लघुकथा

लघुकथा दिया

बाबू जी दिए खरीद लो ना सुबह से एक दिया भी नहीं बिका मां ने कहां था शाम को जब घर आना तो पूजन कि साम्रगी लेते आना अब पैसे ही नहीं है मैं क्या करूंगा अब धीरे धीरे शाम होनी वाली है ।बेटा चिंता न करो मैं सारे दिए खरीद लूंगा। बाबूजी ने कहां।सच मैं खरीद लोगे

हां मैं झूठ नहीं बोलता।बताओ कितने के हैं। बाबू जी पांच सौ रुपए के हुए।ठीक है ये लो पैसे । सारे दिए मेरे बैंक में रख दो।और हां साथ साथ गिनते करते जाना

गिनते तो आती है ना । हां बाबूजी मैं पांचवीं तक पढ़ा हूं।

गिनती आती है।वह दिए गिनने लगा। उसके

चेहरे पर खुशी साफ़ दिख रहीं थी।और बाबूजी उसका

दुःख बांटकर खुशी थे।क्योंकि वो मानते थे कि साथ

में यहीं जाना है। अपने कमाएं अच्छे कर्म

बाकी सब छोट जाना है।जो संपाति हम छोट जातें हैं

वो घर के कलह का कारण बनतीं है।और हम

अगर किसी के ग़रीब की भलाई करके

जाते हैं तो हमारा आदर परलोक तक होता है। बाबूजी

यह सोचते हुए मुस्कुराने लगे

अभिषेक जैन

माता का नाम. श्रीमति समता जैन पिता का नाम.राजेश जैन शिक्षा. बीए फाइनल व्यवसाय. दुकानदार पथारिया, दमोह, मध्यप्रदेश