कहानी

रजिस्ट्री

माइग्रेन का दर्द रह-रह कर उठता था,डर लगता था कहीं बेहोश न हो जाय। अभी तो काफी लम्बा रास्ता है कहीं गिर गयी तो ! सोचा था कि गाड़ी से आउंगी पर ऐन वक्त पे ड्राईवर धोखा दे गया ,कमबख्त को आज ही छुट्टी लेनी थी। आज ही आना भी जरूरी था क्योंकि रजिस्ट्री में विटनेस बनने के लिए लखनऊ से सीमा भी आ रही थी,बाकी सारी कार्यवाहियां भी आज ही पूरी होनी थी। कितनी बार समझाने की कोशिश की थी उसने ?आखिर तुम यह सब किसके लिए कर रही हो ?अपनी आज की जरूरतों को भूल कर केवल भविष्य की ही चिंता करना कौन सी अक्लमंदी है ?फिर कोई हो भी तो जिसका भविष्य सोचा जाय ? ठीक ही तो कहा था सीमा ने, “कनक तू पागल है ,प्लाट खरीदेगी,घर बनवाएगी पर वहां तेरे साथ रहेगा कौन ?ये भी सोचा है कभी ?बिना प्राणियों के कभी घर बनता है!चिड़िया भी तभी घोंसला बनाती है जब उसे अंडे सेने होते है पर जब तूने किसी को अपने से जोड़ा ही नहीं तो क्यों खुद को चहारदीवारी में कैद करना चाहती है,जब अकेले ही रहना है तो स्वच्छंदता से उड़ न आसमान में। कम से कम अपने अकेलेपन को आजादी में ही बदल ले। कनक पर जैसे इन बातों का कोई असर ही नहीं हुआ जाने क्यों उसे लगता था कि सर पर हाथ रखने वाला भले कोई न हो पर सर के ऊपर छत तो अपनी ही होनी चाहिए । हो सकता है ज़िन्दगी का थोड़ा खालीपन कुछ ईंटों से भर जाय। वह कैसे समझती सीमा को कि आजादी भरे खुले आसमान में उड़ने का मजा भी तभी है जब साथ –साथ उड़ने वाला न सही, रेस लगाने वाला ही कोई हो।
उसे वो दिन याद आने लगा जब संगम की रेत उसके सारे सपनों को उड़ा ले गयी थी । श्रवण ऐसा कैसे कर सकता था ? जाने कितनी रातें फोन कान में लगाकर ढेरों सपने देखते हुए उसके साथ गुजारी थीं।शायद वो माँ बाप का कहना मानकर अपने नाम को चरितार्थ करने की कोशिश कर रहा था।
“तुम्हारी सगाई हो गयी और तुम अब मुझे बता रहे हो ?”पूरी ताकत से एक भरपूर तमाचा मारा था कनक ने ताकि मन की आग कुछ ठंडी हो सके। पांचों ऊंगलियों की छाप श्रवण के गालों पर उभर आई । पर अफ़सोस उसके दिल तक उनकी छाया भी न पहुँच सकी।मार लो अगर मारने से ही तुम्हारा गुस्सा ठंडा हो जाये तो ! काश ये केवल गुस्सा होता ! पीछे हटते हुए कनक लडखडा सी गयी । अगले ही पल श्रवण दृढ होकर बोला “अरे तो घर वाले नहीं माने तो मैं क्या करूँ, फिर मेरी भी तो समाज में कुछ इज्जत है ?”
ये सब सुनने से पहले ही वो आगे बढ़ गयी थी । संगम की रेती से सड़क तक पहुँचते-पहुँचते हांफ गयी थी सड़क की चढ़ाई मालूम होती थी जैसे कई फीट ऊँची हो।
“क्या यार कनक,अभी तूने पिछले पैसे लौटाए नहीं और फिर उधार मांगने लगी !” वो..वो मुझे मोबाइल में डलवाने थे न , तू तो जानती है न रेखा, कि उनसे बात किये बिना मैं रह नहीं पाती , पता नहीं उम्होंने खाना खाया कि नहीं ?कभी वो भी तो अपने पैसे खर्च करके तुझसे बात कर सकता है न ? या ये सिर्फ तेरी ही जिम्मेदारी है ? क्या केवल तूने ही प्यार किया है ?
धीरे-धीरे वो सारी ही बातें उसे झकझोरने लगीं। जो उसे इस सच से रुबरु कराती रहती थीं,पर उसे तो हमेशा ही वो सब बकवास लगता था । इन लोगों को किसी ने प्यार नहीं किया न शायद इसीलिए मेरे प्यार से जलती हैं । जब देखो तब नेगेटिव ही बोला करेंगी, मेरी ही गलती है मुझे ही इन लोगों से कुछ शेयर नहीं करना चाहिए था । एक्चुअली मुझे कभी-कभी इनका सहारा चाहिए होता है इसलिए बताना भी मेरी मजबूरी हो जाती है । जो चटाता खिलाता रहता है उसका सब ठीक लगता है । अभी पिछले महीने मेघा के साथ हॉस्पिटल जाना था तो सब में होड़ लगी थी कि कौन उसका सबसे बड़ा हितैषी बनेगा । सब हो भी गया और किसी को पता भी नहीं चला ।
बड़े बाप की बेटी थी मेघा इसलिए पूरे हॉस्टल की लडकियाँ उसे हाथों हाथ लिए रहती थीं । सबको खूब खिलाती पिलाती थी । और मौका पड़ने पर फाइनेंसियल हेल्प भी कर देती थी l उसके पास कोई कमी तो थी नहीं । घर पे एक फ़ोन किया और अकाउंट में पैसा हाजिर । अपने घर वालों से लेकर पूरे हॉस्टल को अपनी ऊंगलियों पर नचाने वाली मेघा पता नहीं कब जीत के इशारों पर नाचने लगी थी । बड़ी कला होती है लडकों में किसी को भी अपने हिसाब से ढालने की तभी शायद सृष्टि के जन्म से अब तक सब कुछ उन्हीं के हिसाब से होता आया है इसीलिए तो स्वर्ग फल का स्वाद मिला आदम को और होव्वा को मिली पतन का द्वार होने की संज्ञा ।
