विज्ञान

आधुनिक बनाम पुरातन ज्ञान-विज्ञान

जब कोई खगोलीय घटना घटती है तो विभिन्न टी.वी. चैनलों पर वैज्ञानिकों और आध्यात्मिक गुरुओं के बीच वैचारिक संघर्ष साफ दिखाई देता है। लगता है दोनों में एक – दसरे को पछाडंने की होड़ लगी है। अगर में यह कहूँ कि इस मामले में मैं अक्सर स्वयं को वैज्ञानिकों के नहीं बल्कि कथित आध्यात्मिक गुरुओं के साथ खड़े हुए पाता हूँ तो आपको आश्चर्य होगा। हालाँकि यह स्वीकारोक्ति जोखिम भरी औऱ स्वयं को पोंगा-पंथी और दकियानूस कहलवाने के लिए पर्याप्त है।

मेरा ऐसा सोचना इसलिए नहीं कि वे कथित आध्यात्मिक गुरु ज्यादा विद्वान हैं, सच तो यह है उन्हें अपने क्षेत्र का जितना ज्ञान होना चाहिए था, जो हमारे प्राचीन विज्ञान ग्रंथों और वेदों में है, ज्यादातर को तो उसका अंश मात्र भी नहीं है। एक तो यह कि जिसे हम आस्था के नाम पर मानते चले आ रहे हैं, वह प्राचीन ज्ञान-विज्ञान और उसके ग्रंथ उपलब्ध ही नहीं, जो हैं तो उनके अध्येता और जानकार नहीं। दूसरी गड़बड़ यह होती है कि प्राय: ऐसी चर्चा परिचर्चाओं में आधुनिक विज्ञान के धुरंधरों के सामने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के विद्वानों के बजाए पूजा-पाठियों और पुजारियों को बैठा दिया जाता है। इनमें से कुछ के पास तो प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का  कतई ज्ञान नहीं होता, केवल आधी – अधूरी धार्मिक मान्यताओं के आधार पर काल्पनिक मिथकों पर वे बेतुकी बात करते हैं। हालांकि कुछ वैज्ञानिक दृष्टि से सारगर्भित बात भी रखते हैं। लेकिन आधा –अधूरा ज्ञान वैज्ञानिक तर्कों के सामने, कैसे टिके, कब तक टिके।  इसके चलते पूरे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को हास्यास्पद और अंधविश्वास का जामा पहना कर इसका मजाक बना दिया जाता है।

आध्यात्मिक गुरुओं के पक्ष में इसलिए क्योंकि उन्हें जितना भी ज्ञान हो वे वे भौतिक विज्ञान को स्वीकारते हुए अपनी बात रखते हैं। लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक वर्तमान भौतिक विज्ञान के निष्कर्षों से इधर-उधर देखने और सोचने को कतई तैयार नहीं हैं। वैज्ञानिक जो तथ्य बता रहे हैं, वे आधुनिक युग के अब तक के तमाम अध्ययनों और अनुसंधानों के अनुसार पूर्णतय: सही हैं। जब कभी मैं प्रचलित विभिन्न प्राचीन मान्यताओं संबंधी सभी तथ्यों को देखने समझने का प्रयास करता हूँ तो यह पाता हूँ कि वैदिक युग में तत्कालीन वैज्ञानिक,  आविष्कारक जिन्हें हम ऋषि या महर्षि कहते हैं, उन्होंने सूक्ष्म तरंगों और सूक्ष्म प्रभावों पर भी गहन अध्ययन किया होगा, इसलिए हजारों वर्षों बाद भी देश में मान्य व प्रचलित हैं। जो धर्म, ज्योतिष और परंपराओं आदि के माध्यम से रूप में हम तक पहुँचता है।

