राजनीति

लेख– नेक पहल का अनुसरण होना चाहिए!

संवैधानिक ढांचे में ज़िक्र बराबरी और समान अधिकार का किया गया है। फ़िर बराबरी अवसर की समता की हो। या अन्य किसी भी तरीक़े की। जाति- धर्म, ऊंच- नीच से परे होकर सभी के एक समान हक की बात होती है। फ़िर वह चाहें शिक्षा के क्षेत्र की बात हो, नौकरी-पेशे की बात हो। पर मुद्दे की बात क्या, इन बातों पर आज़ादी के इतने वर्षों बाद अमल हो पाया। उत्तर मिलेगा, लेकिन नकारात्मक। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी होना। समावेशी विकास, सबको साथ रखने का ज़िक्र सिर्फ़ व्यवस्थाएं आज भी कागज़ी या फ़िर मौखिक बयानों में ही करती हैं। जो लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। समाज का एक तबक़ा तीव्र विकास कर रहा है। देश में पूँजी का प्रवाह कुछ सीमित हाथों तक सिमटता जा रहा है। वही एक तबक़ा ऐसा भी है, जिसे रोजगार, बेहतर तालीम के लिए भटकना पड़ रहा। इसके अलावा 27 से 35 रुपए प्रतिदिन कमाने वालों की स्वास्थ्य सेवाओं की देखभाल सरकारें न कर पाएं, तो फ़िर लोकतांत्रिक व्यवस्था को जनोन्मुखी कहलाने का हक शायद नहीं।

सरकारें जनोन्मुखी और सर्वसमाज के विकास पर अपना ध्यान केंद्रित भी क्यों करें। समाज ही अपने-आप में बंटता जा रहा। वह एक बनी-बनाई धुरी पर नाचता दिख रहा है। राजनीति के जयचंद उसे जिधर घुमा देते हैं। वह उधर ही नाचने लगता है। स्वविवेक से काम लेती हुई अवाम दिखती नहीं। आज तो जिस हिसाब से आपराधिक प्रवृत्ति के लोग संसद पटल पर जाते हैं। उसे देखकर तो यहीं कहा जा सकता है, कुएं में भांग पड़ी वाली कहावत समाज के लोगों पर सटीक बैठती है। जब अपराध से जुड़े और अंगूठा टके व्यक्ति लोकतंत्र के मंदिर में जाएंगे। तो उनसे ख़ाक उम्मीद की जाएं, कि वे बेहतर नीतियों का निर्माण कर देश और समाज को नई दिशा देने का काम करेंगे। क्या आज हमारे समाज और देश में बौद्धिक और स्वच्छ छवि के व्यक्तियों का अकाल पड़ गया है, जो अंगूठाछाप को अपना सिर-मौर बना रहे।

अब बात एक ऐसे विषय की कर लेते हैं, जिससे सीख पूरे देश की रहनुमाई व्यवस्था को लेनी चाहिए। फ़िर वह केंद्र की व्यवस्था हो, या राज्य की। माना कि पश्चिम बंगाल में ममता राज में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। फ़िर भी जो नेक पहल कुछ समय पूर्व ममता सरकार ने की है। उस पर अमल सभी सरकारों को करना चाहिए। आज के तत्कालीन दौर में ग़रीबी- अमीरी के बीच देश में फासला चौड़ा होता जा रहा। ग़रीब और ग़रीब हो रहा। वह भी उस दौर में जब हर दिन अनगिनत बार राजनीति ज़िक्र ग़रीबों का करती है। फ़िर भी उसकी तस्वीर और तक़दीर नहीं बदल रही। तो क्या कहें, कि नीतियां सिर्फ़ कागज़ी हो चली है। देश के लगभग हर राज्य साल-दर-साल कर्ज़ में डूबते जा रहें हैं। यह कर्ज़ चुकता नहीं, कि राज्य नया कर्ज़ लेने की नई तकनीक ढूढ़ने की पुरजोर कोशिश करने लगते है। आज कुछ राज्यों की स्थिति ऐसी है, कि कर्मचारियों की तनख्वाह देने के लिए भी कर्ज़ लेना पड़ रहा है। यह हुई एक पहलू की बात। अब सिक्के के दूसरे पट की बात करते हैं।

देश में आए दिन मंत्रियों और माननीयों के तनख्वाह आदि में वृद्धि का ज़िक्र फ़िर कहाँ से आ जाता है। सरकारी फण्ड पर हनीमून मानते माननीय आप को आसानी से दिख सकते हैं। ऐसे में पहला प्रश्न यहीं जब लोकतंत्र जनता का जनता के लिए, जनता द्वारा शासन व्यवस्था है। फ़िर अवाम के पैसों पर विलासितापूर्ण जीवन जीने की छूट मंत्रियों और माननीयों को कौन दे देता है। तो ज़िक्र पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ, तो फ़िर उसी राज्य पर आते हैं। पश्चिम बंगाल भी कर्ज के तले दबा हुआ है। यह कर्ज़ वाम मोर्चे की सरकार के दौरान से ही बढ़ना शुरू हुआ था। जो आज भी जारी है। इसी बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक बेहतर कदम उठाया है, उसकी जितनी तारीफ की जाएं। वह कम होगी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के माननीयों द्वारा किए जाने वाले फिजूलखर्ची पर लगाम लगाने की दिशा में व्यापक कदम उठाया है। जो देर से ही सही, लेकिन दुरस्त आयद है। जिस पर अमल पूरे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को करनी चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि देश की रहनुमाई व्यवस्था कई बार तमाम टीमों का गठन करती है, सर्वे करके नई बात आदि का पता करके आने की। फिर उस पर अमल करने की। पर वास्तव में उसके द्वारा कोई काम हुआ दिखता नहीं। फ़िर यह पैसे की बर्बादी नहीं तो क्या है।

ऐसे में ममता सरकार ने सरकारी अधिकारियों और माननीयों के फिजूलखर्ची पर नकेल कसने का काम किया है। दो या दो से आदि मंत्रालयों को संभालने वाले अधिकारियों और मंत्रियों को सिर्फ़ एक ही गाड़ी मिलेगी। माननीयों के विदेशी दौरे का प्रस्ताव बिना मुख्यमंत्री की मंजूरी के नहीं भेजें जाएंगे। 12 विभागों को आपस में जोड़ने की कवायद चल रहीं है। सरकारी कार्यक्रमों के आयोजन, आयोजन स्थल की साज-सज्जा पर न्यूनतम ख़र्च, गाड़ी खरीदने में कमी, इकोनॉमिक्स क्लास में उड़ान भरने और होटलों में कॉन्फ्रेंस और बैठके नहीं करने के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिज को बढ़ावा देने की बात कही गई है। तो अगर ममता के इस फ़ैसले का बेहतरी के साथ पालन किया गया, तो सूबे की स्थिति में कुछ बदलाव दिख सकता है। ऐसे में देश के अन्य राज्यों को भी अगर कर्ज़ के बोझ से ऊपर उठना है, और विकास की सही परिभाषा को चरितार्थ करना है, तो ममता सरकार जैसे निर्णय लेने होंगे, तभी विकास सही मायनों में होता प्रतीत होगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896