संस्मरण

मेरी कहानी 180

इजिप्ट से आ कर ज़िन्दगी फिर पहले की तरह चलने लगी। वोह ही ऐरन को स्कूल ले जाना और वोह ही लाएब्रेरी में दोस्तों के साथ गप्पें हांकना। नए नए दोस्त बन जाते, फिर अचानक ही उन का आना बन्द हो जाता लेकिन हम कुछ दोस्त तो पक्की सीटें संभाले हुए थे। एक बात है, कि वोह लाएब्रेरी में गुज़ारा वक्त बेकार नहीं गया। एक तो हर रोज़ अखबार पढ़ लेते, इंग्लिश पंजाबी हिंदी के मैगज़ीन भी पढ़ लेते और सब से बड़ी बात हमारे टाऊन की सभी ख़बरें मिल जातीं। बस्सों में काम करते हुए हमारे पुराने साथियों का भी पता चलता रहता। लाएब्रेरी की शैल्फें पंजाबी हिंदी की किताबों से भरी रहती थीं और मुझे इन का इतना शौक होता था कि अगर कोई किताब मैंने ना भी घर को लानी हो, शैल्फों के नज़दीक खड़े हो कर कुछ सफे जरूर पढता। मुझे यह कोई फर्क नहीं पड़ता था कि सारी किताब पडूँ या न पडूँ, बस ऐड्रैस देख कर लफाफे में पढ़े खत की तरह कुछ कुछ अंदाजा हो जाता था कि इस सारी किताब लिखने का मकसद किया था। आयुर्वेद या होपमिओपैथी की कोई किताब होती तो उस को भी पढता, सिहत के सम्बन्ध में योग से ले कर मैडीटेशन, ताइची और जूडो कराटे से ले कर कुंगफू की किताबें भी सरसरी नज़र से देखता। मुझे एक भूख सी लगी रहती थी किताबों को देखने की। मुझे समझ भी बेछक कुछ ना आये लेकिन उसे देखता जरूर। एक आदत मेरी यह भी थी कि शायद ही मैंने कोई किताब सारी की सारी पढ़ी हो लेकिन यह किताबें सारी की सारी ना पढ़ कर भी मुझे बहुत कुछ समझ आया। धर्म के बारे में चोंच लड़ाते लेखकों के कलम दर्शन हुए, जिस से मुझे यह गियान हासिल हुआ कि सभी धार्मिक लोग अपने आप को ही सही मानते हैं, दूसरों में नुक्स निकालते हैं। मैं एक सिख हूँ लेकिन सिखों में ही मुझे परस्पर विरोधी विचारों का आभास हुआ। मैंने यह भी बहुत दफा पढ़ा कि लो जी धर्म चाहे जितने मर्ज़ी हों लेकिन सारे धर्म भगवान् को ही मानते हैं। यह कहने के बाद फिर भी जब कोई मुसलमान, मंदिर की तरफ देखता है तो उस के दिल को कुछ कुछ होने लगता है और इसी तरह हिन्दू सिख को भी मस्ज़िद की ओर देख के कुछ कुछ होता है। यह मैंने देखा नहीं बल्कि खुद सुना है। मैं और मेरा दोस्त बहादर इन बातों पर बहुत चर्चा किया करते थे और बहादर तो यहाँ तक कह देता था कि हम सब झूठे हैं, हम एक दूसरे के खामोश दुश्मन हैं। सभी धर्मों के लोग एक दूसरे से हंस हंस बातें करते हुए भी उन से दूर हैं, उन को नफरत करते हैं । रात के समय मैं और बहादर घंटों टेलीफून पर बातें करते रहते।
