संस्मरण

मेरी कहानी 112

पिछले कांड में मैंने मुक्तसर तौर पर कुलवंत के बारे में लिखा था कि कितना सख्त काम उस ने किया था और आखर में अकांटो टैक्सटाइल में उस को लोअर बैक में दर्द हुआ था। इस फैक्ट्री में बहुत साल उस ने काम किया था और 1998 में उस को यह काम छोड़ना पड़ा था। काम पर सभी सखिओं में आपसी प्रेम बहुत था और सारा दिन काम भी करती और बातें भी करती रहतीं। मेरे काम की शिफ्टें ऐसी थी कि मुझे बहुत वक्त मिल जाता था, इसलिए मैं घर की शॉपिंग भी कर लेता था और कभी कभी खाना बनाकर भी कुलवंत को काम पर दे आता था। मुझे यह बात लिखते हुए कोई शर्म नहीं है कि हम दोनों मिआं बीवी मिलकर खाना बनाते थे, कभी वोह बना लेती और कभी मैं। खाना बनाने में मैं तो पहले से ही बहुत एक्सपर्ट था क्योंकि मैं तो स्कूल के दिनों में भी खाना बना लेता था। जब हमारी शादी हुई थी तो कुलवंत भी तो अभी यंग ही थी, और बहुत खाने बनाने उस को मैंने ही सिखाये थे।

कभी कभी जब मैं खाना बनाकर फैक्ट्री में कुलवंत को दे आता तो उन की कुछ सखीआं भी मेरे खाने का स्वाद चखती तो हैरान हो जातीं और हंस कर कहतीं, “तुमारी सासू माँ का खाना बहुत स्वादिष्ट है” और यह बात कुलवंत घर आकर मुझे बताया करती थी और मैं हंस देता था। सब काम हम मिल जुलकर किया करते थे और ज़िंदगी में हमारा कभी भी कोई ख़ास झगड़ा नहीं हुआ, हाँ छोटी मोटी नोंक झोंक तो हर पति पत्नी में होती ही है। पिछले एपिसोड में मैंने कुलवंत के बारे में लिखा था कि कितनी जगह उस ने काम किया और छोड़ा। इस बीच हमने बच्चों को कैसे संभाला और उन को स्कूल कैसे छोड़ा, जबकि हम दोनों काम करते थे ? तो यह भी एक बड़ी जदोजहद थी। अभी दो दिन पहले ही मैं कुलवंत को पूछ रहा था कि हमने उस वक्त बच्चे किस किस के पास छोड़े थे तो बहुत बातें हमें याद आ नहीं थी रहीं। फिर कुलवंत ने पिंकी को टेलीफून किया कि वोह किन किनके पास उस वक्त रहे थे, तो पिंकी ने बहुत बातें बताईं और हम हैरान हो गए। फिर हम सब हंसने लगे कि पता ही नहीं चला कि कैसे बच्चों की परवरिश हो गई।

जब पिंकी रीटा लेस्टर स्ट्रीट नर्सरी स्कूल में पड़ती थीं तो संदीप तो अभी बहुत छोटा था। जब कुलवंत काम करने का सोचने लगी तो संदीप को सम्भालना मुश्किल था। ज्ञानों जिसका ज़िकर मैं पहले कर चुक्का हूँ और मेरी बहन बनी हुई है, वोह कुलवंत को बोली कि हम बच्चों का कोई फ़िक्र ना करें, वोह संभाल लेगी। इस तरह पहले पहल संदीप ज्ञानों के घर रहने लगा। ज्ञानों की पोती रशपाल जो अब कैनेडा में रहती है, वोह भी इसी प्राइमरी स्कूल में जाया करती थी और ज्ञानों ही उसे छोड़ने और लेने जाती थी। इस तरह काम पर जाने से पहले कुलवंत पिंकी रीटा को स्कूल छोड़ कर संदीप को बहन ज्ञानों के घर छोड़ कर चले जाती। जब मैं काम से आता तो संदीप को वहां से लेकर घर ले आता था। ज्ञानों के एक पोता और पोती और थे जो संदीप की उम्र के ही थे और संदीप उनके साथ खेलता रहता, इसी तरह टंडन की पत्नी तृप्ता के छोटे दो लड़के दीपी और राजू इसी नर्सरी में पड़ते थे। कभी कभी संदीप तृप्ता के घर छोटे दीपी से खेलता रहता।

