कहानी

कहानी – चेल्ले

गाँव में फिर से शोर मच चुका था। वे दोनों फिर से गाँव में आ चुके हैं। पूरे तीन साल वे उस विद्या की अथाह गहराई सीखने गए थे जिसे चल्लंगी कहते हैं। आखिर उन्होंने अपना हठ पूरा किया। दूर सुकेत के अपने गुरु के पास थे इतने दिन, पता नहीं और कहाँ – कहाँ रहे?
गाँव के मानसिक रचना तंत्र में फिर से परिवर्तन आने वाला है, दोनों आखिर तीन साल बाद वापिस लौटे हैं। कहाँ रहे इतने दिन? इन सब बातों को सुनने के लिए अब फिर से पीपल के नीचे डेरा लग रहा है। वहीं वे अपनी कथा सुनाएँगे। चाहे लोग अब थोड़ा परिवर्तन के बादलों के नीचे बसने शुरू हो गए हों पर फिर भी गाँव के बूढ़ों ने पीपल के टियाले के नीचे अपना जमावड़ा लगा लिया था।
हलकू ने बात शुरू कर दी, ‘‘सुना है मंगतुआ, वे दोनों फिर से आ गए हैं गाँव वापिस। अच्छा है, दोनों लड़कांे ने अपने-अपने बाप का काम अच्छी तरह संभाल लिया हैं। इन दोनों के बाप राधे और माधो की भी बड़ी शान थी। जब वे गाँव से निकलते थे तो बड़े – बड़े गाँवों के भूतों चुड़ेलों को रास्ता नहीं दिखाई देता था कि आखिर कहाँ भागें। कई किस्से है उनके कर्माें के। बड़े-बड़े चेल्ले उनके नाम से काँपते थे। बस बेचारे खड्ड में आई बाढ़ से नहीं जीत पाए थे, किसी चल्लंगी से लौटे थे आधी रात को। वे किसी के घर रुकते भी तो नहीं थे। बरसात का महीना था। बाढ़ एक दम से आ गई और बेचारों की लाशें दूसरे दिन जाकर सोहरी गाँव में मिली थी। अब उनके बेटों ने अपने-अपने बाप का काम सभाल लिया है तो गाँव वालों को कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं रहेगी।’’
गाँव वालों को ऐसे लग रहा है कि भरे परे ज्येष्ठ के महीने में रोज़ अथाह पानी को लादे काले बादल गाँव में बरसने को इकट्ठे हो गए हैं। गाँव की जो खड्ड इस वक्त सूख रही थी उसमें लबालब पानी कहीं से भर गया है, पूरे गाँव में मुरकाबी पक्षियों के झुँड बसने आ गए हैं। तोतों के झुँड गाँव की जोल के बाँसों में हज़ारों की संख्या में रहने आ गए हैं। स्त्रियों की चुहल-पुहल में उन दोनों की बातें समा गई हैं। खेतों की माटी में खुशबू उठने लग पड़ी है। गाँव के वे मतवाले शायर फिर आ गए हैं।
आखि़र उन्होंने अपने गाँव को अपना लिया है और फिर से यहाँ रहने आ गए हैं। गाँव के गूगा देवता अब फिर से प्रसन्नचित्त हो गए है। भक्तों की टोलियाँ फिर से नई फसल के चढ़ावे गूगा देवता को चढ़ाने जा रहे हैं। प्रचंड धूप में धान को रोपने के लिए पूरे खेतों में मयान के लिए बैल फुट-फुट गहरे कीचड़-नुमा खेतों में घुस कर मस्ती करने लग पड़े हैं।
गाँव की बेटियाँ दूर अपने ससुरालों से धान की रुपाई करने के लिए गीत गाती हुई आने लग पड़ी हैं। खेतों में लोगों ने पंक्तियों में हँसी मज़ाक के साथ धान रोपना शुरू कर दिया है। कूल्हों में पानी लबालब भरा है और गाँव वाले लड़ाई न करके एक दूसरे के खेतों को पानी से पहले भर रहे हैं।
गाँव की थड़ी ‘पवित्र स्थान’ में फिर से वो शक्ति आ गई है, जिस ईश्वर प्रदत शक्ति के द्वारा वहाँ पर आने वाले भयभीत भक्तों के शरीर से विषधर साँपों के डंक का ज़हर पलों में उतर जाता है। वहाँ अब फिर से आस्था का सैलाब बह रहा है। लोगों की आस्था का यह पुनर्जागरण क्या उन दोनों भक्तों की वजह से हुआ है?