जब मैं काम किया करता था तो उस समय भी कैंटीन में बैठे हम दोस्त तरह तरह की बातें किया करते थे। क्योंकि हम सभी इंग्लैंड में तकरीबन एक समय ही आये थे, इस लिए हम सभ एक दूसरे के वाकिफ थे कि यह लोग जब आये थे तो इन के किया किरदार थे और अब जब कि सभी के पास अपने अपने घर हो गए थे और आर्थिक दृष्टी से भी ठीक ठाक थे तो इन के दिलों में धार्मिक कट्टरता भी भरने लगी थी। मैंने वोह दिन भी देखे थे, जब हमारे सिख भाई इंग्लैंड आते ही क्लीन शेव हो जाते थे और जिस के सर पर पगड़ी होती थी, उस को अजीब नज़रों से देखते थे लेकिन अब वोह ही लोग हम जैसे लोगों पर नुक्ताचीनी करते थे। मुझे तो इस से कोई फरक नहीं पड़ता था, हालांकि मुझे इस से फायदा ही होता था। कुलवंत बहुत सालों से गुरदुआरे जाती रही है लेकिन उस को भी गुरदुआरे जाने से फायदा ही हुआ है। बहुत दफा गुरदुआरे में जो होता है, आ कर मुझे बताती है तो सुन कर मैं हैरान हो जाता हूँ, लंगर के लिए खाना बनाते समय औरतें एक दुसरी से झगड़ने लगती हैं, पीठ पीछे चुगलियां करती हैं, कई गुस्से हो कर आना छोड़ देती हैं और किसी और गुरदुआरे की शोभा बढ़ाती हैं। हम सोचते और बातें करते हैं कि अगर गुरदुआरे में जा कर इन की मानसिक अवस्था को फर्क नहीं पड़ा तो बाहर किया करती होंगी। फिर मज़े की बात यह है कि यह औरतें अपनी बहुओं पे तो नुक्ताचीनी करती हैं और खुद सारी उम्र गुरदुआरे जाते रहने से भी इन को दस गुरुओं के नाम याद नहीं हुए। गुरदुआरे की कमेटियों में झगडे, यह पैसा खा गया, वोह खा गया और मामले कोर्ट तक चले जाते हैं, बहुत दफा तो इतने झगडे होते हैं कि पुलिस आ जाती है। कुलवंत में और मुझ में एक बड़ा फरक यह है कि वोह गुरदुआरे जा कर सच्चे दिल से माथा टेकती है, परसाद लेती है और मेरे लिए भी ले कर आती है। अब तो मैं जा नहीं सकता लेकिन पहले भी मेरी दिलचस्पी इतनी नहीं थी। यह बात नहीं कि मैं सिख धर्म में विशवास नहीं करता था, इस के विपरीत मैं गुरबानी के शालोकों को समझने की कोशिश करता था। इस में मेरी रूचि ज़िआदा इतहासक ही होती थी, जैसे गुरु गोबिंद सिंह जी का लिखा ज़फरनामा जो एक ख़त है जो उन्होंने ने औरंगजेब को लिखा था। यह ज़फरनामा पर्शियन में लिखा गिया था लेकिन अब इस का तर्जमा पंजाबी में मिल जाता है। इस ज़फर्नामे में गुरु जी ने औरंगजेब को यह भी लिखा है मेरे चार बच्चे मर गए तो किया हुआ, मैं और मेरा खालसा अभी जिंदा है। तू अपने आप को मुसलमान कहलाता है, तू ने अपने भाईओं को मार दिया, अपने पिता को कैद में रखा, तू सच्चा मुसलमान हो ही नहीं सकता। इसी ज़फर्नामे में लिखा हुआ एक शलोक है कि जब सब कुछ फेल हो जाये तो तलवार हाथ में पकड़ना एक धर्म है। जब जब ऐसी बातें मैं पड़ता था तो गुरु जी की कुर्बानिओं पे हैरान होता था। धर्म के बारे में मेरी दिलचस्पी यहां तक ही रही है और इस में इस किताब को माथा टेकना मेरी समझ से दूर है । लोग किया करते हैं, मैं कभी किसी के पीछे नहीं भागा।

