संस्मरण

मेरी कहानी 154

पैरिस में बहुत कुछ देखने को था लेकिन हमारे पास वक्त इतना नहीं था, मैं और जसवंत आपस में मशवरा कर रहे थे कि एक दफा हफ्ते भर के लिए फिर यहां आएं और बहुत कुछ देखें। कोच ड्राइवर और उस की सहायक आ गए थे। चर्च देख कर हम सामने के लान में बैठे थे, यहां काफी रौनक थी। कुछ अफ्रीकन लोग वहां बहुत चीज़ें बेच रहे थे। वहां एक पाकिस्तानी ने हमें पहले ही बता दिया था कि इन लोगों से बचें,क्योंकि यह किसी आइटम की कीमत बहुत बताते हैं और इस से इंडिया वाला फार्मूला ही इस्तेमाल करें। कुलवंत ने एक हैंड बैग लेना था। वोह अफ्रीकन भी पीछे ही पढ़ गया था। हैंड बैग की कीमत उस ने बीस यूरो बताई थी, जसवंत उस को कहने लगा,” टेक फाइव यूरो “, वोह हंसने लगा और जब हम ने नहीं लेने का कह दिया तो उस ने छै यूरो का दे दिया। इन लोगों का वास्ता हर दम बिदेशियों से पढता रहता है और अरबी लोगों से यह खूब पैसा बनाते हैं। कोच में हम बैठ गए थे और ड्राइवर हमें फिर वापिस आइफल टावर के पास सीन नदी के पास ले आया और हमें वहां शॉपिंग करने को छोड़, चला गया और दो घंटे बाद आने के लिए बता कर चला गया।

अब हम सीन नदी के साथ दुकानों को देखने लगे ताकि कुछ ख़रीदोफरोख्त हो सके। यह सीन नदी 485 मील लम्बी है। इस के किनारे जगह जगह पेंटिंग करने वाले आर्टिस्ट बैठे थे और बिदेशी उन से अपने पोर्ट्रेट बनवा रहे थे। आर्टिस्ट सामने बैठे आदमी को देख देख कर ब्रश से उन की तस्वीर बना रहे थे और हम देख देख कर हैरान हो रहे थे कि कैनवस पर उन के ब्रश कैसे चल रहे थे। वैसे तो आम दुकाने लंडन जैसी थीं लेकिन यह पेंटिंग करने वाले पहली दफा देखे थे। सीन नदी के ऊपर बने एक पुल पर हम आ गए और नदी में बहती बोट की तरफ देखने लगे, जिन पर सौ के करीब लोग बैठे इस क्रूज़ का मज़ा ले रहे थे और एक औरत हाथ में माइक्रोफोन लिए हर चीज़ की हिस्ट्री बता रही थी। एक के बाद एक बोटें आ जा रही थीं। घुमते घुमते एक चर्च के पास हम आ गए। इस चर्च के इतिहास के बारे में किसी ने हमें कुछ बताया था, जो मुझे अब याद नहीं आ रहा। इस के सामने बने गार्डन में हम आ कर बैठ गए। यह गार्डन बहुत खूबसूरत था। कुछ देर बाद ही एक इंडियन औरतों मर्दों का एक ग्रुप आ गया और आते ही हम से बातें करने लगे। बातें करने पर पता चला कि यह ग्रुप लंदन से ही एक इंडियन ट्रैवल कम्पनी ले कर आई थी और उन का गाइड भी साथ था। इस ग्रुप में ज़्यादा पैंशनर लोग ही थे। अपने लोगों से मिल कर कितनी ख़ुशी होती है, यह बाहर आ कर ही पता चलता है।