सभी लोग एक दूसरे की मदद बहुत करते थे लेकिन आज यह नहीं है और जिसने भी अपना बच्चा सम्भालना हो, उसको किसी रैजस्टर्ड डे केअर सैंटर में दाखल करवाना पड़ता है जिसके लिए सौ दो सौ पाउंड हफ्ते के देने पड़ते हैं, लंदन में तो तीन चार सौ पाउंड हफ्ते का देना पड़ता है और इतने पैसे दे कर तन्खुआह से पैसे बहुत कम बच पाते हैं। अभी भी हम बज़ुर्ग लोग अपने पोते पोतिओं की देख भाल करते हैं, उनको स्कूल छोड़ और ले आते हैं लेकिन आगे यह सब बंद होने वाला है और यह तब तक ही है जब तक हम भारत से आये लोग ज़िंदा हैं। यहां के पैदा हुए बच्चे अपने पोते पोतिओं का नहीं करेंगे। हमने अपने पोतों को पाला पोसा है, इस लिए उनका लगाव भी हमारे साथ है, इसी तरह मेरा दोस्त बहादर और उस की पत्नी कमल भी अपने पोते पोती को स्कूल छोड़ और ले आते हैं और इसी लिए बच्चों का भी दादा दादी से लगाव है।

समय एक जगह खड़ा नहीं होता। अब तो इंडिया भी बहुत बदल रहा है। हमारे बच्चे अब धीरे धीरे बड़े हो रहे थे और कुछ देर बाद पिंकी रीटा को प्राइमरी स्कूल मिल गिया जो गेट्स स्ट्रीट में था और इस का नाम था सेंट ऐंड्रिउज़ प्राइमरी स्कूल। यह स्कूल नर्सरी से कुछ नज़दीक था लेकिन ज्ञानों के घर से कुछ दूर था, इस लिए हम संदीप को गौरज़ब्रुक रोड पर जो हमारी रोड के पिछली ओर ही थी, एक औरत के घर छोड़ना शुरू कर दिया, जिस को हम दो या तीन पाउंड हफ्ते के देते थे लेकिन सारा दिन सदीप उसके पास नहीं रहता था क्योंकि मैं काम से आ कर संदीप को ले लेता था। पिंकी एक तो रीटा से एक साल बड़ी थी, दूसरे वोह शुरू से ही अपनी उम्र के लिहाज से बड़ी रही है। वोह स्कूल के बाद रीटा का हाथ पकड़कर घर को चली आती। अगर मैं संदीप को उस औरत के घर से ना ला सकता तो पिंकी रीटा वहां चले जाती और संदीप को लेकर अपने घर आ जाती। चाबी पिंकी की जेब के साथ बाँधी होती थी, इसलिए वोह चाबी से दरवाज़ा खोल कर घर में आ जातीं और संदीप को खाने के लिए कुछ बना कर देती और खुद खाती।

