भजन/भावगीत

इन्द्रवज्रा छंद – शिवेंद्रवज्रा स्तुति

इन्द्रवज्रा छंद / उपेन्द्रवज्रा छंद / उपजाति छंद

(शिवेंद्रवज्रा स्तुति)

परहित कर विषपान, महादेव जग के बने।
सुर नर मुनि गा गान, चरण वंदना नित करें।।

माथ नवा जयकार, मधुर स्तोत्र गा जो करें।
भरें सदा भंडार, औघड़ दानी कर कृपा।।

कैलाश वासी त्रिपुरादि नाशी।
संसार शासी तव धाम काशी।
नन्दी सवारी विष कंठ धारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।१।।

ज्यों पूर्णमासी तव सौम्य हाँसी।
जो हैं विलासी उन से उदासी।
भार्या तुम्हारी गिरिजा दुलारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।२।।

जो भक्त सेवे फल पुष्प देवे।
वाँ की तु देवे भव-नाव खेवे।
दिव्यावतारी भव बाध टारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।३।।

धूनी जगावे जल को चढ़ावे।
जो भक्त ध्यावे उन को तु भावे।
आँखें अँगारी गल सर्प धारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।४।।

माथा नवाते तुझको रिझाते।
जो धाम आते उन को सुहाते।
जो हैं दुखारी उनके सुखारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।५।।

मैं हूँ विकारी तु विराग धारी।
मैं व्याभिचारी प्रभु काम मारी।
मैं जन्मधारी तु स्वयं प्रसारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।६।।

द्वारे तिहारे दुखिया पुकारे।
सन्ताप सारे हर लो हमारे।
झोली उन्हारी भरते उदारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।७।।

सृष्टी नियंता सुत एकदंता।
शोभा बखंता ऋषि साधु संता।
तु अर्ध नारी डमरू मदारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।८।।

जा की उजारी जग ने दुआरी।
वा की निखारी प्रभुने अटारी।
कृपा तिहारी उन पे तु डारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।९।।

पुकार मोरी सुन ओ अघोरी।
हे भंगखोरी भर दो तिजोरी।
माँगे भिखारी रख आस भारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।१०।।

भभूत अंगा तव भाल गंगा।
गणादि संगा रहते मलंगा।
श्मशान चारी सुर-काज सारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।११।।

नवाय माथा रचुँ दिव्य गाथा।
महेश नाथा रख शीश हाथा।
त्रिनेत्र थारी महिमा अपारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।१२।।

करके तांडव नृत्य, प्रलय जग की शिव करते।
विपदाएँ भव-ताप, भक्त जन का भी हरते।
देवों के भी देव, सदा रीझो थोड़े में।
करो हृदय नित वास, शैलजा सँग जोड़े में।
रच “शिवेंद्रवज्रा” रखे, शिव चरणों में ‘बासु’ कवि।
जो गावें उनकी रहे, नित महेश-चित में छवि।।

(छंद १ से ७ इंद्र वज्रा में, ८ से १० उपजाति में और ११ व १२ उपेंद्र वज्रा में।)
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लक्षण छंद “इन्द्रवज्रा छंद”

“ताता जगेगा” यदि सूत्र राचो।
तो ‘इन्द्रवज्रा’ शुभ छंद पाओ।

“ताता जगेगा” = तगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु
221 221 121 22
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लक्षण छंद “उपेन्द्रवज्रा छंद”

“जता जगेगा” यदि सूत्र राचो।
‘उपेन्द्रवज्रा’ तब छंद पाओ।

“जता जगेगा” = जगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु
121 221 121 22
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लक्षण छंद “उपजाति छंद”

उपेंद्रवज्रा अरु इंद्रवज्रा।
दोनों मिले तो ‘उपजाति’ छंदा।

चार चरणों के छंद में कोई चरण इन्द्रवज्रा का हो और कोई उपेंद्र वज्रा का तो वह ‘उपजाति’ छंद के अंतर्गत आता है।
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— बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

नाम- बासुदेव अग्रवाल; जन्म दिन - 28 अगस्त, 1952; निवास स्थान - तिनसुकिया (असम) रुचि - काव्य की हर विधा में सृजन करना। हिन्दी साहित्य की हर प्रचलित छंद, गीत, नवगीत, हाइकु, सेदोका, वर्ण पिरामिड, गज़ल, मुक्तक, सवैया, घनाक्षरी इत्यादि। सम्मान- मेरी रचनाएँ देश के सम्मानित समाचारपत्र और अधिकांश प्रतिष्ठित वेब साइट में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिन्दी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं। प्रकाशित पुस्तकें- गूगल प्ले स्टोर पर मेरी दो निशुल्क ई बुक प्रकाशित हैं। (1) "मात्रिक छंद प्रभा" जिसकी गूगल बुक आइ डी :- 37RT28H2PD2 है। (यह 132 पृष्ठ की पुस्तक है जिसमें मात्रिक छंदों की मेरी 91 कविताएँ विधान सहित संग्रहित हैं। पुस्तक के अंत में 'मात्रिक छंद कोष' दिया गया है जिसमें 160 के करीब मात्रिक छंद विधान सहित सूचीबद्ध हैं।) (2) "वर्णिक छंद प्रभा" जिसकी गूगल बुक आइ डी :- 509X0BCCWRD है। (यह 134 पृष्ठ की पुस्तक है जिसमें वर्णिक छंदों की मेरी 95 कविताएँ विधान सहित संग्रहित हैं। पुस्तक के अंत में 'वर्णिक छंद कोष' दिया गया है जिसमें 430 के करीब वर्णिक छंद विधान सहित सूचीबद्ध हैं।)