने वाले तृण को बाध्य हुए॥

सत्यसार की मर्यादा है लहुलुहान
नीति रीति पहुंच गयी जैसे शमशान।
धर्म खून के आंसू रोता रहता है
मानवता ने गंवा दिये हो जैसे प्राण॥

सहमी सहमी सी जगजननी रहती हैं
नन्ही परियां सिसक सिसक सब सहती हैं।
दुख से विह्ल विहान हैं माता की छाती
होकर लहुलुहान कराहती रहती है॥

भूल गये सब आदर्शों के उद्बोधन
कर्तव्यों का कौन करे अब संबोधन।
कौन विदुर की बातों को अब सुनता है
अब घर घर में राज पा रहे दुर्योधन॥

आदर्शों की तिलांजलि देने वालों
यूं ना अपने गौरव पर मिट्टी डालो।
मां का बहता लहु देखकर तो जागो
भौतिकता के धनी कर्म के कंगालो॥

भूल गये तुम मुनियों की माटी है ये
मूल्यों के उत्कर्ष की परिपाटी है ये।
गौतम बुद्ध दधिची की पावन रज है
राणा की गौरव हल्दीघाटी है ये॥

नैतिकता का आभूषण ये हिन्दुस्तान
सांस्कृतिक मूल्यों का मान और सम्मान।
अश्रुपूरित देख रहा है हम सबको
करता हूं विनती लौटा दो स्वाभिमान॥

सतीश बंसल

*सतीश बंसल

पिता का नाम : श्री श्री निवास बंसल जन्म स्थान : ग्राम- घिटौरा, जिला - बागपत (उत्तर प्रदेश) वर्तमान निवास : पंडितवाडी, देहरादून फोन : 09368463261 जन्म तिथि : 02-09-1968 : B.A 1990 CCS University Meerut (UP) लेखन : हिन्दी कविता एवं गीत प्रकाशित पुस्तकें : " गुनगुनांने लगीं खामोशियां" "चलो गुनगुनाएँ" , "कवि नही हूँ मैं", "संस्कार के दीप" एवं "रोशनी के लिए" विषय : सभी सामाजिक, राजनैतिक, सामयिक, बेटी बचाव, गौ हत्या, प्रकृति, पारिवारिक रिश्ते , आध्यात्मिक, देश भक्ति, वीर रस एवं प्रेम गीत.

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