आज यह सब क़ानून के खिलाफ है और पुलिस माता पिता के खिलाफ केस कर सकती है। हमारा छोटा पोता अब 11 साल का है और अभी भी कुलवंत उस को हर सुबह स्कूल छोड़ कर आती है और शाम को उसे लेने जाती है। दो दिन पहले ही हम इस बात को याद करके हंस रहे थे कि कितना अच्छा ज़माना था वोह जब कोई फ़िक्र ही नहीं था क्योंकि क्राइम ना होने के बराबर था। इस स्कूल में दोनों बेटियां स्कूल यूनिफार्म में बहुत सुन्दर लगती थीं और उनकी बातें भी बहुत अच्छी लगती थीं। इस स्कूल में अभी एक साल ही हुआ था कि पता चला कि यह स्कूल बंद हो जाएगा और यह स्कूल कोलमैन स्ट्रीट में शिफ्ट हो जाएगा जो कुछ दूरी पर था। इसी समय गियानी जी और उन का सारा परिवार गोल्ड़थौर्न हिल पर शिफ्ट हो गिया था और उस का बेटा जसवंत भी कोर्ट रोड पर आ गिया था। मकानों की कीमतें भी उस वक्त दिनबदिन बड़ रही थीं। क्योंकि इंडिया जाकर हमारा खर्च काफी हो गिया था और अब हमारे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि नया घर ले सकें। फिर भी हम कोशिश करने लगे कि ज़्यादा से ज़्यादा लोन ले के घर ले सकें।

एक दिन सुबह सुबह ही जसवंत का टेलीफून आया और जसवंत बोला, “गुरमेल ! कोर्ट रोड पर एक घर पर एजेंट फॉर सेल का बोर्ड लगा रहा है, जल्दी आ के मकान देख ले”. मैंने कुलवंत को यह बताया तो वोह गुस्सा हो गई और बोली, “पैसे पास नहीं हैं, घर कैसे लेंगे ?”. मैंने कहा, “ले हो या नहीं, तू मेरे साथ तो चल !” गुस्से में ही कुलवंत मेरे साथ चल पड़ी और हम कोर्ट रोड पर जा पहुंचे। एक गोरे ने दरवाज़ा खोला और हम ने मकान देखने के लिए बोला। गोरा गोरी और उसकी बेटी हम को भीतर ले गए और सारा मकान दिखाया। जब वोह हमें गार्डन में ले के गए तो गार्डन देखते ही कुलवंत ने पंजाबी में मुझ को कहा, “जी घर ले लो”. गर्मिओं के दिन थे और गार्डन फूलों से भरा हुआ था और तीन चार फल के बृक्ष भी थे जिन को ऐपल पेअर और चैरी लगे हुए थे। हमने गोरे को बोल दिया कि हम यह मकान लेंगे और वोह किसी और के साथ सौदा ना करे।

कुलवंत को घर छोड़ कर मैं सीधा बैंक गिया, वहां से कुछ पैसे लिए और एस्टेट एजेंट के दफ्तर में पहुंचा। मैंने उस को बता दिया कि जितने का मकान लगा हुआ है, उसी कीमत पर मैं खरीदुंगा। एस्टेट एजेंट ने मकान मालक को टेलीफून किया कि अगर उसको मंजूर है तो वोह मकान बेच दे। मालक के हां कहने पर एजेंट ने मुझ से डिपॉज़िट के पैसे लिए और रसीद दे दी। एजेंट ने एक वकील रिकमेंड किया। मैं उस वकील के दफ्तर में पहुंचा और सारी डटेल बताई, वकील ने अपनी फीस मुझे बता दी। वकील का दफ्तर वाटरलू रोड पर था और उस का नाम था मिस्टर स्वेन जो कब का यह दुनिआ छोड़ चुक्का है। वहां से निकलकर मैं सीधा बैंक पहुंचा और 90 % लोन लेने को बोला। बैंक मैनेजर ने मुझसे मेरी तन्खुआह के बारे में और बैंक में कितने पैसे थे के बारे में पुछा। तन्खुआह की सलिप्प मेरी जेब में ही थी, और उसको पकड़ा दी। मैनेजर ने मुझ से कहा कि अगर लोन मंजूर हो गिया तो वोह मुझे घर लैटर पोस्ट कर देंगे।

