कविता

जरूरी नहीं

जरूरी नहीं
हर बार  आंखें बंद कर
वो मांगती है बस तुम्हें
या तुमसे जुड़ी दुआएँ ही.
कभी-कभी
वो देखती है खुद में
खुद को धीमे धीमे घटते.
आत्मविस्तार को सिकुड़ते..
दीर्घवृत को एक बूंद में ढलते.
साँस लेते आंख, कान,जीभ को
पत्थर होते.
जरूरी नहीं
आंखें खोल वो तकती है
केवल उन्हीं रास्ते को
जिसपर तुम ही हो आते जाते.
कभी-कभी आंखें मुड़ जाती हैं
उन संकरी पगडंडी पर भी
जो उतरते हैं
आँखों में पल रहे कुछ
जन्मजात सपनों के
चौड़े मेले में .
“चलो माफ कर दो
गलती हो गई “
जरूरी नहीं.
हर बार ये बोलना
गलती स्वीकारना ही है
ये हो सकते हैं
तुमसे मुक्ति के रास्ते भी

— क्षमा शुक्ला

क्षमा शुक्ला

औरंगाबाद बिहार