संस्मरण

मेरी कहानी 163

सुबह देर से उठे और चाय का इंतज़ार करने लगे जो कुलवंत और गियानों बहन तैयार कर रही थीं। हर रात को सो कर हम एक ही कमरे में बैठ कर चाय पीते थे। बात हम कर रहे थे लिज़बन के सफर की, तो जसवंत बोला,” मामा ! कल तो मज़ा ही आ गया, पुर्तगाल के इतिहास ने तो आँखें खोल दी “, मैंने कहा,” जसवंत ! वाकई गोरे लोग ऐसे ही नहीं हॉलिडे पर जाते रहते हैं,इस से बहुत नॉलेज मिलती है, हम लोग तो रिश्तेदारियों में ही ज़िन्दगी बिता देते हैं “, चाय तैयार हो गई थी और हम पीने लगे। काफी देर तक बैठे बातें करते रहे और जब बात हुई ब्रेकफास्ट की कि कहाँ खाना था तो कुलवंत कहने लगी कि बाहर खाते खाते मन उभ सा गया है और अगर आप शॉप से आलू पिआज ला दें तो आज पराठे बनाये जाएँ। मैंने कहा कि हमारे पास तवा तो है नहीं था। कुलवंत बोली कि पराठे वोह फ्राईपैन में बना लेंगी। आइडिया हम को पसंद आया। कोई एक घण्टे बाद तैयार हो कर मैं और जसवंत शॉपिंग के लिए बाहर आ गए। ग्रॉसरी स्टोर कोई ज़्यादा दूर नहीं था, जल्दी ही हम इस स्टोर में आ गए। स्टोर कोई इतना बड़ा नहीं था लेकिन हर चीज़ वहां थी। जसवंत मीट का बहुत शौक़ीन है। मीट सैक्शन की ओर देख कर जसवंत बोला,” मामा ! आज शाम को मीट चावल बनाएं ?”, मैंने कहा,”अगर जी चाहता है तो ले चलते हैं “, हम ने आलू पिआज, कुछ सब्ज़ियां और कुछ और फ़ूड बास्केट में रख ली और जब हम मीट सैक्शन की ओर गए तो पुर्तगीज़ लड़कियां इंग्लिश नहीं बोलती थीं। मीट तो वहां बहुत प्रकार का था लेकिन जिस तरह का हम चाहते थे, वोह कटा हुआ नहीं था। जसवंत ने उस लड़की को इशारों से समझाया और वोह मुस्करा कर समझ गई और उस ने उसी तरह काट दिया जैसा हम चाहते थे। दो शॉपिंग बैग भर कर हम वापस कमरे में आ गए। कुलवंत और गियानों बहन अपने काम में मसरूफ हो गईं। आलू उबलने रख दिए गए और पिआज काटने शुरू हो गए। आटा चावल हम इंगलैंड से ही ले आये थे। पराठे बनाने में कोई दिकत पेश नहीं आई क्योंकि फ्राईपैन काफी बड़ा था।
जल्दी ही आलू वाले पराठे बन गए और सभी बैठ कर खाने लगे। बटर के साथ पराठों का मज़ा आ रहा था। चाय भी बन रही थी। खाते खाते बातें भी कर रहे थे कि घर से आटा और मसाले ला कर हम ने बहुत अच्छा किया। अच्छे अच्छे खाने होटलों में खाये थे लेकिन उन खानों का पराठों से कोई मुकाबला नहीं था। बिदेशी खाने जितने मर्ज़ी खा लें लेकिन अपने देसी खानों से इस का कोई मुकाबला नहीं है और ख़ास कर पराठे ?, हम हंसा करते थे कि पराठों में तो घास भी भर लें, वोह भी स्वादिष्ट लगेंगे। जवानी के दिनों में मैं और कुलवंत पराठों में किया किया डाला जाए, यह ही तजुर्बे करते रहते थे, आलू वाले पराठे, गोभी वाले, पिआज वाले, जीरे वाले, सूखे धनिये वाले, सोया वाले, पिछले दिन की बची हुई दाल सब्ज़ी वाले, और ना जाने इन पराठों में किया किया डालते रहते थे। इंगलैंड में शुक्रवार का दिन ख़ास होता है, इस दिन आम लोग बाहर का खाना खाते हैं, ख़ास कर फिश ऐंड चिप्स की दुकानों पर लंबी लंबी कतारें लगी होती हैं, मैकडॉनल्ड,के ऍफ़ सी और न जाने कितने बिदेशी खानों की दुकानों पर लोग जाते हैं। ऐसा नहीं है कि हम नहीं खाते लेकिन बहुत कम। कुलवंत मज़ेदार पराठे बनाती है और मज़े से दही और लस्सी के साथ हम बूढ़ा बूढ़ी खाते हैं और साथ में बातें भी किये जाते हैं,” आ हा, मज़ा ही आ गया, आज तो बई बह जा बह जा हो गई “, और आज हम पुर्तगाल में बैठे आलू,पिआज और मसाले वाले पराठे खा रहे थे। चाय भी बन गई थी और गियानो बहन ने कपों में डाल दी थी।