लाएब्रेरी में तरह तरह के लोग आते थे। एक शख्स जो कभी बहुत शराब पिया करता था और क्लीन शेव होता था, अब एक गुरदुआरे में मैनेजमेंट कमेटी में है लेकिन धार्मिक कट्टरता से भरपूर है। ऐसे शख्स से धार्मिक बातें करना मुझे फजूल लगता था क्योंकि धर्म से ज़िआदा इन लोगों में सिआसत की बातें ही होती थीं। कुछ तो ऐसे थे जो बहुत गर्म हो जाते थे। हमारा दोस्त सोहन सिंह ही ऐसे लोगों को हंस हंस कर जवाब देता रहता था। कभी कभी दो मुसलमान भी आ जाया करते थे जो आज़ाद कश्मीर के मीर पुर जिले के रहने वाले थे। जैसे ही वोह लाएब्रेरी में आते, सोहन सिंह उन की ओर देख कर हंस कर कहता, ” लो जी ! इन को कश्मीर दे दो “, सभी हंसने लगते। इन दोनों में एक आदमी जो कोई होगा चालीस पैंतालिस का, वोह हमारे जैसे खियालों का था। वोह मुलाओं को गालिआं देता रहता और कहता,” यह मस्जिद से भी पैसे लेते हैं और हकूमत से भी बैनिफिट लेते हैं और साथ में झाड़ फूंक करके और लोगों को बेवकूफ बना के पैसे बटोरते रहते हैं, कितने झूठे हैं यह लोग “, जब यह शख्स अकेला आता तो हम खूब बातें करते। इन की बातों से हमें यह भी पता चला कि जो चेहरा मुसलमानों का हमें दिखाई देता है, वैसे सभी नहीं है। मुसलमानों में भी बहुत लोग हैं जो इन ढोंगी लोगों से नफरत करते हैं। वैसे भी मीर पुर डिस्ट्रिक्ट के लोग हम पंजाबिओं की तरह ही हैं। काम पर हमारे बहुत मुसलमान दोस्त थे, जिन में कुछ बहुत ही कट्टर विचारों के थे और ऐसे लोगों को मुसलमान खुद भी नफरत करते थे। कभी कबार यह हामारे साथी लोग हमें बाहर मिल जाते तो हम बहुत खुश हो कर मिलते। लाएब्रेरी में तो कभी ही कोई आता था लेकिन जब आता तो हमारी बातें ख़तम ना होतीं।
कभी कभी मैं बस पकड़ कर टाऊन के चक्कर लगाने चला जाता। क्योंकि मैं ने बस्सों से रिटायर्मैन्ट ली थी, इस लिए मुझे और कुलवंत को ज़िन्दगी भर के लिए हमारी कंपनी की ओर से फ्री बस पास मिला हुआ था। जब मैं काम करता था तो मुझे तो उस वक्त भी फ्री बस पास मिला हुआ था लेकिन कुलवंत को कुछ सालों बाद मिला था। कुलवंत भी जब काम पर जाय करती थी तो वोह भी फ्री ट्रैवल करती थी। कुछ सालों बाद तो कंपनी ने हमें लोकल ट्रेन के लिए भी फ्री पास दे दिया था। जब हमें वक्त मिलता तो मैं और कुलवंत ट्रेन पकड़ कर दूर दूर शहरों के चक्कर लगाते और शॉपिंग कर आते। कार ले जाने का एक झंजट सा होता था क्योंकि कार पार्किंग के लिए जगह मिलनी मुश्किल होती थी, तो बस में जाना बहुत आसान होता था। बोर होने की हमें कोई वजह ही नहीं थी। वीकेंड पर हम बहादर, रीटा या बुआ निंदी के घर चले जाते। ज़िन्दगी मज़े से गुज़र रही थी।