विचारणीय है कि अतीत में ज्ञान-विज्ञान व कला के अनेकानेक क्षेत्रों, भाषा, साहित्य, संगीत आदि में हमारा जो स्तर रहा है, वैसा दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देता। यह हमारी तत्कालीन बौद्धिक क्षमता और वैज्ञानिक दृष्टि के बिना संभव ही नहीं। तक्षशिला और नालंदा आदि प्राचीन वैश्विक विश्वविद्यालयों को जलाए जाने तथा उस ज्ञान-विज्ञान आदि के मिटने या उसे मिटाए जाने के कारण हम अधिकांशत: अज्ञान के अँधकार में हैं। अब जो कुछ हमें मिल रहा है वह पूर्णत: पाश्चात्य देशों से आया है। यहाँ यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि रामयाण काल में विमानों के प्रयोग का वर्णन है। आधुनिक विज्ञान ने रावण के पास वायुसेना होने की बात कही है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में विमान बनाने की विद्या का वर्णन भी है। ब्रह्मास्त्र वर्तमान परमाणु मिसाइलें नहीं तो क्या हैं?

महाभारत काल के ग्रंथों में द्वारिका के डूबने की बात को केवल किवदंती माना जाता रहा है लेकिन कुछ वर्ष पूर्व गोवा के ‘राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान’ के वैज्ञानिक ने इस संबंध में खोज की तो उन्होंने वर्तमान द्वारिका के निकट समुद्र में उस युग के एक उन्नत सुनियोजित नगर के अवशेष मिले। इसलिए पुरातन काल के तथ्यों को प्रमाणों के अभाव में किवदंति, कल्पना या अंधविश्वास कह कर नकारना उचित प्रतीत नहीं होता। इसी काल में युद्ध का प्रसारण व उसका आँखों देखा हाल बताने का भी वर्णन है, जिसे कभी कवि की कल्पना माना गया, लेकिन अब सब यथार्थ है।  वैदिक गणित को आज का ज्ञान-विज्ञान बहुत सम्मान देता है। बात दशमलव के आविष्कार की हो या शून्य की, दोनों प्रचीन काल में भारत की ही देन हैं। इन्हीं पर समग्र विज्ञान ही नहीं अर्थ जगत टिका है। इस प्रकार हमारे गणित, भोतिकी, खगोल, चिकित्सा, वास्तु, दर्शन, आदि विभिन्न क्षेत्रों में अति उन्नत ज्ञान-विज्ञान के हजारों उदाहरण हैं। इन पर कुछ सवाल तो खड़े किए जा सकते हैं लेकिन इन्हें नकारा नहीं जा सकता।

प्रश्न यह है कि खगोलीय घटनाएँ या प्रकृति में घटित होने वाली अन्य घटनाओं के वे सूक्ष्म प्रभाव, वे परंपराएं व मान्यताएँ जिन्हें हम आधुनिक विज्ञान के माध्यम से नहीं समझ पा रहे, या फिलहाल उनका विश्लेषण नहीं कर पा रहे, उनके बारे में चिंतन-मनन विश्लेषण करने के की आवश्यकता है। विचारणीय है कि अगर हमारे यहाँ प्राचीन काल में खगोल शास्त्र का ज्ञान नहीं था तो हमारे पंडित सैंकड़ों -हजारों साल से चले आ रहे अपने पतरे देख कर अनेक जानकारियाँ, ग्रहण और अन्य जानकारियाँ कैसे दे देते हैं। हम हजारों साल से जानते और मानते हैं कि पृथ्वी गोल है और सूर्य  पृथ्वी के चारों और नहीं पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। लेकिन पाश्चात्य जगत न तो पहले यह जानता था न मानता था।