चाय पीते पीते बात फिर लिज्बन की शुरू हो गई। ” मामा ! चैस्ट नट बहुत मज़ेदार थे “, जसवंत बोला। अब सभी चैस्ट नट्स के बारे में बातें करने लगे। दरसअसल लिज़बन सुकेयर में जब हम घूम रहे थे तो मज़ेदार महक सी आ रही थी। यह तो ज़ाहर था कि यह किसी खाने की महक थी लेकिन किया, यह किसी को मालूम नहीं थी। यह सुकेयर काफी बड़ा है। घुमते घुमते जब हम दुसरी ओर गए तो एक पुर्तगाली अपने स्टाल पे कोलों पर चैस्ट नट्स भून रहा था। देख कर ही मुंह में पानी आ गया क्योंकि यह चैस्ट नट्स मेरे फेवरिट हैं। दस बारह फ़ीट लंबा उस का स्टाल था और उस पर एक खुला ओवन था, जिस में लकड़ी के कोयले थे जो जलते हुए लाल हो रहे थे। इन कोयलों के ऊपर तार का बना हुआ बड़ा सा फ्रेम था, जिस के ऊपर चैस्ट नट्स रखे हुए थे और कोयलों की आग से भून कर काले हो गए थे। लोग इर्द गिर्द खड़े यह चैस्ट नट्स खरीद रहे थे। वोह पुर्तगाली पेपर से बनी हुई कोन में चैस्ट नट्स डाल कर ग्राहकों को सर्व कर रहा था। हम ने भी एक एक कोन ले ली और एक जगह बैंचों पर बैठ गए और चैस्ट नट्स को छील छील कर खाने लगे। इन का स्वाद कुछ कुछ उबले हुए संघाड़े जैसा है और थोह्ड़ा शकरकंदी से भी मिलता है। भारत के कई प्रांतों में रेहडीओं पर कुछ कच्ची मूंगफली भून कर बेचते हैं जो बहुत स्वादिष्ट लगती है, बस इसी तरह ही यह चैस्ट नट्स भून कर बेचते हैं। चैस्ट नट्स की जली हुई छील से हमारे हाथ काले हो गए थे। पुर्तगाली ने टिशू पेपर दे दिए थे और उस से हमने हाथ साफ़ कर लिए।
चैस्ट नट्स की बात करते करते कुलवंत कुछ भावुक हो गई और उस पुर्तगाली के बारे में बात करने लगी, जो एक दीवार के साथ बैठा था और कुछ लोग उस के आगे पैसे रख कर चले जाते थे । हम सब ने उस को देखा और देख कर मन रोने को हो रहा था। ऐसा चेहरा हम ने ज़िन्दगी में कभी नहीं देखा था। कुलवंत की आँखों में आंसू थे और बोल रही थी,” भगवान् ने इस को ऐसी सजा क्यों दे दी “, इस पुर्तगाली के बारे में लिखना ही दुखदायक है। दिल पर पत्थर रख कर अब इस को लिखूंगा। उस का चेहरा ऐसा था, जैसे एक हाथी का चेहरा हो और आँखें भी इस रोग के कारण हाथी जैसी हो गई थी। कभी कभी वोह अपनी आँखों के ऊपर बड़ा हुआ मांस उठा कर देखता तो हम को डर लगता। नांक बिलकुल दिखाई नहीं देता था। हमारे सामने ही उस ने कुछ खाना शुरू किया और वोह विचारा ऐसे अपने मुंह पर बड़े हुए मांस को ऊपर उठा कर खा रहा था जैसे हाथी अपनी सूंड से मुंह में कुछ डालता है। ऐसा इंसान हम किसी ने भी देखा नहीं था। वोह विचारा बैठा ऐसा लगता था जैसे मुंह नीचे करके बैठा हो, लगता था उस का सर और मुंह उस को बहुत भारी लगता होगा। जसवंत ने इतने साल हस्पताल में काम किया था लेकिन उस ने भी ऐसा इंसान पहले कभी नहीं देखा था। वैसे जसवंत ने कहा कि यह बहुत बड़ा ट्यूमर था जिस