उठने से लेकर सोने तक के मेघा के सारे क्रिया कलाप जीत के हिसाब से ही होते । जब सब लोग पूछते कि मेघा तू इतना एडजस्ट करना कब से सीख गयी तो वह मुस्कुराकर कहती ये एडजस्टमेंट थोड़ी है ये तो प्यार है,प्यार सब बदल देता है । जीत ने सच में मुझे जीत लिया है । पर उसे क्या पता था कि जीत के साथ जीत का जश्न मनाते मनाते जिंदगी को हारने की नौबत आ जाएगी । प्यार का पाठ पढ़ते पढ़ते एक दिन जब इम्तिहान की घडी आई तो अचानक ही उसे अपने बेटे के कर्तव्य याद आने लगे थे पर ऐसा नहीं था कि उसे मेघा की कोई फ़िक्र नहीं थी वो फ़र्ज़ भी उसने निभाया था । पांच सौ रुपये खर्च कर के कुछ टेबलेट्स लाकर दी थी,फिर भी मेघा को लगा कि वह उसे धोखा दे रहा है । अब वो इससे ज्यादा क्या कर सकता था ? उसका प्यार निभाने का ये तरीका न तो मेघा के गले उतरा था न ही उसकी किसी दोस्त के । अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के बाद जीत ने दुबारा कभी मेघा से न मिलने का फैसला किया। मेघा भी अब प्यार के और इम्तिहान देने की स्थिति में नहीं थी ।
कनक सोचने लगी, काश ! मेघा की तरह मेरा भी ये हर क्षण चलने वाला इम्तिहान ख़त्म हो जाता, जैसे मेघा सब कुछ भुलाकर हंसने बोलने लगी थी वैसा मेरे साथ क्यों नहीं होता । आज अपनी कमाई से आशियाना बना रही हूँ तो भी मन में इतनी ख़ुशी नहीं हो रही जितनी श्रवण का हाथ थाम कर चलने में होती थी । वो सुकून था उसकी बाहों में जो शायद बचपन में माँ की गोद में मिला करता था । उस समय बस लगता था कि वक्त यहीं रुक जाये और ये पल ही पूरी जिंदगी बन जाये । श्रवण थे भी कितने अच्छे?थे क्या हैं ही अच्छे । मेरा साथ नहीं निभा पाए तो उससे उनकी अच्छाई में कोई कमी थोड़ी आ सकती है । यहाँ तक शादी करने के बाद भी उन्होंने मेरा साथ नहीं छोड़ा,वो तो मैंने ही मुक्त कर दिया उन्हें अपनी जिम्मेदारियां निभाने के लिए । क्या करते वो भी तो मजबूर थे जब मैं अपने माँ-बाप की ज़िम्मेदारी के आगे आज छह साल बाद भी और कुछ नहीं सोच पायी हूँ तो वो कैसे नहीं झुकते अपने माँ-बाप के आगे?
चलो कनक,बस स्टॉप आ गया ।पापा की आवाज से ध्यान टूटा । बस से उतरी तो सामने भैया खड़े थे । पापा,ये क्या करने आये हैं यहाँ ? इन्हें किसने बुलाया?आगे चलो बताता हूँ । पापा ने उसे शांत करने की कोशिश की । कनक के मन में ढेरों प्रश्न घुमड़ने लगे । बस स्टॉप से थोड़ा आगे बढ़कर एक रेस्टोरेन्ट था पापा ने वहां पहुंचकर उसे बैठने के लिए कहा और खुद सामने वाली सीट पर बैठ गये । देख बेटा,मैंने तेरे भविष्य को ध्यान में रखकर कुछ सोचा है अगर तू मान ले तो बहुत अच्छा होगा । मैं और तेरी मम्मी तो अब ज्यादा दिनों के मेहमान हैं नहीं आगे की जिंदगी के लिए तुझे भी तो किसी का सहारा चाहिए होगा या नहीं । अब तो शादी के लिए भी तेरी उम्र निकल चुकी है । माना के तू कमाती है पर आखिर है तो लड़की ही । अकेले कैसे रहेगी ? और अगर कोई तुझे सहारा देता है तो तुझसे कोई उम्मीद भी कर सकता है और न भी करे तो तेरा क्या फ़र्ज़ है ?रुपया-पैसा जायजाद अगर परिवार के काम न आए तो क्या फायदा?मेरी बात मान बेटा,प्लाट की रजिस्ट्री भैया के नाम करा दे । पर पापा,आपको और मम्मी को उन्होंने घर से निकाल दिया तो मुझे क्या सहारा देंगे ? कनक अपने आंसूओं को रोकते हुए बोली
अरे तो उसने निकाल दिया तो तूने रख लिया क्या फर्क पड़ता है । तू अकेली भी तो थी हम साथ रहे तेरे तो अच्छा ही हुआ न । श्रवण जैसा कोई धोखेबाज फिर से तो नहीं मिला तुझे । देख,मैंने और मम्मी ने बहुत सोच-समझकर ये सोचा है तेरे लिए अगर तुझे मानना है तो मान वरना जो जी में आये कर ।
इतना कहकर पापा उठे और काउंटर पर चाय का बिल चुकाकर बाहर निकल गये l कनक वहीं बैठी रह गयी उसे रह-रहकर सीमा की बातें याद आ रहीं थीं ……………..

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश