कविता

मेला –रेला

यह वक़्त
कितना बेरहम
पल में क्या से क्या हो जाता है,
एक हँसता गाता चेहरा
आंसूओं से तर बतर 
चीख पुकार में बदल जाता है,
कुछ देर पहले…बंटी बोला था…
…पापा मैं दशहरा मेला देखने जाऊँगा,
और पापा ने बंटी की ऊँगली पकड़ ली,
अब बंटी ने भी पापा की हथेली जकड ली,
हाँ बंटी मेला देखने जा रहा है,
आज वो फूला नहीं समां रहा है,
हा हा, बंटी बहुत खुश है ,झूम रहा है,
अपने पापा का हाथ, बार बार चूम रहा है,
पापा मैं सुनहरी टोपी लूँगा
और पापा ने ले दी,
पापा मैं गुब्बारा लूँगा ,
और पापा ने ले दिया ,
पापा मैं तीर कमान लूँगा,
और पापा ने ले दिया ,
पापा मैं झूला झूलूँगा ,
पापा मैं जादू खेल देखूँगा ,
पापा मैं कार वाली फोटो खिचवाऊँगा ,
और पापा ने बंटी की हर फरमाइश पूरी की,
बंटी का दिल ख़ुशी से फूला जा रहा था,
उसके हाथों में खिलोने थे ,मिठाई खा रहा था ,
इतने में रावण का पुतला जलने लगा
खूब पटाखे खूब आतिशबाज़ी
खूब रौशनी और शोर
हर तरफ भीड़ ही भीड़
बुराई पर अच्छाई का विजय पर्व
ख़ुशी की लहर
पर यह वक़्त , कितना बेरहम
हाँ
यह वक़्त कितना बेरहम
पल में क्या से क्या हो गया
पल में सब कुछ बदल गया
हँसता गाते कितने मासूम
लहू लुहान टुकड़ो में बट गए
यह वक़्त तो ऐसे ही गुजर जायेगा
पर जो चिराग बुझ गए
क्या वक़्त फिर रोशन कर पायेगा

— जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया जन्म दिन --१४/२/१९४९, टेक्सटाइल इंजीनियर , प्राइवेट कम्पनी में जनरल मेनेजर मो. 9855022670, 9855047845