यह काम करके मैं घर आ गिया। अब हम को यही चिंता थी कि लोन मंजूर होगा या नहीं। कुछ दिन तक बैंक से खत आते रहे क्योंकि वोह मेरे बैंक अकाउंट के बारे में जानना चाहते थे और साथ ही मकान के बारे में सर्वेयर की रिपोर्ट जानना चाहते थे और साथ ही काउंसल से पता करना चाहते थे कि इस मकान में कोई ऐसी बात तो नहीं जिसका पब्लिक को कोई नुक्सान पहुँचने वाला हो या मकान में कोई खतरनाक बात हो। कुछ हफ्ते बाद घर के बारे में सभी रिपोर्टें बैंक के पास पहुँच गईं और बैंक का खत मुझे आ गिया कि लोन मंज़ूर हो गिया था। हमारे सर से एक बोझ उत्तर गिया और उस दिन का इंतज़ार करने लगे जब हम को घर मिलना था। वकील का खत भी हमें आ गिया और वोह भी घर के बारे में रिसर्च करने लगा। जिस घर में हम रह रहे थे इसको अब हम ने बेचना था क्योंकि हमारा यह ही प्लैन था कि हमने इस घर के पैसों से बैंक लोन आधा कर देना था और आसान किश्तें कर लेनी थी ताकि हम आसानी से घर चला सकें।

हम ने खुद ही एक बोर्ड पर फॉर सेल लिख कर बोर्ड लगा दिया ताकि सड़क पर जाते लोग समझ सकें कि यह घर फॉर सेल है। यह हमने इस लिए किया, ताकि हम एजेंट का खर्च बचा सकें लेकिन मकान के लिए कोई ग्राहक आ नहीं रहा था। हम ने भी फैसला कर लिया था कि जितनी देर भी लगे, हम अपना घर खुद ही बेचेंगे। नया घर मिलने में काफी हफ्ते लग गए। एक दिन वकील का खत आया कि हम घर की चाबी ले लें। नए घर की नई उमंग, हम ख़ुशी से झूमने लगे। दूसरे दिन बच्चों को स्कूल छोड़ने के बाद मैं और कुलवंत मिस्टर सवेन के दफ्तर में जा पहुंचे। मिस्टर सवेन ने हमें वधाई दी और एक पेपर पर मेरे साइन करवा कर चाबी हमें दे दी। चाबी ले कर हम सीधे नए मकान को आये। ताला खोल कर भीतर आये और देखा कि पहले मालक ने अपना सामान ले जाने के बाद सारे मकान की सफाई की हुई थी, कहीं पे भी कोई निशाँ नहीं था और सारे घर से एअर फ्रैशनर की सुगंध आ रही थी।

हम बाहर गार्डन में गए तो मन खुश हो गिया क्योंकि हमारे घर का गार्डन तो बिलकुल ही अच्छा नहीं था क्योंकि उस वक्त हमें इतना शौक ही नहीं था कि गार्डन में फूल लगाएं, हाँ कुछ मूलीआं, धनिआ और पुदीना ही बीजा हुआ था। कुछ देर बाद हम अपने पहले घर आ गए और बच्चों के स्कूल का इंतज़ार करने लगे। मुझे याद नहीं, शायद इस दिन मैंने काम से छुटी ली हुई थी। स्कूल टाइम पर हमने बच्चों को लिया और उन्हें नया घर दिखाने चल पड़े। जब हम घर में दाखल हुए तो बच्चे देखकर खुश हो गए। संदीप गार्डन में खेलने लगा, तभी गोरी पड़ोसन एलिसन का लड़का क्रिस्टोफर जो संदीप की आयु का ही था, गार्डन की हैज्ज के नीचे से संदीप को बुलाने लगा, “little boy ! you want to play with me ?”. संदीप को अभी इंग्लिश बोलनी आती नहीं थी, इस लिए वोह मुस्कराता ही रहा।