इसी प्रकार एस्ट्रोनोमी यानी नक्षत्र विज्ञान को तो आधुनिक विज्ञान मानता है, लेकिन उस पर आधारित एस्ट्रोलॉजी यानी ज्योतिष शास्त्र को नहीं जो कि एस्ट्रोनॉमी यानी नक्षत्र विज्ञान पर ही आधारित है। स्वभाविक भी है क्योंकि उस विज्ञान का तार्किक आधार उपलब्ध ही नहीं है। यही नहीं इस क्षेत्र में विद्वानों के बजाए अनाड़ियों की फौज ने इस शास्त्र की विश्सनीयता को और तली में बैठा दिया है। लगे हाथों यहाँ यह बताना भी आवश्यक होगा कि उन्नत आधुनिक आयातित ज्ञान, उसके लिए उपलब्ध आधुऩिक आयातित उपकरणों और उसके लिए आधुनिक शिक्षा और करोड़ों रुपए महीने के खर्च के बाद मौसम-विज्ञानियों की मौसम की भविष्यवाणियाँ कितनी सही निकलती हैं, विशेषकर वर्षाकाल में, यह हम सब जानते हैं। मौसम विज्ञानी कहते हैं मौसम का तो अनुमान ही लगाया जा सकता है, वह सौ प्रतिशत सही निकले, आवश्यक नहीं। फिर ऐसी अपेक्षा केवल ज्योतिषचार्यों से ही क्यों? फिर आज के ज्योतिषचार्यों का जहाँ तक प्रश्न है, जानकार कम और पौंगा –पंडित अधिक हैं।

इसकी एक वजह यह भी है कि पहले इस ज्ञान को पाने के लिए अति बुद्धिमान विद्यार्थी जाते थे और सालों-साल गहन अध्यन करते थे, गणितीय गणनाओं के आधार पर अभ्यास करते थे। जबकि अब स्थिति एकदम प्रतिकूल है। अगर आम आदमी भरोसा करे भी तो किस पर? इसलिए इन पर ज्यादा विश्वास करना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता। इसका अर्थ यह कतई नहीं हैकि मैं एस्ट्रोलॉजी को पूरी तरह नकार रहा हूँ। क्योंकि कई बार मैंने निजी जीवन व राष्ट्रीय स्तर पर कई विद्वान ज्योतिषाचार्यों द्वारा पूरे विश्वास के साथ की गई बहुत ही सटीक और बड़ी  भविष्यवाणियां देखी हैं, जो कि हमारी या किसी की  भी कल्पना तक में नहीं थीं। भुज (गुजरात) के भूकंप और कोयना (महाराष्ट्र) के बड़े भूकंपों की आहट भी तमाम वैज्ञानिक, ज्ञान-विज्ञान, आधुनिक मशीनें न पता लगा सकी थीं, जिन पर अरबों रुपए खर्च होते हैं। इसके विपरीत एक – दो ज्योतिषाचार्यों द्वारा जिसकी भविष्यवाणियाँ ने ठीक उसी रूप में की और भूकंप के पूर्व अखबारों में छपी भी। हालांकि उन पर किसी ने विश्वास नहीं किया था। लेकिन आज ज्यादातर ज्योतिषों नीम हकीम खतरा-ए-जान और तुक्केबाज हैं। कुछ तो केवल पुजारी हैं। साथ में यह धंधा भी चलाते हैं, औऱ उनका भी धंधा चलता है,  यही नहीं विद्वान ज्योतिषों से अच्छा। वैसे ही जैसे कि कम पढ़े अधकचरे डॉक्टर अक्सर अच्छे डॉक्टरों से ज्यादा कमा लेते हैं। दोनों जगह मामला आस्था और विश्वास का है।

