कविता

खुले आसमान में उड़ना है तुम्हें

नारी तू नारायणी तू ही है सृष्टि तारिणी
कभी तू माता कभी तू पत्नी कभी बहना बन जाती
यह संसार नहीं होता यदि तू माता बन कर न आती
इतने सारे रूप हैं तेरे फिर भी बेचारी अबला कहलाती
नौ महीने गर्भ में रखती पाल पोस कर बड़ा है करती
खुद भूखी रह जाती है लेकिन उसका पेट है भरती
गीले बिस्तर पर खुद सोती उसको सूखे पर है सुलाती
बच्चों को न कष्ट हो कोई हर पीड़ा को सहती जाती
सुख को पास कभी न देखा आराम चैन का त्याग किया
काम में बीता जीवन सारा सुख का न इक सांस लिया
कब सूरज निकला रात हो गई समय का न कुछ पता चला
औरों के लिए जिया जीवन अपने लिए कुछ नहीं किया
नारी तू कमज़ोर नहीं बस यह तुझ को दिखलाना है
कठिनाई जो आए राह में उनको दूर हटाना है
घूरती नज़रें हैं इधर उधर पग पग पर हैं बाधाएं
पत्थरों को तोड़ कर रास्ता खुद ही बनाना है
दुनिया को राह दिखाई जिसने वो खुद कैसे कमज़ोर है
जहां हो अभी वो नहीं तेरी मंजिल कोई और है
अबला नहीं अब तो तुम चमकता सितारा हो
खुद में एक समुद्र हो नहीं तुम किनारा हो
बीत गए अब वो दिन शोषित नहीं अब नारी है
मंजिल कर रही इँतज़ार पहुंचने की बेकरारी है
खुले आसमान में बहुत ऊंचा उड़ना है तुम्हें
खोल दो पंख अपने अब यह दुनियाँ तुम्हारी है
 
— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र