लघुकथा

पैसा ही सबकुछ नहीं होता!

                                    ठंडी हवा का झोंका मन बहलाने की कोशिश कर रहा था। फूलों की खुशबू से आसपास महक रहा था। हिल स्टेशन की ताजी हवा, खुला खुला आकाश। नीलाभ, सुंदर। ऊंचे ऊंचे परबत। कलकल करती नदी की जलधार। ‘मन प्रसन्न हो मेरा’ सोचकर मौसम भी सुहाना हुआ होगा। अपने अपने तरीके से हर कोई मुझे स्वस्थ और मस्त होते देखना चाह रहा था। मैं हंसू, पहले जैसा चलूं, फिरूं। स्वास्थ्य लाभ पाकर जल्द से जल्द घर वापसी हो जाए मेरी।
मेरा मन उदास, खिन्न हैं। जी बहलाने की सारी कोशिश बेकार हैं। झूठी आस। झूठा विश्वास। क्या झूठ के सहारे जिया जा सकता हैं? मेरी अनुरागी प्रिया, तुम से वियोग सहना मेरे लिए आसान नहीं हो सकता। आज, इस विकट बेला में प्रिया मुझे तुम्हारी कमी बहुत खल रही हैं। क्यो रुसवा होकर चली गयी तुम मुझे बीच मंझधार छोड़कर? उलझन हैं कि सुलझती नहीं। आंखों की कोर से बह निकलती हैं। बेचारा रामु भी आजकल उदास रहता हैं। “मालकिन, मालकिन”दिनभर पुकारता रहता था तुम्हे। तुम्हारे भरोसे थोड़ी देर घुमघाम कर आ जाता था। तुम्हारा विश्वास अटूट था अपने प्रभुजी पर। कुछ ऊंच-नीच हो जाये, परम प्रभु का बही-खाता खोल बैठ जाती थी तुम। जैसे तुम मेरी अर्धांगिनी नहीं, कोई सुशांत, गंभीर, स्नेही, ममतामयी गुरुणी हो। डांट, फटकार, चिकचिक, हर पल की टिकटिक। आदत सी हो गयी थी हमें।
                 पैसा! पैसा! पैसा! सारी जिंदगी पैसे के पीछे भागते रहे हम। न कभी तुम्हारे साथ कुछ पल गुजारे, न हंसी मजाक किया। बस अपनी ही माया धुन में रमे रहे। तुम्हारा कहा फिजूल लगता था हमें। दान, जरूरतमंद को सहायता राशि देना हमें नही सुहाता। आज भी नहीं। हमारा दिल ही छोटा हैं। पाई-पाई का हिसाब अब भी रखते हैं। अपाहिज हो गए तो क्या, दिमागी तौर पर तो चुस्त दुरुस्त हैं। क्या कह रही हो? साथ कुछ न आएगा। अरे जाना कहा हैं अभी? किसे जाना हैं? इतने पैसे हैं, यमराज को भी खाली हाथ भेज देंगे। पैसे की ताक़त का अंदाजा नहीं हैं तुम्हे। तुम मुस्कुरा देती। समझाना बेकार हैं, समझ जाती। प्रिया, अब समझ में आ रही हैं तुम्हारी बातेँ। हमेशा कहती थी, प्रभु जी की मर्जी। उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। हम उपहास भरी नजरों से तुम्हे घूरते, जैसे कितनी भोली, कितनी बुद्धू हो तुम। हां, अब हम उसकी क्या किसी और की मर्जी के बिना करवट भी नही बदल सकते। हॉं, हम अपाहिज हो गए हैं। परावलंबी। सच कहती थी तुम, पैसा ही सबकुछ नहीं होता। अपना परिवार, अपनों के संग स्नेह से जीवन में आनंद आता है। जीने का उल्लास। तुम ही बताओ, अब हम क्या करे?
“बाबूजी, बाबूजी, सुन रहे हो?” चंपा मालकिन को आवाज दे रही हैं। “अवश्य ही कुछ जरूरत आन पड़ी होगी।”
“रामु देखो तो क्या चाहिए। तुम्हारी मालकिन का आदेश हमें मानना होगा। जन्म जन्म का नाता हैं हमारा। जाओ गरीबों को अनाज बांटो। दवाइयां, शिक्षा हेतु मदद करेंगे हम। दिल खोलकर।”
प्रिय प्रिया, आज हम शांति, सुकून से सो पाएंगे। देने में कितना आनंद हैं आज हमें पता चला।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८