आखिर उन दोनों में कौन सा प्रकाश है जो आनंददायक सूर्य के तले गाँव की धार की ऊँचाई को लाँघता हुआ खेतों, चरागाहों, टिल्लों, बावड़ियों और पीपल के टियाले के इर्द-गिर्द फैल रहा है। जब उन दोनों नेे गाँव में प्रवेश किया तो सूर्य बड़ी तेजी से दूर सोलहसिंगी धार की चोटी से छिपता हुआ गाँव की घाटी को सुनहरा बनाना शुरू कर चुका था। वृक्षों ने गाँव के आसपास की शान्ति को सोखकर आराम करना शुरू कर दिया था। पक्षी अपने घोंसलों को फिर से ढँूढते हुए आखि़री उड़ानों के साथ अपने-अपने हिस्सों के आसमान में चक्कर लगाने लग पड़े थे। गाँव जैसे एक स्वर्गमयी टापू में बदल चुका है। जहाँ खुशियों और आनंद का सागर टापू की सरहदांे को लाँघकर तटों पर पड़ी रेत के कणों में अपनी नम बूँदें बाँट रहा हो।
लोगों की भीड़ उनके डेरे की ओर बढ़ने लगी है। यह डेरा गाँव की सरहद के पास गूगा मंदिर के प्रांगण में सजता है रोज शाम को। वैसे बाकी समय ये दोनों अपने अपने घरों में खेती बाड़ी का काम करते। एक दसवीं तक पढ़ा तो दूसरा नौवीं तक, इससे आगे न पढ़ पाए ये दोनों, अपने- अपने बाप के मरने के बाद और बस कुछ वर्ष घर की खेती बाड़ी करते रहे। एक बार गाँव में चेल्लों की मंडली आई और बस दोनों उनके साथ निकल लिए चल्लंगी के गुर सीखने, जब वापिस लौटे तो उनके हुनर के सब दीवाने हो गए।
गाँव में अब किसी चीज़ की कमी नहीं होगी, क्योंकि वे दोनों फिर से आ चुके हैं। वे कुछ भी बन जाते हैं वो रूग्णता से जूझते शरीरों के लिए जड़ी-बूटियों में घुले रोगनाशक रस बन जाते हैं तो कभी दिशाहीन नींद के लिए उत्तेजित और उद्विग्न कर देने वाले स्वप्न बन जाते हैं। वे प्रचंड गर्मी से भभकते खेतों से जब गुजरते हैं तो काले बादल उनका पीछा करके बरसने का प्रपंच कर डालते हैं।
सावन के महीने में मूसलाधार बारिश में दूर गाँव का एक व्यक्ति उन्हें लेने के लिए उनमें से एक चेल्ले नौजवान भगतराम की चौखट पर पहुँच गया, ‘‘जल्दी चलो, महाराज! वह पगला सी गई है, उसको बीमारी तो कोई नहीं है पर फिर भी, मानसिक बीमारी जैसी हरकतंे करने लग पड़ी है।’’
मूसलाधार बारिश में दोनों इकट्ठे हुए, अपनी काली छतरियाँ उठाईं और रबड़ के जूते डालकर उस व्यक्ति के साथ निकल गए। दोनों ने बीमार लड़की के घर में प्रवेश किया। उन्होंने अपने गीले छातों को बाहर बेंच पर रख दिया। बल्ब के पीले प्रकाश में अचेत लड़की ने देखा कि ये अजनबी दो लंबे से दुबले पतले मनुष्य है। धीमी रोशनी में जवान लड़की को उनकी पोशाकें बड़ी अच्छी लगी। हवा की नमी में उसके भावहीन चेहरे पर कुछ स्वर उभरने लगे।
‘‘मोर पंख लाओ और धूनी के लिए आग के अँगारे सुलगाओ।‘‘ उनके से एक भगतराम बोला, ‘‘ शायद ईश्वर प्रदत शक्ति के द्वारा जिस चल्लंगी और अपने गुरु की उपासना हम करते हैं उसकी शक्ति व दिव्यता से हम इस युवती के मन को शांति पहुँचाएँगे और पूरे परिवार के लिए फिर से खुशियाँ लौटाएँगे।’’
भगतराम ने मोर पंख को लड़की के सिर के ऊपर पूर्व से दक्षिण दिशा की ओर घुमाना शुरू कर दिया। लड़की की आँखों में उदासी थी और वह लगभग सुन्न अवस्था में पड़ी थी। उसकी पथरीली सी आँखें इस अज़नबी को एकटक देखे जा रही थी, पर इन बेजान आँखों में कोई हरकत न थी, एक नौजवान युवती का यह बेहाल भी बरसात में पतझड़ का अहसास करवा रहा था। जबकि चेले की आँखों में बसंत की मौसम ठाठे मार रहा था और इधर युवती के चेहरे पर वर्षा में भी पत्तियाँ झड़ रही है।