बहुत सी बातें हमारी परंपरा में हैं,  जिन्हें धर्म से जोड़ दिया गया है, उनका धर्म से कोई संबंध न होकर हमारे प्राचीन विज्ञान से है। नीम, पीपल, वट वृक्ष को ऑक्सीजन के स्रोत के श्रेष्ठ स्रोत होने के कारण, तुलसी को उसके औषधीय गुणों के कारण, गंगा के पानी को उसके विशेष गुणों के कारण, गाय के दूध और उससे बने पदार्थों तथा गौमुत्र के औषधीय गुणों के कारण, गोबर को खाद के सर्वाधिक उपयुक्त होने के कारण, इन सब को धर्म से जोड़कर पूजनीय बना दिया गया ताकि मनुष्य इन्हें नष्ट न करे, इनकी रक्षा करे, इनका लाभ उठाए। कुल मिलाकर अधिकांश लोग इनसे लाभान्वित हों इसलिए इन्हें धर्म से जोड़ दिया गया। बाद में हमारे ब्राह्मणों ने उसे पाप और पुण्य से जोड़ दिया। मनुष्य स्वभाव से लोभी है इसलिए कुछ लोगों ने ऐसी कुछ परंपराओं को अपने लाभ-लोभ के लिए इनमें कुछ हेर-फेर भी किया होगा। ग्रहण आदि में आज के वैज्ञानिक जो बातें कर रहे हैं वे स्थूल विज्ञान की हैं और अपनी जगह सही हैं। लेकिन मुझे लगता है कि हमारे यहां वैदिक काल में या उससे पूर्व स्थूल ही नहीं सूक्ष्म विज्ञान पर भी गंभीर व गहन अध्ययन हुआ है। जिससे सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण आदि के समय किरणों के मानव मानव शरीर के साथ-साथ पशु-पक्षियों और वनस्पतियों आदि पर प्रभाव को भी वर्णित किया गया है। दूसरी बात यह है कि आवश्यक नहीं कि सूक्ष्म प्रभाव केवल शरीर पर ही हों। हमारे यहां तो प्रभाव को भी सूक्ष्म प्रभावों के रूप में मन बुद्धि और विचारों तक पर रखा गया है।

इसी संदर्भ में मैं यहां एक और बात विचारणीय है। हमारे यहां हजारों साल से यह माना जाता रहा है कि पेड़-पौधों में जीवन होता है। इसीलिए हमारी माँ-दादी हमेशा कहती थी कि पेड़ पौधे सो रहे हैं, पत्तियां मत तोड़ो। पेड़ काटेंगे तो उसे दर्द होगा, वह मर जाएगा। पेड़ पौधों की जड़ों में पानी डालने से पुण्य मिलता है, वगैरह। लेकिन पेड़ पौधों में जीवन होता है,  पाश्चात्य विज्ञान ने इस बात को तभी स्वीकार किया जबकि जगदीश चंद्र बसु ने आधुनिक विज्ञान के मापदंडों पर इसे सही साबित किया। हालाँकि धार्मिक आस्था और परंपरा के कारण जगदीश चंद्र बसु की माँ-दादी और उनसे पूर्व हजारों पीढ़ियों तक को यह बात पहले से पता थी, भले ही वे शिक्षित रही हों या अशिक्षित । इसलिए इन बातों को केवल अंधविश्वास कहकर उसे पूरी तरह नकारना और उसके अध्ययन शोध के दरवाजों को बंद करना, इसे सही नहीं माना जा सकता।

वैदिक काल में रचित वेद और अन्य ज्ञान विज्ञान और अध्यात्म के ग्रंथ पूर्णत वैज्ञानिक पद्धति पर किए गए अनुसंधान के ग्रंथ हैं । यह कहना कि उन्होंने जो कहा वह कोरी कल्पना थी, यह उचित  प्रतीत नहीं होता। ग्रहण के संबंध में हमारी प्राचीन वैज्ञानिकों व ऋषियों आदि ने जो अनुसंधान किया उसके अनुसार ग्रहण के समय सूर्य से निकलने वाली किरणों का प्रभाव न केवल आंखों पर बल्कि हमारे पूरे शरीर पर, खाने पीने की वस्तुओं आदि पर भी उनका सूक्ष्म प्रभाव होता है। सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण आदि के समय किरणों के मानव मानव शरीर के साथ-साथ पशु-पक्षियों और वनस्पतियों आदि पर प्रभाव को प्रस्तुत किया गया है। पूरे सौरमंडल पर विभिन्न प्रकार से उसके प्रभाव पड़ते हैं। जहाँ तक ग्रहण व सूतक आदि के दुष्प्रभावों की बात है, मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि सूतक और ग्रहण के प्रभावों को न मानने वालों पर प्रभाव तो पड़ता है लेकिन ऐसा भी नहीं कि कोई आंखों को छोड़कर किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हो जाए। इसलिए मैं इसे कोई गंभीर चिंता का विषय भी नहीं मानता। लेकिन अपनी प्राचीन परंपराओं के चलते यदि मैं इनका पालन किया जाए तो मुझे नहीं लगता इनका कोई नकारात्मक प्रभाव है।

