कविता

शीतलहर

शीतलहर जब भी आती है
जीवन जीने की हर व्यवस्था
बिगड़कर रह जाती है।
सूर्यदेव के दर्शन कभी होते तो
कभी नहीं भी होते हैं,
होते भी हैं तो लगता जैसे
सूर्यदेव भी शीतलहर में जैसे शरमा रहे हैं
डर के मारे अपनी आभा पर
अंकुश लगाए हुए हैं
शीतलहर को फलने फूलने का
भरपूर मौका दे रहे हैं।
बुजुर्गों की दुश्वारियां बढ़ जाती हैं
बीमारियां हमला कर देती हैं
बच्चों के बाहर निकलने पर
पाबंदियां लग जाती हैं।
यात्रा की मुश्किलें बढ़ जाती हैं
मजबूरियों में जैसे तैसे
यात्रा करनी ही पड़ती है।
दैनिक मजदूरों की शामत आ जाती है
दिन छोटा होकर उनकी हँसी उड़ाती है,
उनकी बेबसी का उपहास करती है।
हर तरह के काम पर असर पड़ता है
किसान हैरान परेशान होता है,
आग जलाकर हाथ पाँव सेंक सेंक
जैसे तैसे खेती के काम करता है
बेचारा बेबस लाचार दिखता है।
स्कूली पढ़ाई भी बाधित होती है
पढ़ने वाले बच्चों की बड़ी दुर्गति होती है
नजदीक आती परीक्षा बड़ा कष्ट देती है,
शीतलहर हो या हाँड़ कँपाती ठंड
परीक्षा की तैयारी में लगे रहने को
मजबूर ही करती है।
महिलाओं की हालत तो
और खराब हो जाती है
कब सुबह से शाम हो जाती
पता ही नहीं चल पाती
सारा समय रसोई और
बनाने खिलाने में लग जाती
आराम की बात तो छोड़ ही दीजिए
उनके खुद के लिए भी
समय कहाँ बचती?
गरीबों, असहायों, निराश्रितों की
बहुत दुर्दशा होती।
शीतलहर जब तक रहती
हर किसी को दुख ही देती
किसी को नहीं बख्शती है,
अपने रंग ढंग दिखाती है
हर किसी की बेबसी का
खुला मजाक उड़ाती ही है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921