जब मैं बस पकड़ कर टाऊन को जाता, तो पहले तो बस ड्राइवर ही मुस्करा कर हैलो बोलता क्योंकि सभी ड्राइवर मुझे जानते ही थे। मैं ड्राइवर के पास ही खड़ा हो जाता और उस से बातें करता रहता। ड्राइवर के पास खड़े हो कर बातें करना कानून के खिलाफ है लेकिन फिर भी कुछ देर बातें हम करते ही रहते और यह बातें सभी लोग जानते थे कि मैं बस्सों पे काम कर चुक्का हूँ। सारी उम्र बस्सों पे काम करने से सारे टाऊन के लोग हमें जानते थे। बहुत लोगों को हम नहीं भी जानते होते थे लेकिन लोग हमें जानते थे। अगर टाऊन से कुछ लेना हो तो ले करके मैं शॉपिंग माल जिस को मांडर सेंटर बोलते हैं, में आ जाता। मांडर सेंटर में एक खुली जगह में बहुत से बैंच हैं, यहां हम बहुत से रिटायर्ड दोस्त इकठे हो जाते थे और हर विषय पर हमारी बातें होती रहतीं। यह जगह सब को अछि लगती थी। इर्द गिर्द शॉपिंग के लिए घुमते लोग और कभी कोई डांसिंग ग्रुप या कोई गायक गिटार या वाइओलिन बजाता दिखाई देता। टॉयलेट चौथी मंज़िल पर होती थी, जिस के लिए लिफ्ट लग्गी हुई थी लेकिन मैं हमेशा सीडीआं चढ़ कर जाता और तेज तेज जाता। इस से मेरी एक्सरसाइज़ हो जाती। इस को मैं बहुत पसंद करता था। नीचे आ कर कुछ देर गप्पें हांकने के बाद बस पकड़ कर मैं सीधा ऐरन को लेने चले जाता और पैदल घर आते। यह मेरी रिटायरमेंट के बेहतरीन दिन थे क्योंकि सिहत अछि थी और काम पर जाने का कोई फ़िक्र नहीं होता था। काम के दिनों में कभी सुबह चार बजे जाना, कभी शाम तीन चार बजे जाना, बस ऐसे ही ज़िन्दगी बीत गई लेकिन अब वक्त पर सोना और वक्त पर उठना एक रूटीन हो गया था, जिस का अपना ही एक लुत्फ था जो मुझे काम के बाद ही महसूस हुआ। रात को जब तक जी चाहे, टैली देखना भी बहुत अच्छा लगता था क्योंकि काम के दिनों में तो सुबह उठने की ही चिंता होती थी।
कभी कभी जसवंत भी काम से आते हुए हमारे घर आ जाता। एक दो डिब्बे हम दोनों बीअर के पीते और फिर वोह अपने घर चला जाता था। एक दिन जब आया तो आते ही बोला, ” मामा ! चल गोआ घूम आएं “, मैंने कहा, “जसवंत अभी तो हम ने इजिप्ट में इतने पैसे खर्च कर दिए हैं, एक साल ठहर कर जा आएंगे “, जसवंत बोला,” मामा ! डील बहुत अछि मिल रही है, सिर्फ तीन सौ पाउंड दो हफ्ते की कीमत है, और ब्रैड ऐंड ब्रेकफास्ट मिलेगा, यही हॉलिडे दो हफ्ते बाद आठ सौ पाउंड हो जायेगी, क्योंकि क्रिसमस के वक्त गोआ में बहुत रश होता है, सोच लेना, दो दिन बाद मैं फिर आऊंगा”, कह कर जसवंत चले गया। हम दोनों इस पर विचार करने लगे। कुलवंत खुद का मन गोआ जाने को करता था और मैंने भी सोचा कि मैं खुद तो इजिप्ट जा कर आया हूँ और अगर हम कहीं नहीं गए तो कुलवंत के साथ यह ज़्यादती होगी। उसी रात हम ने जाने का फैसला कर लिया। संदीप को हम ने बताया तो उस ने कहा कि वोह काम से पता करके हमें बता देंगे क्योंकि ऐरन की देख भाल के लिए भी इंतज़ाम करना जरुरी था। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए, फिर संदीप ने बताया कि जसविंदर और वोह एक एक हफ्ते की छुटियों का इंतज़ाम कर लेंगे। जब छुटियों का इंतज़ाम हो गया तो मैंने जसवंत को फोन कर दिया कि हम तैयार थे।