युवती के चेहरे पर दो सुंदर आँखें गहरी झीलों सी दिखाई देने लगी, जिनमें कई मौसमों के बीत जाने के बाद भी तुच्छ लहरें न उठी थीं। कमसिन युवती ने दूसरों की शांति भंग करके ये कौन सी अनिद्राग्रस्त साधना अपना ली है।
बाहर मुसलाधार बारिश ने गवाह बनने की ठान ली थी। जो अभी अंदर होने वाला था। चेला अभी भी मोर पंख को लड़की के सिर पर घुमाए जा रहा था और कभी कभार मोर पंख को ज़मीन से छूता जा रहा था। कमरे के तुच्छ अँधेरे में खिड़की के बाहर देखता हुआ ये मायावी चेल्ला भगतराम कुछ पल के लिए बाहर देखने लगा। दूसरा चेल्ला रामदास अभी भी धूनी के इंतज़ाम में लगा था। वह एकदम से धूनी उठाए कमरे में प्रवेश कर गया। उसने धूनी को लड़की के बिस्तर के इर्द-गिर्द घूमाया और वहीं रखकर बाहर चला गया। लड़की ने अपनी आँखें बंद कर लीं।
चेल्ला भगतराम बोला, ‘‘क्या सचमुच तुम कुछ नहीं देख पा रही हो?’’ युवती ने अजनबी की बातों को सुना अनसुना कर दिया और फिर आंखें खोल कर खिड़की से बाहर देखने लगी। वह अजीब सी अचेतन थी। बाहर बारिश की बूंदंे पूरे वेग से धरती की ओर दौड़ रही थी।
लड़की के लिए अजनबी चेल्ला भगतराम मोर पंख हिलाते हुए फिर बोला, ‘‘क्या तुम नहीं देख रही हो? धंुध से भरे आकाश से नीले रंग का आसमान धरती के करीब आ रहा है। सैंकड़ों इंद्रधनुष बाहर उभरने लगे हैं। इसी आकाश से बादलों को परे धकेलते हुए रोशनी छन-छन कर बहती आ रही है और दूर धार के नीचे बहती नदी के ऊपर का इंद्रधनुष तुम्हें तुम्हारे सुनहरे भविष्य के गीत सुनाने से पहले मीठी बाँसुरी की धुन बजाकर आकर्षित कर बुला रहा है। क्या तुम्हें सावन के सुंदर सुसज्जित घोड़ों के पदचाप भी नहीं सुनाई दे रही है? देखो तो! तुम्हारी सखियाँ कुएँ के पास अपने घड़े छोड़कर मूसलाधार बारिश में भीगने के बाद एक बाबा की झोंपड़ी में घुस गई हैं और वहाँ बूढ़े बाबा की पहले से जलाई आग में अपने भीगे शरीरों को सेंक रही हैं। क्या तुम्हें दूर से आता एक राजकुमार नीचे प्रवाहमयी बाढ़ग्रस्त खड्ड के उस पार खड़ा खड्ड के उफनते वेग में उतरने को तैयार नहीं दिख रहा है? उठो, उसे रोको, वरना वह बाढ़ में बह जाएगा।’’
चेले भगतराम ने युवती की अचेतन अवस्था के तारों को छेड़कर उनमें कंपन उत्पन्न करने की कोशिश कर दी थी पर अभी भी युवती के चेहरे पर असाधारण सी उदासी थी। उसकी खुली काली आँखें दीए की लौ की तरह काँपती जा रही थीं। मोर पंख की हवा में उसके काले बाल हिल कर उसके चेहरे पर पड़ रहे थे ,पर वह उन्हें चेहरे से हटाने का प्रयास भी नहीं कर रही थी।
‘‘अच्छा सुनो! क्या तुम्हारी नाजुक कलाइयाँ सतरंगी चूड़ियाँ पहनने के लिए अपनी माँ से जिद्द नहीं करना चाह रही हैं। क्या तुम नहीं चाहती हो कि सर्दी की गुनगुनी धूप तुम्हारे चेहरे पर लालिमा को और भी ज्यादा निखार दे। क्या तुम ऐसे बागीचे में घूमना नहीं चाहोगी? जहाँ रंग-बिरंगी मनभावन तितलियाँ आसमान तक उठ जाती हों फिर एक नन्हे फूल पर बैठ जाती हों और अपने प्रेम की एक इबारत लिखने के लिए हवा में घुले रंगों को इक्ट्ठा करने लग पड़ती हों। क्या बाँसुरी वाले की सुंदर छवी तुम्हारे अचेतन होते मन में दूर धौलाधार की किसी पहाड़ी से उतर कर तुम्हें जीवन संगीत की नई धुन सुनाने को नहीं उतर रही है? देखो तो, तुम्हारी एक सखी इश्क के रुतबे पर यकीन करके कच्चे घड़े के सहारे ही उफनते दरिया में कूद बैठी है। तुम क्या उसे बचाने नहीं उतरोगी या फिर उसे कच्चे घड़े का राज़ नहीं बताना चाहोगी।’’
