कविता

ख़ुदा का पयाम

गुज़र रहा था एक गली से मैं जब
बालिका का रुदन सुन मैं थम गया
चादर में लिपटी नन्ही सी थी जान
इस हाल में देख दिल दहल गया
कन्या होने की सज़ा क्यूँ मिली उसे?
लक्ष्मी,पैरों तले कैसे कोई छोड़ गया?
धिक्कार है ऐसे निर्दयी मानव पर
मानवता क्या होती है,जो भूल गया
बड़ी बड़ी बातें करते हैं सभी यहाँ
असल में इंसान काफी पिछड़ गया
अपनी माँ को ढूंढती वो नन्नी आँखें
बहते अश्रों को मुझसे देखा न गया
रो रो कर गला भर आया था उसका
माँ का दूध उसको भुलाया न गया
अपने हाथों में जब उठाया जो मैंने
अश्रों का गिरना मुझसे रोका न गया
कोमल हाथों ने जब थामा हाथ मेरा
जैसे मुझको ख़ुदा का पयाम आ गया
नहीं रहने दूंगा अनाथ मैं अब उसको
लक्ष्मी को ले इन हाथों में,घर आ गया
गर पूजते हो गर में देवियों को तुम फिर
किस हक़ से कन्या को दुत्कारा गया ?
झूठी ये सारी पूजा झूठे सब आडंबर
मानव तू मानवता को ही लील गया ?
— आशीष शर्मा ‘अमृत ‘

आशीष शर्मा 'अमृत'

जयपुर, राजस्थान