कविता

समाज का डर

हां,
भरती हूं मांग में सिन्दूर,
पहनती हूं कंगन, पाज़ेब
लगाती हूं बिंदी ।

मैं सजती हूं, संवरती हूं
यह भी मैं जानती हूं
कि
तू अब मेरा नहीं है
तूने तो तोड़ दिया हमसे रिश्ता
कर लिया संबंध विच्छेद ।

लेकिन
भावना और दिल में जो तू है
उसका क्या करूं ।
और समाज !
उससे भी तो भय है !!

मुकेश कुमार सिन्हा, गया

रचनाकार- मुकेश कुमार सिन्हा पिता- स्व. रविनेश कुमार वर्मा माता- श्रीमती शशि प्रभा जन्म तिथि- 15-11-1984 शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (जीव विज्ञान) आवास- सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर, गया (बिहार) चालित वार्ता- 09304632536 मानव के हृदय में हमेशा कुछ अकुलाहट होती रहती है. कुछ ग्रहण करने, कुछ विसर्जित करने और कुछ में संपृक्त हो जाने की चाह हर व्यक्ति के अंत कारण में रहती है. यह मानव की नैसर्गिक प्रवृति है. कोई इससे अछूता नहीं है. फिर जो कवि हृदय है, उसकी अकुलाहट बड़ी मार्मिक होती है. भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्याकुल रहती है. व्यक्ति को चैन से रहने नहीं देती, वह बेचैन हो जाती है और यही बेचैनी उसकी कविता का उत्स है. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरा हूँ. जब वक़्त मिला, लिखा. इसके लिए अलग से कोई वक़्त नहीं निकला हूँ, काव्य सृजन इसी का हिस्सा है.

2 thoughts on “समाज का डर

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

Comments are closed.