संस्मरण

नागमणि –एक रहस्य ( भाग –२ )

एक पल को मैंने अपनी हथेली पर रखा वह मणि देखा और अगले ही पल उस आदिवासी के कहे मुताबिक अपनी मुट्ठी बंद कर ली ।
मैं आश्चर्य से उछल पड़ा था । मेरे मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे । मेरी अवस्था देखकर अचंभित मित्र ने शीघ्र ही मेरे हाथ से वह मणि लेकर अपनी हथेली पर रखकर मुट्ठी बंद करके देखा । आश्चर्य के भाव उसके चेहरे पर भी थे । बड़ी हैरत से उसने पुछा ” कितना विचित्र है न ? ऐसा लग रहा है हथेली से कोहनी तक नसों में कोई सांप चल रहा है । तुमको भी ऐसा ही लग रहा था ? ”
मैं अब तक संयत हो चुका था । पुनः उसके हाथ से वह मणि लेकर अपनी मुट्ठि में भींचते हुए उस विचित्र अनुभूति का अहसास करते हुए बोला ” हाँ ! तुम ठीक कह रहे हो । बिलकुल ऐसा लग रहा है जैसे नसों में कोई सांप चल रहा हो । ऐसी ही तरंगें उठ रही हैं । ”
बड़ी देर तक हम लोग अदल बदल कर मणि अपने हाथों में ले ले कर उसकी विचित्रता का अहसास करते रहे । कहने की जरुरत नहीं कि अब हमें उस आदिवासी की बात पर कुछ कुछ यकिन हो चला था । वह कोई आम पत्थर या साधारण चीज न होकर कोई अलौकिक चीज है यह हमारी समझ में आ गया था लेकिन दिल अभी भी उसे नागमणि मानने को तैयार नहीं था । हमने सोचा चाहे जो भी चीज हो विचित्र तो है ही । सो अब मैं मुद्दे पर आ गया । उस आदिवासी से पुछा  ” हाँ ! चलो अब यह नागमणि है या जो भी चीज है क्या करना है ? ”
उसके साथ आया आदिवासी हाथ जोड़ते हुए बोला ” शेठ ! मेरे को थोड़े पैसे की अर्जेंट जरुरत है । मंगता है तो तुम इसको ले लो लेकिन मेरे को पैसे दे दो । ”
मैंने उसे बताया ” मैं तो अपने यहाँ काम करने वालों को ऐसे ही भरोसे पर पैसे दे देता हूँ । जब तुम काम करने आओगे तब पैसे कटा देना । तुम्हें कितना पैसा चाहिए ? ”
उसने जवाब दिया ” नहीं शेठ ! मैं वाडा के एक इंट के भट्ठे पर काम करता हूँ इसलिए आपके यहाँ काम पर नहीं आ सकता । आप यह मणि लेकर पैसे दे सकते हो तो ठीक है नहीं तो ….”
तभी पहला आदिवासी जो हमारे यहाँ काम कर चुका था उसको समझाते हुए बोला ” जरा ठहर तो ! हमारे शेठ बहुत अच्छे हैं । हम लोग को किसी को भी एडवांस चाहिए तो ना नहीं बोलते है । तेरे को भी मिलेगा पैसा । ”
मैं उसकी बात सुनकर हंस दिया था और उसको समझाते हुए बोला था ” नहीं रे ! अभी तो काम ही कहाँ है ? फिर भी ठीक है तु कहता है तो मैं इसको पैसे दे दूंगा । कितना पैसा चाहिए इसको ? ”
अब की जिसका मणि था वह बोल उठा ” शेठ ! दो हजार दे देगा तो मेरा काम हो जायेगा  । ये मणि तू रख ले ”
अभी मैं कुछ सोच ही रहा था कि मेरे मित्र ने मुझसे धीरे से कहा ” अरे ! वह मणि देने के लिए तैयार है दो हजार रुपये में तो ले क्यों नहीं लेते ? कोई दिक्कत है तो मैं पैसा दे देता हूँ । ”
वास्तव में मैं उस समय तंगहाली के दौर से गुजर रहा था और मजदूरों के सामने अपनी पोल नहीं खुलवाना चाहता था सो मित्र से बोला ” एक काम करो ! तुम अभी दो हजार रुपये इनको दे दो फिर आगे का देखा जायेगा   ”
उसने तुरंत ही जेब से दो हजार निकाल कर उस मजदूर के हाथ पर रख दिया । पैसा पाकर दोनों आदिवासी हमें सलाम कर अपने रास्ते चले गए ।
उनके जाने के बाद मैंने अपने मित्र से कहा ” यार ! अब तुमसे क्या छिपाना है ! दरअसल मेरी हालत खस्ता चल रही है फिर भी अगर तुम कहो तो मैं तुम्हें कल यह पैसा दे दूँ । मजदूरों को लेकर तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए । ”
