उपन्यास अंश

नई चेतना भाग –२१

बाबा के अधरों पर एक अनोखी मुस्कुराहट तैर गयी । रहस्यमय मुस्कान के साथ धीरे से बोला ” अभी मेरे पास इतना समय नहीं है । और भी इतने लोग जो मेरे भक्त हैं यहाँ बैठे हैं । इनके बारे में भी सोचना है । तुम चाहो तो बाहर मेरा इंतजार कर सकती हो । बैठक के बाद मैं तुमसे मिलूँगा और तुम्हारी समस्या का उपाय भी बताऊंगा । ”

” जैसी आपकी मर्जी बाबा ! ” कहकर सुशीलादेवी ने बाबा के पैरों को हाथ लगा आशीर्वाद लिया और बाहर चलने को हुयी कि तभी कमली ने सुशिलाजी से कहा ” एक मिनट मालकिन ! अब यहाँ तक आ ही गयी हूँ तो जरा मैं भी बाबा को दिखा ही लेती हूँ । कुछ दिनों से मेरे सर में हमेशा दर्द रहता है । आप चलकर बाहर बैठिये । मैं बस अभी आई । ” कहकर कमली बाबा के सामने बिछे आसन पर जाकर बैठ गयी ।

सुशीलादेवी बाहर आकर बरामदे में ही एक तरफ बिछी दरी पर बैठ गयी ।

हालांकि बरामदे में कुछ कुर्सियां भी रखी हुयी थीं लेकिन सुशिलाजी एक धर्मभीरु व संस्कारी ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी महिला थीं सो उन्होंने दरी पर बैठना ही उचित समझा ।

अकेले कमरे में बैठी सुशीलादेवी मन ही मन दुर्गाजी से अमर की सलामती के लिए प्रार्थना किये जा रही थीं ‘ मन्नतें मांग रही थी । उनके कान में बाबा के कहे शब्द बार बार गूंज रहे थे ‘ वह अब कभी नहीं आएगा ‘ ।
बाबा के कहे शब्द उनके कानों में गूंजते रहे ।

सुशिलाजी परेशान होती रहीं और फिर असहनीय हो गया तो दोनों हाथों से कानों को बंद कर सिसक पड़ीं ।

अमर एक बार पुनः उनकी यादों में पैठ कर चुका था । बाबा के कहे शब्दों को याद कर उनके मन मस्तिष्क में बवंडर उठ रहा था । न जाने किस मुसीबत में है मेरा बेटा । अब कैसा होगा ? जैसे तमाम सवालों से न जाने कब तक जूझती रहती कि तभी कमली ने बरामदे में प्रवेश किया ।

उसके माथे पर तिलक लगा हुआ था और सर पर गुलाल बिखरा हुआ था । गालों पर भी गुलाल लगा हुआ था । ऐसा लग रहा था जैसे होली खेल कर आ रही हो । उसे इस हालत में देखकर सुशिलाजी को बरबस ही हंसी आ गयी थी और उनकी तन्द्रा भंग हो गयी ।

वर्तमान में लौटते हुए कमली से पूछ ही लिया ” ये सब क्या है कमली ? ”

” मालकिन ! कुछ भी तो नहीं । मेरे सर में हमेशा दर्द रहता है । इसीलिए बाबा को दिखाया था । वो तो अच्छा हुआ कि मैं आपके साथ आ गयी और बाबा को दिखा दिया । नहीं तो पता नहीं मेरा क्या होता ? ” कहकर कमली थोड़ी देर के लिए खामोश हो गयी थी ।

” लेकिन बताया क्या बाबाने ? “सुशिलाजी भी अब उत्सुक हो गयी थी ।

” मालकिन ! हमारे घर से थोड़ी ही दुरी पर बरगद का बहुत पुराना एक पेड़ है । चार पांच दिन पहले मैं रात को खेतों में शौच से आ रही थी तभी मेरी नजर उस बरगद के ऊपर पड़ी थी । पत्तों के बीच से एक जोड़ी अंगारों की मानिंद जलती हुयी आँखें जैसा कुछ दिखाई पड़ा । मैं मन ही मन घबरा उठी थी । तभी से मेरे सर में हमेशा दर्द रहता था । ” कमला की जबान कैंची की तरह से चलने लगी ।

लेकिन सुशिलाजी बेमतलब की बातें नहीं सुनना चाहती थीं सो बीच में ही टपक पड़ीं ” अरे वो सब तो ठीक है । लेकिन बाबा ने क्या बताया ? और तुझे अब कैसा लग रहा है ? ”

कमली भी कब चुप रहती । ” हाँ हाँ ! तो मैं वही तो बताने जा रही थी कि आपने टोक दिया । बाबा ने देखते ही बता दिया था कि मेरे ऊपर उसी बरगद वाले भूत का साया था जिसकी वजह से मेरी तबियत भी ख़राब हो जाती थी और सर में दर्द तो हमेशा ही रहता था ।”