कुछ दिन बीतने के बाद जसवंत आया और हमें बता दिया कि 6 . 12 . 2004 की हॉलिडे बुक हो गई थी और बीस दिसंबर को वापस आना था । जसवंत और उस की ममी गियानो ने जाना था। दो दिन बाद ही जसवंत का फिर टेलीफोन आया और हमें बताया कि हमारे साथ जाने के लिए एक कप्पल और तैयार हो गया था। इस शख्स का नाम तरसेम सिंह और उस की पत्नी का नाम सुरजीत कौर है। गियानो बहन सुरजीत सिंह की मासी लगती है और हम पहले ही इन लोगों को जानते थे। अब तो खूब मज़ा आएगा, सोच कर हम ने तैयारी कर ली। इंडिया जाने के लिए हम को वीज़ा लेना जरूरी था। इस के लिए एक दिन मैं और तरसेम सिंह दोनों बर्मिंघम हाई कमिश्नर के दफ्तर में पहुँच गए। गाड़ी तरसेम सिंह की थी और डिसेबल होने की वजह से उस को डिसेबल पार्किंग कार्ड मिला हुआ था। वोह कहीं भी गाड़ी खड़ी कर सकता था। गाड़ी के लिए तो कोई ख़ास तकलीफ नहीं हुई लेकिन जब हाई कमिश्नर के दफ्तर पहुंचे तो दफ्तर के बाहर लंबी लाइन लगी हुई थी, बिलकुल इंडिया वाला हाल था। हाथों में पासपोर्ट और फ़ार्म पकडे हुए लोग बातें कर रहे थे कि आज तो इंडिया याद आ गया था। इंडिया से एक बात भिन थी कि कोई धकमधका नहीं था, इतनी बड़ी लाइन के होते हुए भी सभी शान्ति से खड़े थे।
9 बजे दरवाज़ा खुला और सभी अंदर चले गए और एक खिड़की से टिकट नंबर ले के कुर्सियों पर बैठने लगे। लोग ज़्यादा थे, इस लिए कुछ लोग खड़े ही रहे। गोरे लोग भी काफी थे। तकरीबन एक घंटे बाद मेरा नंबर आया और मैं सारे पासपोर्ट और पैसे ले कर एक खिड़की पर जा खड़ा हुआ और सारे फ़ार्म और पासपोर्ट खिड़की पर काम कर रही लड़की की ओर बड़ा दिए। पांच मिन्ट्स से ज़्यादा नहीं लगे, जब उस लड़की ने मुझे एक रिसीट दे दी और बताया कि तीन बजे सारे पासपोर्ट तैयार होंगे और मैं आ कर ले जाऊं। मैं और तरसेम सिंह नीचे आ कर गाड़ी में बैठ गए और सोचा कि वक्त तो बहुत है, इस लिए हम ग्राहम स्ट्रीट गुरदुआरे में चले जाएँ। कुछ देर हम दुकानों के चक्कर लगाते रहे और फिर गुरदुआरे में आ गए। वहां ज़्यादा लोग नहीं थे लेकिन दो शख्स हम को जानते थे, इस लिए वक्त का पता ही नहीं चला। वक्त से आधा घँटा पहले ही हम हाई कमिश्नर के दफ्तर में पहुँच गए। अब सभी लोग पासपोर्ट लेने के लिए ही आये हुए थे। जाते ही पासपोर्ट हमें मिल गए और हम वापस आ गए। अब हम ने सिर्फ गोआ जाने की तैयारी ही करनी थी। चलता. . . . . . . .