कविता

उफ्फ़ गर्मी …

सूरज का कोप गर्मी बन बरस रहा

   धरती का आँचल पानी बिन तरस रहा

   वक्र हवा सर्पिणी सी फुत्कार रही

   खुला तो खुला छाँव भी अंगार रही

   हर वर्ष मौसम बदले रुख अपना

   स्वार्थी इंसान ना बदले सुख अपना

   प्रकृति से बेरुखी इसे बता देगी

   ना समझा तो एक दिन मिटा देगी

   सभी कर्म रहे इसके कुकर्म अपने

  समझ प्रकृति के प्रति धर्म अपने

  पेड़ लगा समझ ये जीवन रेखा है

  पेड़ विहीन धरा मृत्यु का लेखा है

                              – व्यग्र पाण्डे

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201