कविता

कालचक्र

कालचक्र का चक्र चला जब
धरती से अंबर तक कांपा
दांतों तले दबाकर उँगली
संकट भी संकट है भांपा

पृष्ठ पलट के देख वक्त का
धर्म, यहाँ से छला गया छल
वक्त रहे जो जाग न पाया
फिर हाथों को यूँ मला गया
अपनो ने अपनों को काटा
चीख चीख वक्त देत गवाह
प्रमाण देख तू काल गति का
महाभारत में वंश तबाह
जमीन गयी जमींदारों से
ठाकुरों से ठकुराई गयी
राजाओं से भी राज गया
नीति भी यहाँ भुलाई गयी
धराशायी शूरवीर हुए
छाया काल का जब साया
कालचक्र का खेल अनौखा
समझ नहीं अर्जुन भी पाया
सब बाण शक्ति हीन हुए जब
भीलों ने गोपी घेरी है

कालगति को कौन रोकेगा
इंटरनेट विधाता का
, मैनुज में मेल करने का समय
और माता का

काल का काल का मेल खाता है,
ब्रह्म को बदल कर बदल गया है
दक्ष से शिव का
शक्ति को सती किया गया
जनक ने ब्या मां जानकी
सूर्यवंशम पावन कुल
चौरवीवट बदल दिया है । ने
तम सा छा गया एक पल में
सुबह राम को राज मिलेगा
रात रात में वनवास मिला
फूलों में खेली जनकसुता
फिर भी जीवन भर त्रास मिला
हरि अवतारी श्रीराम यहाँ
फिर भी वो वन वन घूमे है
ऊबड़ खाबड़ पथरीले वन
प्रभु चरण कंटक चूमे है
काल गति विधान ने तो विधी
ईश्वर से भी दृष्टि फेरी है

प्रश्न सरल है उत्तर कठिन है
यहाँ काल लेख किसने पढा़
रक्त से सींच कर्मक्षेत्र को
इतिहास उसी ने यहाँ गढा़

युग बीते यहाँ वक्त साक्षी
काल रूप भंयकर देखा
मिटने से मिट ना पाई है
कर्म भाग्य की देखो रेखा
इंद्र को जब अभिमान हुआ
खींच जमीं पे यूं पटक दिया
राजभोग सौभाग्य इंद्र का
नीर सा काल ने घटक लिया
अनकूल चले वक्त हवा तो
रंक को स्वर्ग का राज मिले
गुलामी करें स्वयं काल भी
मूर्ख को भी सरताज मिले
निगाह फेर ले हो प्रतिकूल
फिर राजा भी कंगाल बने
जीत वही पाता है जग में
जो काल का भी काल बने
वक्त चाल वोही काटेगा
जो समझे की फेरी है समय

— आरती शर्मा (आरू)

आरती शर्मा (आरू)

मानिकपुर ( उत्तर प्रदेश) शिक्षा - बी एस सी