कविता

एकाकीपन

कितना एकाकी हो गया जीवन
कुछ हो गया कुछ बना लिया
जिस बिल्डिंग के तेरहवें फ्लोर के कमरे में लेटा हुआ हूं
वहां से देख रहा हूं चारों तरफ मकां ही मकां
कुछ दो मंजिले कुछ तीन चार मंजिले
आकाश को छूने की होड़ में बनी गगन चुंबी इमारतें भी
चारों तरफ इमारतें ही इमारतें
सीमेंट ही सीमेंट के घरोंदे
इमारतें तो है मगर आहटें नहीं
साए साए करते सन्नाटे
नहीं कही कोई बच्चों की उछल कूद
न युवकों का जमघट
न बुड्ढों का बैठ कर बतियाना
ढूंढ़ रहा ऐसी जगह जहां कुछ हम उम्र लोगों के बीच
बैठ काट लूं समय अपना
मिल जाए कहीं कोई जिसे कह सकू अपना
जुड़ जाए कोई दिल का रिश्ता
नहीं कही दिखती कोई सूरत
सब कैद हैं अपने आप में
कोई इच्छुक नहीं आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाने
सब लेकर बैठे है अपने हाथों में अपना मोबाइल
वाणी चुप बस अंगुली चल रही है
इस माहौल में तो दम अपना घुटने लगा है
हवा भी कुछ बेरुखी हो गई है

ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020