लघुकथा

लघुकथा : सूखा पौधा

कलुआ हरिजन पक्षाघात का शिकार होने के बाद पिछले तीन महीने से बिस्तर पर ही पड़ा था । परिवार में दो छोटी पुत्रियों कमली और जमुनी के अलावा और कोई नहीं था । उसकी अर्धांगिनी ललिया पिछले ही वर्ष एक जानलेवा बीमारी का शिकार हो गयी थी ।
एकाकी जीवन जी रहा कलुआ अचानक पक्षाघात का शिकार हो गया था । पत्नी की लम्बी बीमारी से कंगाल हो चुके कलुआ के पास अब खुद के इलाज के लिए पैसे का कोई इंतजाम नहीं था । इलाज से असमर्थ कलुआ अब फांके करने को भी मजबूर था । और इसी तरह जिंदगी की जद्दोजहद से दो चार होता कलुआ एक दिन इस संसार को अलविदा कर गया ।
उसकी दोनों पुत्रियों के रुदन से थोड़े ही समय में पड़ोसियों की भीड़ लग गयी । उसके घर के बाहर सभी खड़े रो रही कलुआ की दोनों पुत्रियों को सांत्वना देने का प्रयास कर रहे थे ।
मोहल्ले के ही वर्माजी जो काफी धनाढ्य माने जाते हैं आगे बढ़कर कमली के पास गए और उसके सीर पर हाथ फेरते हुए उसे सांत्वना देते हुए बताया ” बेटी ! तुम पैसे की बिलकुल भी चिंता नहीं करना । कलुआ का अंतिम संस्कार पुरे रीती रिवाज के साथ करने और तेरहवीं की पूरी विधि का खर्च मैं करूँगा । ”
कमली ने अपने आंसू पोंछते हुए वर्माजी की तरफ देखा और वहीँ घर के सामने ही एक सुख चुके पौधे के जड़ में पानी डाल कर पुनः कलुआ के शव के पास आकर बैठ गयी ।
पड़ोसियों को कमली की इस हरकत का मतलब समझ में नहीं आया । आखिर वर्माजी ने पुछ ही लिया । कमली ने सुबकते हुए जवाब दिया ” वर्मा चाचा ! आपकी बात सुनकर मुझे बड़ी उम्मीद बंधी थी कि आपके पैसे से पहले मैं भुख से तड़प कर मरे अपने पापा को भरपेट भोजन कराऊंगी तो शायद जी जाएँ इसीलिए मैंने सुखे पौधे में पानी डाल कर देखा शायद वह जी उठे लेकिन ऐसा नहीं हुआ । अब इसी तरह मेरे पापा भी वापस तो आने वाले नहीं हैं । फिर इस अनाप शनाप खर्चे का क्या मतलब ? अगर आपको कुछ करना ही है तो उन लोगों की मदद करिए जो किसी वजह से भोजन से महरूम हैं । ताकि फिर किसी कलुआ की जान भुख से तड़प तड़प कर न जाये । “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।