मोर पंख युवती के सिर पर घूमाते चेल्ला भगतराम बोले जा रहा था, ‘‘तुम्हारी ज़िंदगी को बहुत सी अद्भुत यात्राओं से भरने के लिए एक बाबा तुम्हारे आंगन के बाहर एक खाली संदूकची लेकर आवाजें लगा रहा है। उठो! दूर एक व्यक्ति बहुत से निरह परिंदों को पिंजरों में बंद करने के लिए जाल फैला रहा है क्या तुम्हें उसे अपने शीशम के पेड़ों के पास से नहीं भगाना है। देखो तो! एक माँ गिलहरी अपनी छोटी गिलहरी को बारिश से बचाने के लिए पेड़ की एक टहनी को सहारा बनाकर रातभर जागने का हौसला लेकर चुपचाप आसमान से बूँदों के खत्म होने के इंतज़ार में बैठ गई है। उसके नन्हें बच्चे अपनी माँ के साए में चैन से सो गए हैं। शिव की शक्ति स्वरूपा हो तुम! एक नदी के समान उठो! तुम्हें असंख्य बूढ़ों को बहुत दूर तक के सफर तक ले जाना है। वे लोग अभी-अभी आसमान का सफर करके फिर से दूर इस ग्रह का एक चक्कर लगाने के लिए बाहर तैयार हो चुके है और तुम अवचेतन की अँगुली पकड़कर गहरी कंदरा में रोशनी व ठंड से डरकर बैठ गई हो। तुम्हारी एक नई दुल्हन बनी सखी इस वक्त दूर ग्लेशियर के पास बसे पुरातन काष्ठकुंडी शैली के मन्दिर के प्रांगण में नाटी पर नंगे पाँव थिरक रही है। उठो! अपनी मदमस्त चाल में चलने का अभ्यास करो। तुम्हारी आत्मा को अभी उन्मुक्त होना है। तुम तो उस किश्ती वाले को ही देखती जा रही हो जो भाखड़ा बाँध की झील में बरसात में मछलियाँ पकड़ने के बीच हवाओं में फँस बैठा है पर तुम्हें दूर किनारे पर उसके इंतजार में काली छतरियाँ ओढ़े उसके गाँव के कई साथी नज़र नहीं आ रहे हैं।’’
मोर पंख अभी भी उसके सिर पर घूम रहा था, धूनी की उठती खुशबू शरीर के फेफड़ों से होते हुए खून में मिलकर ग्रंथियों व शिराओं तक पहुँच चुकी थी। रूग्णता के रोगाणु छटपटाने लगे। लड़की दिशाहीन नींद से जाग चुकी थी। वह एक दम से उठी और उसी कमरे में एक ओर कर्च्ची इंटों से बनी सीढ़ियों से होते हुए ऊपर वाले कमरे में चढ़ गई। ‘‘ओह! मेरा संदूक जिसमें मैं अपनी सहेली के लिए उपहार बना रही थी, वह स्लेटों के टूटने से बरसात के पानी के टपकने से भीग रहा है। ओह! अगर मैं नहीं जागती तो ये सफेद कपड़ा जिस पर मैं रंग-बिरंगे सितारे लगा चुकी थी, सब खराब हो जाने थे।’’
युवती ने संदूक के सामान को निकालकर इधर उधर सूखी जगह पर रख दिया और फिर अपनी पाज़ेबें खनकाती हुई पौढ़ियां उतरने लगी। इस अजनबी को देखकर जिसने मोर पंख अब तक दूर हटा दिया था और धूनी को खिड़की से बाहर फेंक दिया था। वह बोली, ‘‘आपको बाबा नहीं मिले क्या? वे शायद खड्ड के किनारे वाले घराट में अनाज पिसवाने गए थे, अभी तक नहीं लौटे क्या? बाहर तो मूसलाधार बारिश हो रही है, अच्छा आप बैठो, मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ और फिर एकदम से अपना चुनरी का पल्लू संभालते हुए एक दूसरे कमरे में निकल गई जहाँ दीवारें के साथ के बीच ही उसकी छोटी सी रसोई थी।‘‘
‘‘रोग का निदान हो गया है।’’ नौजवान चेल्ला मुस्कुराता हुआ बाहर छोटे बरामदे में निकल आया। मूसलाधार बारिश अब थोड़ी सुस्त पड़ चुकी थी और पानी बहता हुआ छोटी-छोटी कूल्हों में बहना शुरू हो चुका था।
वह बुदबुदाया, ‘‘ईश्वर का धन्यवाद हो, एक बार फिर जादुई शक्ति ने कमाल कर दिया है जो ईश्वर के प्रपंच का एक हिस्सा मात्र है।’’

— संदीप शर्मा

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857