चलते फिरते हम थक गए थे और कोच ड्राइवर भी आ गया। कोच में बैठ कर हम हॉलिडे इन् में वापस आ गए और अपने अपने कमरों में कुछ देर आराम किया। आराम करके हम नीचे बार में आ गए। पत्नियों ने सॉफ्ट ड्रिंक लिए, मैं और जसवंत ने एक एक बीयर ली और बातें करने लगे। 9 बजे के करीब कोच ड्राइवर आ गया और सीधे सभी को एक और होटल में ले गया। डिनर लेने के बाद अँधेरा हो चुक्का था और कोच ड्राइवर हमें सीधा सीन नदी पर ले गया। अब हमने भी रिवर क्रूज़ का मज़ा लेना था। एक जगह टिकट लिए और एक बोट में बैठ गए। अब हर तरफ रौशनी ही रौशनी थी। बोट पर बैंच थे और उन पर बैठ कर धीमे धीमे मयूजिक का हम आनंद लेने लगे। बोट चलने लगी थी और जब हम आइफल टावर के नज़दीक आये तो आइफल टावर पर रौशनी देख कर मज़ा आ गया। बहुत सुन्दर नज़ारा था यह। बोट की गाइड गोरी हाथ में माइक पकडे बहुत कुछ बता रही थी जो मुझे अब याद नहीं। आधा घंटा हम बोट पर रहे और फिर नदी के किनारे सैर की। यह जगह दिन के वक्त भी हम ने देखि थी लेकिन रात को तो स्वर्ग्य नज़ारा ही था। काफी रात हो चुक्की थी और कोच ड्राइवर हमें होटल में छोड़ कर चले गया और सुबह दस बजे तैयार रहने को हमें बता गया।

सुबह आठ बजे उठ कर हम ने स्नान किया और कपड़े बदल कर नीचे आ गए और सीधे डाइनिंग हाल में प्रवेश किया। हमारे साथी सब गोरे ही थे और हम चार ही इंडियन थे। अपनी अपनी प्लेटें भर कर हम एक टेबल पर बैठ गए और ब्रेकफास्ट मज़े से खाया। दस वज चुक्के थे और बाहर खड़ी कोच में हम बैठ गए। पैरिस से तकरीबन बीस मील दूर कोच ड्राइवर हमें लूई 14 के पैलेस को ले गया। इस के इतिहास के बारे में ज़्यादा याद नहीं रहा लेकिन कोच ड्राइवर की साथी गोरी ने बताया था कि बादशाह लूई के अस्तबल में सिर्फ घोड़ों के लिए ही तीस हज़ार नौकर काम करते थे। इस पैलेस की ख़ूबसूरती लिखने से बताई नहीं जा सकती, यह सिर्फ देख कर ही महसूस की जा सकती है। इस पैलेस में टिकट ले कर भीतर जाया जा सकता है। जिस तरह अंग्रेजों के नीचे बहुत देश थे, इसी तरह फ्रांस की भी बहुत बस्तियां होती थीं। मैंने इंडिया में भी पुराने बादशाहों के महल देखे थे लेकिन लूई के महल से कोई मुकाबला नहीं था। हर जगह आर्ट ही आर्ट दिखाई देता था। महल का जो बाग़ है, उस को पैदल चल कर नहीं देखा जा सकता। वहां बहुत से फ्रैंच शानदार घोड़े बघ्घी ले कर खड़े थे। उस को पैसे दे कर हम बघ्घियों पे सवार हो गए और वोह हमें पैलेस गार्डन दिखाने लगा। गार्डन इतना बढ़िया था कि इस को बताना मुश्किल है। एक जगह बहुत से फाउंटेन थे, इन का आर्ट देखते ही बनता था। इतने बढ़िया थे कि यह मेरे मकतशिक में जैसे प्रिंट ही हो गए हों। कोच ड्राइवर ने बताया था क़ि बादशाह को हर रोज़ नए फूल चाहिए थे, और इस के लिए दुनिआं के हर कोने से ऐसे फूल लाये और उगाये गए थे कि उस को हर रोज़ नया फूल भेंट किया जाता था।