अब सुशिलाजी की झुंझलाहट और बढ़ गयी थी ” अरे पगली ! फिर लगी बकवास करने । मैं पूछ रही हूँ बाबा ने किया क्या तो पूरी रामायण ही सुनाने लगी । ”

सुशिलाजी के क्रोध को देखते हुए कमली थोड़ी सहम सी गयी ” नहीं नहीं मालकिन ! मैं वही बताने जा रही हूँ । बाबा ने बताया अगर मैं और देर करती तो वह साया और ताकतवर हो जाता । अब बाबा ने मेरे सर से एक निम्बू उतारकर रख लिया है और कल एक अनुष्ठान करके उस निम्बू द्वारा उस भूत को हमेशा के लिए ख़तम कर देंगे । फिर मैं हमेशा के लिए भली चंगी हो जाउंगी ।

मैंने तो बाबाजी को अनुष्ठान के लिए 251 रुपये भी अभी ही दे दिए । अब मेरी गैरमौजूदगी में भी बाबा अनुष्ठान करके उस भूत को ख़तम कर देंगे और मैं हमेशा के लिए अच्छी हो जाउंगी । ”
कमली की बातें सुनकर सुशिलाजी कुछ सोचने लगी थीं ।

वह संस्कारी तो थीं लेकिन उन्होंने कभी इन ढकोसलों में विश्वास नहीं किया था । एक बार तो उन्हें कमली की बातें सुनकर हंसी भी आ गयी थी लेकिन फिर ख़ामोशी से उसे सुनने लगी थीं ।

थोड़ी देर तक इधर उधर की बातें करते समय व्यतीत करने केे बाद अब सुशिलाजी वहाँ बैठे बैठे उब गयी थीं और वापस जाने के बारे में सोचने लगी थी कि तभी बरामदे में बाबा धरनिदास ने प्रवेश किया । उनके पीछे वहां आंगन में बैठे सभी भक्त भी थे ।

बाबा धरनिदास वहीँ कोने में पड़ी एक कुर्सी पर पैर आगे करके बैठ गए । एक एक कर भक्त आते ‘ पैर छूते और बगल में ही रखे दानपात्र में कुछ चढ़ावा चढाते और फिर चले जाते । पांच मिनट में ही सभी भक्त अपने घरों को प्रस्थान कर गए थे ।

अब बाबा सुशिलाजी से मुखातिब हुए ” बताइए देवीजी ! क्या करना है ? ”

सुशीलादेवी बाबा के बदले हुए लहजे से आश्चर्यचकित थीं बोली ” बाबाजी ! मैं तो बस अपने बेटे की सलामती ही चाहती हूँ और चाहती हूँ कि वह सही सलामत घर वापस आ जाये । अब आगे आप कुछ बताना चाहते थे । ”

” आपने ठीक ही कहा है । वो तो माताजी ने आपको बता ही दिया है कि आपका बेटा कैसी मुसीबत में है और यह भी बता दिया है कि अब वह आप लोगों के पास कभी भी वापस नहीं लौटेगा । ” बाबा ने बात आगे बढाई थी ।

सुशिलाजी ने विनम्रता से जवाब दिया ” बाबाजी ! यह बात आपने आँगन में ही बता दी थी और मैंने सुन भी लिया था । अब आप मुझे यह बताइए कि करना क्या पड़ेगा जिससे अमर सही सलामत घर वापस आ जाए । ”

बाबा ने ध्यान से सुशिलाजी को देखते हुए रहस्यमय आवाज में बोला ” देवीजी ! मैं क्या हूँ ? मैं तो माताजी का अदना सा सेवक हूँ और जब उन्होंने आपको बता दिया है कि इसका इलाज है तो मैं उनकी इच्छा से यह इलाज करने की कोशिश करूँगा । इसके लिए मुझे एक बड़ा अनुष्ठान करना पड़ेगा । आपकी खुशकिस्मती से कल ही अमावस है और आपके लिए जो अनुष्ठान करना है वह सिर्फ अमावस को ही किया जा सकता है । इसके लिए हमें आज से ही तैयारी करनी पड़ेगी । लगभग इक्कीस हजार रुपये इस अनुष्ठान पर खर्च होंगे । ”

” इक्कीस हजार ! ” सुशिलाजी ने आश्चर्य व्यक्त किया ।

” जी ! देवीजी ! दरअसल अनुष्ठान के लिए लगने वाली सामग्रियां बड़ी मुश्किल से मिलती हैं । और उसकी शुद्धता पर ही अनुष्ठान का फल भी निर्भर करता है । केसर ‘ जाफरान जैसी चीजें शुद्ध पाने के लिए बहुत पैसा लगता है । अगर आप कराना चाहती हैं तो ठीक है नहीं तो कोई बात नहीं । आपकी मर्जी । ” बाबा ने समझाने का प्रयास किया था ।

” लेकिन मैं तो इतने पैसे नहीं लायी हूँ बाबाजी ! ” सुशिलाजी ने अपनी मज़बूरी बताई थी ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।