उसने तुरंत ही आश्वस्त किया ” ,तुम इस पैसे की कोई फ़िक्र मत करो । अब यह जो भी चीज है हमारी और तुम्हारी भागीदारी की है । देखते हैं इसका क्या करना है ? ”
मैंने वह मणि मीत्र को ही दे दी रखने के लिए और उस चीज से लापरवाह भी हो गया । लगभग पंद्रह दिनों बाद उस मित्र से एक खबर सुनकर पुनः यह मणि चर्चा में आ गयी । उस मित्र ने बताया था कि उनका मुंबई में रहनेवाला कोई मित्र उस मणि को देखते ही उसके पांच लाख रुपये देने को तैयार हो गया था । उन्होंने मेरी राय जाननी चाही । मैंने कहा ” जैसी तुम्हारी मर्जी ! अगर यह इतनी महँगी बिकती है तो ठीक है कुछ पैसे उस आदिवासी को भी दे देंगे जो हमें यह दे गया है । ”
मित्र हंसा ” तुम्हें नहीं मालूम ! मैंने सब पता लगा लिया है । यह असली नागमणि है । अगर इसमें जरा सी भी लाइट होती तो शायद यह करोड़ों की होती । पांच लाख रुपये तो कुछ भी नहीं है   ”
मैं इन सब चीजों से लगभग अनजान ही था सो उसीसे पुछ बैठा ” तो फिर तुम क्या चाहते हो ? ”
मित्र ने बताया ” मैं तो चाहता हूँ कि यह न बेचना पड़े ।” ,
मैं तुरंत ही राजी हो गया था और बोला ” तो फिर ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी । ”
बहुत दिनों तक वह मणि उसी मित्र के पास ही रही ।
इस बात को लगभग चार महीने बीत गए । इस बिच अब मेरा कारोबार फिर से चल निकला था और मैं अपने काम काज में व्यस्त हो गया था । उस मित्र से अब मिलना जुलना कम हो गया था और अब हमारे बिच उस मणि को लेकर कोई चर्चा  नहीं होती । लेकिन आखिर नियति की नियत तो कुछ और ही थी ।  1994 के अप्रैल महीने के आखिर में हमारे एक पूर्व परिचित श्री संतराम के दामाद के छोटे भाई उनसे मिलने यहाँ मुंबई आये हुए थे । शिष्टाचार वश संतराम जी अपने मेहमान श्री अमरनाथ जी को हमसे मिलवाने के लिए हमारे घर पर ले आये ।
संतराम जी ने पूर्व में हमें बताया था कि उनके इस मेहमान पर दुर्गाजी की विशेष कृपा है और ये उनकी कृपा से कुछ भी कर सकते हैं । लोग इन्हें सम्मान से गुरूजी कहकर बुलाते हैं । इन बाबाओं के चमत्कारों व अंधविश्वास व ढकोसलों में हमें बचपन से ही दिलचस्पी नहीं थी । सो हमने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया था लेकिन अब उसी आदमी को अपने सामने पाकर शिष्टाचारवश खातिरदारी तो करनी ही थी । हमारे स्वभाव व खातिरदारी की खुल कर तारीफ करते हुए अमरनाथ ने खुद ही अपना परिचय दिया था । पहले हम एक बात बता दें कि संतराम जी द्वारा यह बताने पर कि इनपर दुर्गाजी की विशेष कृपा है और वह चमत्कार भी करते हैं हमारे मन में उनके प्रति नकारात्मक छवि बन गयी थी जब तक हम उनसे नहीं मिले थे । हमारा अंदाजा था यह कोई साधू सा वेश भूषा धारण करके लोगों को बेवकूफ बनाकर छोटे मोटे चमत्कार दिखाकर अपना उल्लू सीधा करनेवाला ढोंगी होगा लेकिन उनसे  मिलने के बाद हमारा भ्रम ख़त्म हुआ था । दरअसल हमारी उम्मीद के विपरीत अमरनाथ एक बीस वर्षीय साधारण कद काठी का सांवला सा युवक था जो कहीं से भी किसी भी तरह से बाबा या साधू या कोई चमत्कारी पुरुष नहीं दिखाई दे रहा था । साधारण शर्ट पेंट पहने वह हम लोगों जैसा ही साधारण सा व्यक्तित्व लिए आम आदमी लग रहा था ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।