तकरीबन चार बजे कोच ड्राइवर ने हमें कोच में बैठने को बोल दिया और अब हम ने वापस इंगलैंड आना था। कोच में बैठे अब हम कैले की ओर जा रहे थे। तीन घंटे बाद हम कैले बन्दरगाह पर पहुँच गए। फैरी पर सवार होने के लिए हमारी कोच एक लाइन में कोचों की कतार में धीरे धीरे चल रही थी। आधे घंटे में हम फैरी पर सवार हो गए थे। कोच से बाहर निकल कर हम मेंन बिल्डिंग में आ गए और ड्यूटी फ्री चीज़ों की ओर झाँकने लगे कुलवंत और बलविंदर ने कुछ मेक अप्प की चीज़ें जैसे शनेल सैंट बगैरा लिये और हम ने गिफ्ट देने के लिए कुछ लिकर की बोतलें खरीदीं जो हमें पता था कि इंगलैंड में महनघी थीं। चाय का कप्प कप्प पी कर हम ऊपर के डैक पर आ कर बैठ गए। हमें देख कर एक इंडियन कोच ड्राइवर हमारे पास आ कर बैठ गया जो किसी ग्रुप को ले कर आया हुआ था। उस से बातें करके पता चला कि वोह भी मेरी बस कम्पनी के कॉवेन्ट्री गैरेज में काम कर चुक्का था। बहुत से ड्राइवर हमारी गैरेज से कॉवेन्ट्री काम करने जाया करते थे और यह कोच ड्राइवर उन लोगों को जानता था। अब हम बसों की बातें करने लगे थे और बातों ही बातों में हम डोवर पहुँच गए। बाहर आते ही इमिग्रेशन वाली गोरी आ कर बोली,” PASSPORT PLEASE !”, सब ने पासपोर्ट हाथों में ले कर हाथ ऊंचे कर दिए। थैंक यूं कह कर गोरी उत्तर गई और हमारी कोच हमारे शहर की ओर मोटर वे पर दौड़ने लगी। रात के एक बजे कोच हमारे टाऊन पहुँच गई। हर एक को ड्राइवर घर छोड़ कर गुड़ नाइट कह के चला गया और हम भी घर आते ही खुआबगाह में चले गए।

सुबह देर से उठे, पोता देख कर मुस्कराने लगा और जसविंदर ने चाय बनाई। चाय पी कर मैं तो लायब्रेरी की तरफ रुखसत हो गया। दिन बीतने लगे, जसविंदर काम पर जाने लगी। कुछ महीने बाद इंडिया से वैडिंग कार्ड आ गया। छोटे भाई निर्मल के छोटे बेटे मंदीप की शादी थी और हम को बुलाया था। ख़ुशी का अवसर था और हम ने तैयारी कर ली। जसविंदर और संदीप ने काम पर छुटीयों का इंतज़ाम करना था। शादी पर हाजर होने के लिए वक्त कम था क्योंकि लड़की वाले ऑस्ट्रेलिया से आये हुए थे और लड़की और उन के माता पिता ने वापस ऑस्ट्रेलिया जाना था। संदीप और जसविंदर ने छुट्टियों का इंतज़ाम कर लिया और हम ने भी अपने सूटकेस तैयार कर लिए। टिकटें लीं, वीज़े लगवाये और इंडिया जा पहुंचे। कितना समय बदल गया है। शाम को एयरपोर्ट पर पहुँच कर ऐरोप्लेन में बैठ जाओ और सुबह इंडिया पहुँच जाओ, यह तो पंजाब से मुंबई ट्रेन के सफर से भी बहुत कम समय लगता है। कोई समय था मेरे पिता जी को इंडिया से अफ्रीका जाने या आने को बीस पचीस दिन लग जाते थे। फगवाड़े से ट्रेन में पिता जी बैठ जाते थे और मुंबई सीपोर्ट पहुँचने में ही तीन दिन लग जाते थे और आगे शिप में बहुत दिन लग जाते थे।