अब हम ने एक वैन हायर की और घर का सामान शिफ्ट करने में मसरूफ हो गए। हमारा प्लैन यह ही था कि नए घर में नया फर्नीचर ही डालेंगे और पुराना वहीँ रहने देंगे और खरीदने वाले को ही दे देंगे क्योंकि उस समय लोग अक्सर सैकंड हैण्ड फर्नीचर ही खरीदते थे। हमने भी इस घर में पुराना फर्नीचर ही लिया था जो अक्सर गोरे और हमारे लोग ऑक्शन से खरीद लाते थे। उस समय पुरानी बैड लोहे के फ्रेम की होती थी, जिस पर स्प्रिंग होते थे। यह बैड बहुत स्ट्रॉन्ग होती थी कभी खराब नहीं होती थी, सिर्फ ऊपर का मैट्रेस ही लोग नया ले लेते थे लेकिन अब नए डिज़ाइन की आणि शुरू हो गई थी जो देखने में भी सुन्दर लगती थी। हम ने घर का सारा फर्नीचर एक फर्नीचर की दूकान पर जा कर ऑर्डर कर दिया जो एक हफ्ते बाद वोह घर छोड़ गए। हमारा सारा सामान इस नए घर में आ गिया था और फर्नीचर आने से सब ठीक हो गिया और एक दिन हम इस में शिफ्ट हो गए। पुराने घर की चाबी हम एक पड़ोसी को दे आये ताकि देख भाल की जा सके। इधर हम घर में शिफ्ट हुए, उधर हमें एक ग्राहक मिल गिया जिस के साथ हमारा सौदा तय हो गिया।

कुछ हफ्ते बाद हमें इस घर के पैसे मिल गए और हमने इस में से कुछ पैसे रखकर, शेष बैंक को पे करके लोन आधा कर लिया। अब हमारे लिए बहुत आसान हो गिया क्योंकि घर की हर महीने जाने वाली किश्त आधी हो गई थी। हमारे लिए हर बात के लिए आसान हो गिया, पिंकी रीटा का स्कूल सिर्फ दो मिनट की दूरी पर था, टाऊन को जाने के लिए बस स्टॉप भी पचीस तीस गज़ की दूरी पर ही था, शॉपिंग सेंटर और सभी एशियन दुकाने पास ही थीं, पोस्ट ऑफिस भी नज़दीक और सबसे बड़ीआ बात डाक्टर की सर्जरी भी नज़दीक थी और सोने पे सुहागा था ज्ञानों और जसवंत का घर नज़दीक होना जो पांच मिनट ही दूर थे। इस घर को इतनी सहूलतें होने के कारण हम यहां से कभी शिफ्ट नहीं हुए, एक दो दफा दूर जाने का सोचा लेकिन इस घर से हमारा मोह इतना हो गिया था जैसे यह घर हमारे पुरखों की जायदाद हो।

चलता. . . . . . . . . . .

5 thoughts on “मेरी कहानी 112

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आज की पूरी कथा पढ़ी। आपने गृहस्थ के उत्तरदायित्वों का जिस प्रकार निर्वहन किया वह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। कथा रोचक एवं प्रेरणादायक है। सादर धन्यवाद एवं नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, मिल-जुलकर काम करने से काम भी प्यार से होता है और आपस में भी प्यार बना रहता है. एक और शानदार व जानदार एपीसोड के लिए शुक्रिया.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन , धन्यवाद . एक बात से हम खुशकिस्मत रहे हैं कि छोटी मोटी नोंक झोंक के सिवाए हमारा कभी झगड़ा नहीं हुआ और हमारी यह बातें बच्चों ने भी अपना ली और सभी अपना अपना घर ठीक से चला रहे हैं .

  • विजय कुमार सिंघल

    यह क़िस्त पढ़कर बहुत आनंदित हुआ. आपने बहुत अच्छा किया जो उस इलाके में ही मकान खरीद लिया जो आपके मित्रों के घर और बच्चों के स्कूल के निकट था. आपको अपनी मेहनत का अच्छा परिणाम मिल रहा था.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई ,धन्यवाद . इस घर को हर एक बात की सहूलत उपलभ्द है . यहाँ तक कि हायेर सैकंडरी सकूल भी दस मिनट की दूरी पर थे और बच्चों को बस पकड़ने की भी जरुरत नहीं पडी . अब इस उम्र में हम एक दुसरे के इतने नज़दीक हैं जैसे हम किसी गाँव में रह रहे हों .

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