का ऑपरेशन करना भी बहुत मुश्किल था। कुलवंत ने उस के आगे पांच यूरो रख दिए लेकिन जब हम वहां से चल दिए कुलवंत फिर पीछे मुड़ आई और पांच यूरो और उस के आगे रख आई। पैसे तो लोग दे रहे थे लेकिन उस के रोग को दूर करने की किसी में शक्ति नहीं थी। अब फिर उसी बात को ले कर चर्चा होने लगी। गियानो बहन बोली,” यह तो कोई पिछले जनम के कर्मों का फल ही होगा “, मैं तो चुप था, किया बोलता लेकिन कुलवंत इस को बहुत सीरीअस्ली सोच रही थी और बोल रही थी कि इस से तो भगवान् मौत ही दे दे। इस परकार् के जीने से तो बेहतर यही होगा। हमारे कुछ कहने से किया होगा और मैं उठ कर कपडे बदलने की सोचने लगा। जसवंत और गियानो बहन भी अपने कमरे की ओर जाने लगे। आधे घण्टे में हम कपडे बदल कर गियानो बहन के कमरे में चले गए और पुछा कि आज का किया प्रोग्राम था। जसवंत बोला, ” आज, एक तो संतरों के बाग़ देखते हैं और दूसरे लिडल स्टोर को चलते हैं ताकि कुछ और शॉपिंग कर लें क्योंकि अब हम ने कहीं दूर तो जाना नहीं, बस अब जो वक्त बचा है, यहीं अलगाव में ही बिताते हैं “, कमरे बन्द करके हम नीचे आ गए। कार नज़दीक ही खड़ी थी, इस में बैठ कर अलगाव से बाहर जाने के लिए चल पड़े।
जैसे ही हम नीचे आये और कर में बैठने लगे तो एक गोरा जो पहले भी मिलता रहता था, उस ने हमें हैलो बोला और बातें करने लगे। बातों बातों में हम ने बताया कि हम लिज़बन हो कर आये थे, तो वोह कहने लगा कि वोह तो वहां बहुत दफा लिज़बन जा चुक्का था और हमें कहा कि हम सैविल (seville) भी हो कर आएं और यह सपेन की एक बहुत ही खूबसूरत सिटी है और वहां का कैथीड्रल देख कर आएं। सैविल एक टूरिस्ट डैस्टिनेशन है। फिर फ़ूड की बातें होने लगीं तो उस ने एक होटल का नाम बताया, यहां का पीरी पीरी चिकन बहुत मशहूर है और बहुत मज़ेदार है। जब कोई हॉलिडे के लिए आता है तो ज़्यादा बातें फ़ूड और इतिहासिक जगह देखने की ही होती है और गोरे तो बहुत मज़े करते हैं, जगह जगह डिनर ऐंड डांस बार में जाना ही इन की ऍन्जॉएमेंट होती है। जितनी देर गोरा हमारा पास खड़ा रहा, वोह रैस्टोरैंट और तरह तरह के ड्रिंक की बातें ही करता रहा और आखरकार उस को बाई बाई करके हम कार में बैठ गए और संतरों के बाग़ देखने चल पड़े। हमें दूर नहीं जाना पड़ा, बस आधे घंटे में ही हम एक orrange grove के पास खड़े थे, जिस के गेट पर एक पुर्तगाली संतरे बेच रहा था और लोग खरीद रहे थे और ऑरेंज जूस भी पी रहे थे। दूर दूर तक संतरों के बृक्ष ही बृक्ष दिखाई दे रहे जिन का कोई अंत दिखाई नहीं देता था। हम ने उस पुर्तगाली को इस बाग़ के भीतर जाने के लिए पुछा लेकिन वोह इंग्लिश नहीं बोलता था, हमारी बात वैसे वोह समझ गया और हमारे हाथों में कैमरे देख कर हमें इछारा कर दिया कि हम जा सकते थे। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गए, दोनों तरफ बृक्षों पर मोटे मोटे संतरे लटक रहे थे। संतरों का यह बाग़ कितना बड़ा होगा, इस का अंदाजा हम नहीं लगा सकते थे क्यों कि दूर दूर तक संतरे ही संतरे दिखाई देते थे। इस में खूबसूरती यह थी कि लाइनों में ऐसे थे जैसे खेत में कोई फसल कतारों में बीजी गई हो और इन लाइनों के बीच में चार पांच फ़ीट चौड़ा रास्ता बना हुआ था और यह रास्ता संतरे तोड़ने के लिए रखा गया था। मीलों तक संतरे ही संतरे दिखाई दे रहे थे। हमें पता नहीं यह फार्म एक फार्मर का ही होगा या कितने मालकों का होगा। आगे गए तो कुछ औरतें मर्द लकड़ी की सीडीआं लगा कर संतरे तोड़ रहे थे और बक्से भर भर कर कुछ दूर खड़े ट्रक में डाल रहे थे। ज़्यादा दूर जाने का तो हमें फायदा कोई नहीं था, इस लिए एक जगह खड़े हो कर हम ने कुछ फोटो खींची। कुलवंत और गियानों बहन एक हाथ में बृक्ष की एक टहनी जिस पर संतरे लगे हुए थे, पकड़ कर फोटो खिंचवाई। इन बृक्षों में ख़ास बात यह थी कि इन में संतरों की कई कतारें ऐसी थीं जिन में बहुत छोटे छोटे बृक्ष थे और संतरों से लदे हुए थे और कई किसम के थे।
फोटो ले कर हम वापस आ गए और उस पुर्तगाली से संतरे खरीदे। दो यूरो का एक बैग भर गया। बैग हम ने कार में रखा और आगे चल दिए। दूर दूर तक बाग़ ही बाग़ दिखाई देते थे और कुछ कुछ दूरी पर सड़क के दोनों तरफ पुर्तगाली संतरे बेच रहे थे। इतने संतरों के बृक्ष मैंने कभी नहीं देखे थे। काफी देर हम घुमते रहे और फिर पूछते पूछते हम लिडल स्टोर में आ गए। यह बहुत बड़ा ग्रॉसरी स्टोर था। अब तो इंगलैंड में भी बहुत लिडल स्टोर खुल गए हैं और महँग़ाई बढ़ जाने के कारण लोग यहां बहुत शॉपिंग करते हैं क्योंकि इस स्टोर में चीज़ें काफी सस्ती हैं। दस साल पहले जब इंगलैंड में लिडल स्टोर खुलने लगे थे तो इस में इतने लोग जाते नहीं थे क्योंकि अक्सर लोग समझते थे कि इस स्टोर में चीज़ें घटिया कुआलिटी की होती हैं लेकिन अब लोगों का नजरिया बदल गया है, शायद महँग़ाई के कारण। जो जरूरी चीज़ें थीं वोह हम ने ले लीं। ज़्यादा चीज़ों की हम को अब जरुरत नहीं थी क्योंकि इंगलैंड वापस आने को भी कुछ ही दिन रह गए थे। शॉपिंग करके हम वापस होटल में आ गए। गियानो बहन और कुलवंत अपने लिए रात का खाना बनाने में मसरूफ हो गईं और जसवंत का खियाल था कि हम दोनों बाहर खाएं।
शाम को जब अँधेरा होने लगा तो मैं और जसवंत बाहर को चल दिए। सब होटलों में रौशनियां थीं लेकिन ग्राहक ज़्यादा दिखाई नहीं देते थे। सुबह गोरे ने जो पुर्तगाली होटल बताया था, हम उस में चले गए लेकिन वहां कोई भी ग्राहक नहीं था। यह देख कर हम को हैरानी हुई। जब हम भीतर गए तो एक पैंतीस चालीस वर्ष का लड़का आया और आते ही हम को सत सिरी बोला। हमें हैरानी और ख़ुशी हुई। उस लड़के ने हमें बीयर का पुछा। हमारे हाँ कहने पर वोह तीन ग्लास ले आया। दो हमारे लिए और एक अपने लिए और हमारे साथ ही बैठ गया। क्या खाना था, उस के पूछने पर हम ने पीरी पीरी चिकन ऐंड राइस बोल दिया। ” आप बियर का मज़ा लें और हम आप के लिए बिलकुल ताज़ा चिकन बनाएंगे “, बोल कर वोह किचन में चला गया और वहां खड़ी एक लड़की को पुर्तगाली भाषा में समझ दिया और हमारे साथ बैठ गया। फिर वोह बोलने लगा कि वोह तो इंडिया जाता ही रहता था क्योंकि उस के बहुत से रिश्तेदार गोआ में थे। उस ने यह भी बताया कि वोह तो जालंधर भी जा चुक्का है। सारी बातें तो मुझे याद नहीं लेकिन दो घँटे वोह हमारे पास ही बैठा बियर पीता रहा और इंडिया की बातें करता रहा । जब खाना तैयार हो गया तो वोह खुद