यदि मैं धर्म की दृष्टि से ग्रहण से मुक्त होने के पश्चात स्नान करके दान भी कर देता हूँ तो भी उससे मेरा और समाज दोनों का भला ही है। मुझे तो यह लगता है कि विभिन्न अवसरों पर दान देने की बात को धर्म से इसलिए जोड़ा गया होगा ताकि इससे समाज के निर्धन और वंचित वर्ग की मदद होती रहे। इसमें भी मुझे तो कोई बुराई नजर नहीं आ रही। वे निर्धन लोग जो इस बहाने कुछ पाने की अपेक्षा रखते हैं, तो उन्हें कुछ देने में गलत क्या है। दान नहीं देंगे तो कोई पाप हो जाएगा, ऐसा भी नहीं। लेकिन दान देने के पश्चात दान पाने वाले के चेहरे पर जो चमक और खुशी आती है, उससे कुछ न कुछ खुशी तो हमें भी मिलते ही होगी उसके लिए ही सही।

ज्ञान-विज्ञान में कुछ भी अंतिम नहीं होता। हम उतना ही बताते या बता सकते हैं, जहाँ तक हम जानते-समझते हैं। इसलिए वैज्ञानिकों को भी इन मान्यताओं व संभावनाओं को पूर्णत: नकारना नहीं चाहिए। मैं तो चाहूँगा कि हमारे बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त कर वेदों और वैदिक काल में रचे गए ज्ञान – विज्ञान संबंधी ग्रंथों में वर्णित स्थूल ही नहीं सूक्ष्म विज्ञान पर भी अध्ययन व अनुसंधान करना चाहिए। इसके लिए आधुनिक सुविधाओं व यंत्रों से युक्त कुछ बड़े उच्च स्तरीय संस्थान बनाए जाएँ, जिनसे आधुनिक वैज्ञानिकों को भी जोड़ा जाए। हमारे, वेदों और तत्कालीन ग्रंथों में जिन मान्यताओं का विवरण है, जिसे आज के वैज्ञानिक अवैज्ञानिक या काल्पनिक कहते हैं, हो सकता है आज से कुछ वर्षों बाद, सौ – दो सौ साल बाद विकास की प्रगति के साथ हम वहां तक पहुँच सकें, उनकी व्याख्या कर सकें । हालांकि मझे लगता है कि वर्तमान में विज्ञान में अग्रणी होने के चलते सूक्ष्म विज्ञान के क्षेत्र में भी भविष्य में पाश्चात्य जगत ही बाजी मारेगा। पाश्चात्य देश न केवल हमारे प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करने में लगे है बल्कि उसमें छिपे ज्ञान-विज्ञान को भी खोज रहे हैं, हमारे विद्वान व वैज्ञानिक प्राय: उनका अनुसरण करते हे, उनके पीछे चलते हैं। क्यों न हम भी अपने प्राचीन ग्रंथों मे विद्यमान ज्ञान-विज्ञान की अनमोल धरोहर को खोजें और उससे लाभान्वित हों।

— डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’

डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'

पूर्व उपनिदेशक (पश्चिम) भारत सरकार, गृह मंत्रालय, हिंदी शिक्षण योजना एवं केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण उप संस्थान, नवी मुंबई