कविता

बाढ का कहर

मुझे राहत नहीं
निजात दिला दो
कोई तो सदा के लिए
बाढ का हल बता दो।
विज्ञान के इस युग में
कैसी यह नीति है
अचानक बाढ़ आ जाती
सिस्टम सोती रहती है।
सबकुछ बहा ले गया
जो तिनका-तिनका जोड़ा
प्रलंयकारी बाढ में अबतक
न जाने कितनों ने दम तोड़ा।
हर वर्ष दावे लाख मगर
नहीं होता कोई असर
बारिस आते ही सिर्फ
बाढ़ ढाती कहर-बस-कहर।
क्या क्या न सहना पड़ता
हर वक्त मौत के आगोश में रहना पड़ता
भोजन पानी और आवास के अभाव में
साँप विच्छु के संग भी रहना पड़ता।
वारिस आती भींगा जाती
धूप निकलती सूखा जाती
बाढ़ के इस दंश में
निर्दयी की भी आँसू निकल आती।
भूख प्यास से व्याकुल
टकटकी लगाये रहते है
पहले जान फिर पेट का ध्यान
में कितने रोज भूखे सो जाते हैं
कई सालो की कमाई
अन्न कपडे बह ले जाती
पानी खिसकने के बाद
अनेक रोग और मुसीबत दे जाती।
आशुतोष

आशुतोष झा

पटना बिहार M- 9852842667 (wtsap)