ही प्लेटें भर के हमारे सामने रख गया और खुद उस लड़की से बातें करने लगा। खाना बहुत अच्छा था, मज़े से हम ने खाया और जब काउंटर पे पैसे देने लगे तो सारे खाने की कीमत सिर्फ बारह यूरो थी। पैसे देते समय जसवंत उस लड़की से बातें करने लगा लेकिन वोह इंग्लिश नहीं बोलती थी। वोह लड़का उस को समझ रहा था। हमारे सिवा होटल में और कोई नहीं आया। उस लड़के ने बताया कि दो हफ्ते बाद सब होटल फिर से बिज़ी हो जाएंगे। इस पुर्तगीज़ से यह मुलाकात अब तक मुझे और और जसवंत को नहीं भूली। कभी कभी जसवंत बोल देता है ,” मामा ! याद है, पीरी पीरी चिकन ऐंड राइस ?” चलता . . . . . . . .

11 thoughts on “मेरी कहानी 163

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद् आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की क़िस्त भी अनेक जानकारियों एवं आपके अनुभवों का ज्ञान करा रही हैं जो अच्छी लगी। बहुत बहुत धन्यवाद्। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद मनमोहन भाई .

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद मनमोहन भाई .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद् आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की क़िस्त भी अनेक जानकारियों एवं आपके अनुभवों का ज्ञान करा रही हैं जो अच्छी लगी। बहुत बहुत धन्यवाद्। सादर।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    धन्यवाद विजय भाई . आप ने अपनी पत्रिका में मुझे अस्थान दिया ,तभी यह संभव हो सका . मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था,मैं कभी अपनी कहानी लिख पाऊंगा और वोह भी हिन्दी में जो मुझे अधिक नहीं आती थी . बहुत दफा पहले भी मैंने कोशिश की थी लेकिन तीस पैंतीस पेजज़ लिख कर भूल ही गिया .आज ही मेरी कहानी चित्रकार यहाँ के एक पंजाबी अखबार में छपी है जिन को मैंने पंजाबी में लिखा था .सब लीला बहन और आप की हौसला अफजाई की वजह से हो सका है .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार भाईसाहब ! आपकी कलम में जादू है जो पाठक को बांधकर रख लेता है.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार भाईसाहब ! आपकी कलम में जादू है जो पाठक को बांधकर रख लेता है.

  • राजकुमार कांदु

    आदरणीय भाईसाहब । मजा आ गया । पूरी कड़ी रोचक लगी । आपकी संवेदनशीलता के भी दर्शन हुए और पुर्तगाल के भी । एक और बढ़िया कड़ी के लिए आपका हृदय से धन्यवाद ।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      राजकुमार भाई , बहुत बहुत धन्यवाद . आप हर कड़ी पढ़ रहे हैं, लगता है आप भी मेरे साथ जा रहे हैं .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, बिलकुल ऐसा लग रहा है, मानो हम भी आपके साथ-साथ पुर्तगाल घूम रहे हैं और लज़्ज़तदार आलू-परांठे खा रहे हैं. रोचकता बराबर बनी हुई है. कहानी की एक और रोचक कड़ी के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद , लीला बहन कड़ी पसंद करने के लिए धन्यवाद जी .वोह दिन अभी तक मेरी आँखों के सामने हैं .बहुत मज़ा किया था हम ने .और बहुत जगह जाने का मन था लेकिन . ……………

Comments are closed.