समाज का डर
हां,
भरती हूं मांग में सिन्दूर,
पहनती हूं कंगन, पाज़ेब
लगाती हूं बिंदी ।
मैं सजती हूं, संवरती हूं
यह भी मैं जानती हूं
कि
तू अब मेरा नहीं है
तूने तो तोड़ दिया हमसे रिश्ता
कर लिया संबंध विच्छेद ।
लेकिन
भावना और दिल में जो तू है
उसका क्या करूं ।
और समाज !
उससे भी तो भय है !!
बढ़िया !
बढ़िया !