उन दिनों यह यात्रा इतनी मुश्किल होती थी कि इस को वोह ही जानते होंगे जिन्होंने वोह दिन देखे होंगे क्योंकि उस समय अफ्रीका को लोग अक्सर समुंद्री जहाज़ में ही जाते थे । मेरे पिता जी हर दो साल बाद अफ्रीका से इंडिया आते रहते थे और दो दफा जो यात्रा उन्होंने की होंगी मैं सिर्फ उस को महसूस ही कर सकता हूँ। पंजाब में बाढ़ की तबाही बचपन में दो दफा मैंने देखि थी, एक थी 1948 में जब आज़ादी के बाद पंजाब से सभी मुसलमान पाकिस्तान को चले गए थे और दुसरी दफा 1955 में जब मैं शायद सातवीं आठवीं कक्षा में हूँगा। 1948 में तो मैं सिर्फ पांच साल का ही था और बस इतना ही याद है कि बाढ़ का पानी हमारे गाँव के बीच आ पहुंचा था, हालांकि हमारा गाँव कुछ ऊंचाई पर है लेकिन 1955 का वोह सीन मुझे कभी भूला नहीं। पिता जी ने जालंधर के एक ट्रैवल एजेंट हरी सिंह ऐंड संज से अफ्रीका के लिए सीट बुक करा ली थी, तभी बारिशें होने लगी। कई दिन तक मूसलाधार बारिश होती रही, जिस के कारण गाँव के इर्द गिर्द पानी ही पानी था। उस समय यह भी मैंने देखा था कि पिता जी जब भी अफ्रीका को जाते या वापस आते तो उन के पास बड़े बड़े लकड़ी के सूटकेस होते थे और यह बहुत भारी होते थे। मुझे याद है, आते समय उन के बक्सों में अनब्रेकेबल करौकरी होती थी, जिन में छुरी काँटे कच्च के ग्लास और प्लेटें बगैरा और एक या दो रैली बाइसिकल भी ले कर आते थे जिन के हैंडल के नीचे डाइनमो लाइट लगी होती थी। बाद में तो वे ट्रांजिस्टर रेडियो भी लाते थे। ऐसी चीज़ें इंडिया में उस वक्त मिलती नहीं थी। हमारे लिए एक दफा माऊथ ऑर्गन ले कर आये थे और रोमर घड़ियाँ तो वे हर दफा लाते थे।

1955 में गाँवों में कोई सड़क नहीं होती थी। बारिशों की वजह से दूर दूर तक पानी ही पानी था और फगवाड़े को इतना सामान ले कर जाना भी एक समस्या थी। दो मज़दूर साथ लिए गए थे और उन के सरों पर लकड़ी के बॉक्स रखे हुए थे। जीटी रोड जो हमारे गाँव से तीन मील दूर था, पैदल ही जाना था। जब माधो पुर कैल, जो छोटी नदी थी,पर पहुंचे तो पुल के दोनों तरफ बहते पानी के कारण जो रास्ता था, उस में बड़े बड़े गड़े पड़ गए थे और बीच खड़े पुल के ऊपर से पानी तेजी से बह रहा था। पुल पर एक गायें खड़ी थी जो बेबस थी, कोई उस को बचा नहीं सकता था और हमारे देखते ही देखते गाये पानी में बह गई थी । यह देख कर सब पीछे मुड़ आये थे । फिर मशवरा किया गया कि राम गढ़ की ओर जाया जाए और हुशिआर पुर रोड पर चढ़ कर कोई बस या तांगा लिया जाए। सारा सामान सरों पर उठाये राम गढ़ से हो कर हुशिआर पुर रोड पर जा पहुंचे और जा कर पता चला कि सड़क रहाना जटा के नज़दीक एक पुल के ऊपर से पानी बहने के कारण कोई बस नहीं चल रही थी। कुछ देर बाद एक तांगा आता दिखाई दिया जो शायद नज़दीक से ही आया होगा और उस पे दो सवारियाँ ही थी। सारा सामान उस में रखा और पिता जी ने मज़दूरों को पैसे दे कर हम सब को वापस मोड़ दिया। इस के बाद कई हफ्ते बाद पिता जी का खत अफ्रीका से आया और उस में सारी डीटेल में लिखा था कि ट्रेन के सफर के दौरान उन्हें कितनी ट्रेनें बदलनी पढ़ी थी और यह वाक़ायत किसी फिल्म से कम नहीं था और आज का सफर कितना मज़ेदार हो गया था।

इंडिया अमृतसर एयरपोर्ट से बाहर निकल कर एक टैक्सी ली और बस अड्डे पर पहुँच गए। सूटकेस बस में रखे और फगवाड़े का रुख किया। यह बस भी क्या थी, बस एक खटारा ही था। जिस सीट पर हम बैठे थे, उस के पास की खिड़की के शीशे खड़क खड़क कर अपने आप खुल जाते थे। बार बार मैं बन्द करता और वोह फिर खुल जाते। खीझ कर मैंने जोर से खिड़की बन्द की और सारा शीशा ही उखड़ कर मेरे ऊपर आ गया और बाहर से धूल बस में आने लगी। कंडक्टर, बस ड्राइवर के साथ बातों में मसरूफ था। जल्दी ही फगवाड़े के नज़दीक हम पहुँच गए। अपना सामान संभालते संभालते बस अड्डे पर पहुँच गए। सामान बस से उतार लिया और राणी पुर जाने के लिए पता चला कि अब टैक्सीयाँ भी चलने लगी थीं। एक ही टैक्सी उस वक्त वहां थी और इसे देख कर ही घिन सी आने लगी लेकिन हम ने सिर्फ पांच छै मील दूर ही जाना था, इस लिए इसमें बैठ गए। इसकी सीटें फटी हुईं, दरवाजों पर जंग लगा हुआ और वोही बस वाली मुसीबत अब थी। टैक्सी ड्राइवर ने मुझे पहले बता दिया कि मैं दरवाज़े को पकड़ कर रखूं क्योंकि यह भी बस के शीशे की तरह खड़ खड़ करके खुलने का संकेत दे रहा था। इतनी बड़ी बात तो यह नहीं थी लेकिन मन ही मन में हंसी आ रही थी कि शुकर था कि आखिरकार हम राणी पुर पहुँच ही गए। कहते हैं ना, all is well, that ends well, घर वालों के साथ कुछ ही देर बाद इत्मीनान से हम चाय की चुस्कियाँ लेते हुए हंस हंस बातें कर रहे थे।

चलता. . . . . . . . . .

11 thoughts on “मेरी कहानी 154

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरा वृतांत पढ़ा। रोचक एवं ज्ञानपूर्ण पूर्ण है। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यावाद ,मनमोहन भाई .

  • priy bhaaiji / aapki lekhni ka jawab nahin / baithe baithe aapne kitane rochak tarike se hamen paris ghuma diya / andekhe purane bharat ki tasweer bhi aapne dikha di aur aaj ke bharat ki awyawasthaon ka bhi bakhubi jikr aapne kiya hai / bahut hi rochak tarike se sansmaran likha hai aapne / dhanyawaqd !

  • priy bhaaiji / aapki lekhni ka jawab nahin / baithe baithe aapne kitane rochak tarike se hamen paris ghuma diya / andekhe purane bharat ki tasweer bhi aapne dikha di aur aaj ke bharat ki awyawasthaon ka bhi bakhubi jikr aapne kiya hai / bahut hi rochak tarike se sansmaran likha hai aapne / dhanyawaqd !

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      राजकुमार भाई , धन्यवाद . बस यह भूली विसरी यादें ही हैं . मुझे भारत में बताये १९ साल ज़ादा मजेदार लगते हैं .

  • विजय कुमार सिंघल

    हा हा हा हा हा … भाई साहब, यूरोप से हमारे भारत महान की तुलना मत कीजिये. यहाँ ऐसी ही बसों, टेक्सियों, ट्रेनों और टेम्पुओं में सफ़र करना हमारी किस्मत में लिखा है. पता नहीं यह वातावरण कब बदलेगा.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      हा हा ,विजय भाई, इन बातों को याद करके मुझे लुत्फ़ सा आता है क्योंकि मेरा बचपन और जवानी इन्हीं बातों में गुज़री है .मैंने तो इतना देखा है किः आज के बच्चे यह महसूस भी नहीं कर सकते . एक बात है किः भारत बहुत तेज़ी से बदल रहा है .मुझे यकीन है किः एक दिन ऐसा आएगा जब यूरप के लोग काम की तैलाश में इंडिया और चीन की ओर झांकेंगे .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    जेहन को दाद देती हूँ …..

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद विभा बहन .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, इस कड़ी में तो आपने कहां-कहां की सैर करवा दी है. हर सैर का एक अलग अंदाज़ और बारीकी तारीफ़ेकाबिल है. कहानी की एक और रोचक कड़ी के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद लीला बहन ,इस को क्या कहेंगे ? all in one ?

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